अक्सर
एक स्त्री से
प्यार करने के बाद
क्या बचता है?
निस्सन्देह
स्त्री बिल्कुल नहीं बचती
वह बचता है
जो हमने
कभी नहीं चाहा था
और वह भी बचता है
जो कभी कुछ होता ही नहीं
स्त्री से
प्यार करते समय
हम स्त्री को ही बचा नहीं पाते हैं
प्यार करते हुए
वह इतनी दूर चली जाती है
जितनी कि अक्सर
वह जाती नहीं है
हम एक ही समय में
स्त्री से प्यार करते हैं
और उससे दूर भी होते हैं
स्त्री के साथ कौन रहता है?
लिखना
नहीं होती हो दूर तुम
इतनी दूर रहकर भी
अभी अभी छुआ है तुमने
मेरे सामने रखी डायरी को
फिर पूछा है
नई कविता कब लिखोगे
मैं मुस्कराते हुए बताता हूँ
मैं कविता ही लिख रहा हूँ
कविता में ही तुमसे मिल रहा हूँ
मसलन
कल तुमसे बात करते हुए
मैंने थमा दिए थे
तुम्हारे हाथ में थोड़े से शब्द
मसलन फूल, बारिश, पत्तियाँ
आज मैं देना चाहता हूँ तुम्हें
फूल, बारिश और पत्तियाँ
अंतिम
वह कौन सी लड़की होगी
जिससे हम
जीवन में अंतिम बार मिलेंगे
लगभग क्षणिक मुस्कान
या
दूर सड़क पर चलती
अपने बीमार भाई का टिफिन ले जाती
पता नहीं कौन सी
हो सकता है
वह लाल फ्राक पहने हो
या उसने अपने जूड़े में फूल लगा रखे हों
यह भी तो पता नहीं
हम जिसे अंतिम बार देखेंगे
उसके विचार प्रेम के बारे में क्या होंगे?
संभव है
अंतिम लड़की आपसे कुछ बात कर ले
पूछ ले आपका नाम
और यह भी
कि आपने जीवन में क्या किया है
हमें यह भी पता नहीं पड़ेगा
कि जो लड़की हम देख रहे हैं
वह हमारे जीवन की अंतिम लड़की है
वह कभी नहीं जान पाएगी
कोई उसे अंतिम बार देख रहा है
होगी ज़रूर
कहीं न कहीं एक लड़की
जिसे जीवन में हम अंतिम बार देखेंगे
उंगली
वह कौन है
जो मेरे कंधे पर सोकर
स्वप्न देखती है
मेरी नींद के साथ साथ
बालों को सहलाती एक हथेली
कब एक छोटी उंगली बन जाती है
छूने लगती है होंठ
परस्पर स्पर्श में टहलती रहती है नींद
कभी कानों को छूती है
कभी पीठ पर सिहरती है
कभी आपस में उलझी उंगलियों को धोखा देकर
चुपके से कुहनी पर ठहर जाती है
वह कौन है
जो मेरी देह में बार-बार बसती है
मुस्कराती है
फिर अपने ही अकेलेपन में गुम हो जाती है
रुमाल
एक रुमाल में समाकर
वह मेरे साथ
लगातार रही पूरी यात्रा में
हाथ में पकड़े हुए
किसी फिक्र की तरह
जेब में रखा हुआ रुमाल
चौकीदार की तरह
जागता रहा रातभर
दुःस्वप्नों को फटकार कर भगाने के लिए
मेरी गीली देह को सोखता, सुखाता रुमाल
अपनी काया में
उसकी नम्रता लिए हुए
हर क्षण तैयार रहा
उसके होने को
सतत स्पर्श में बदलता हुआ
एक छोटे रुमाल में
और भी छोटी बनकर
वह लगातार घुलती रही
हर क्षण पिघलती मेरी देह में
कल तुमसे बात करते हुए
जवाब देंहटाएंमैंने थमा दिए थे
तुम्हारे हाथ में थोड़े से शब्द
बहुत खूब!
हम एक ही समय में
जवाब देंहटाएंस्त्री से प्यार करते हैं
और उससे दूर भी होते हैं
स्त्री के साथ कौन रहता है?
वह कौन है
जो मेरी देह में बार-बार बसती है
मुस्कराती है
फिर अपने ही अकेलेपन में गुम हो जाती है
बेहतरीन!!!!
इतनी अच्छी कविताओं से दिन की शुरूआत, आज जरूर कुछ अच्छा होगा.
जवाब देंहटाएंस्वागत... अब तो प्रेम कविताओं के प्रस्तावित संग्रह की प्रतीक्षा है.
जवाब देंहटाएंराकेशजी की इन स्त्री विषयक कविताओं में स्त्री के प्रति गहरा लगाव व्यक्त हुआ है, उनके वैराग्य में भी एक गहरा राग है, जो इन कविताओं को अपनी सादगी में भी असरदार बनाता है। बधाई।
जवाब देंहटाएंपरस्पर स्पर्श में टहलती रहती है नींद
जवाब देंहटाएंकभी कानों को छूती है
कभी पीठ पर सिहरती है
कभी आपस में उलझी उंगलियों को धोखा देकर
चुपके से कुहनी पर ठहर जाती है
अनुभूतियों की गहराई में भी अपनी जाग को
थामें ,उनकी भाव-छवियाँ शब्दों में उतार देना ,
यह दुरूह कार्य इन कविताओं में सहजता से
हुआ है ! सुन्दर एवं सराहनीय रचनाएँ !
बेहद गहन अभिव्यक्तियां हैं जो सीधे दिल मे उतरती हैं।
जवाब देंहटाएंआपका साथ साथ फूलों का,आपकी बात बात फूलों की
जवाब देंहटाएंउंगली पकड़कर जाने कहां-कहां घुमाती कविताएँ...कोमल व भूलभुलैया में।
जवाब देंहटाएंसारी रचनाएँ एक से बढ़ कर एक ...अच्छी अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंअच्छी कविताऍं.....'अक्सर' और 'उँगली' ने ज्यादा प्रभावित किया.....'' परस्पर स्पर्श में टहलती रहती है नींद '' श्लाघ्य पंक्ति...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंकुछ कहने के लिए शब्द ही बचे नही.
जवाब देंहटाएंसंदीप
uff!! काश, ऐसा प्रेम हम कर पाते...रच पाते फिर ऐसी कविताएं...
जवाब देंहटाएंकाले धरातल पे सफ़ेद सच ... पहली बार अपर्णा दी ! मुबारकबाद
जवाब देंहटाएं...
प्यार करते हुए
वह इतनी दूर चली जाती है
जितनी कि अक्सर
वह जाती नहीं है//// क्या कहूँ राकेश सर , सब तो कह दिया आपने
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अंतिम/// मिलेंगे किस से ये तो नहीं पता/हां किस से मिलना चाहेंगे /ये शायद सबको पता होगा/
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अपने ही अकेलेपन में गुम हो जाती है//// एक बार फिर वो सारा दर्द उड़ेल दिया राकेश जी आपने
कविता में ही तुमसे मिल रहा हूँ/// इससे अच्छा जरिया और कहाँ , खुशनसीब हैं जिन्हें मिला हो ये हुनर
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आज मैं देना चाहता हूँ तुम्हें
फूल, बारिश और पत्तियाँ/// सारी पीड़ा कहते शब्द
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एक छोटे रुमाल में
और भी छोटी बनकर
वह लगातार घुलती रही
हर क्षण पिघलती मेरी देह में//// प्रेम की पराकाष्ठा तक पहुँच गयी ये रुमाल
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सादर भरत
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 12 - 04 - 2011
जवाब देंहटाएंको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
जबरदस्त!!
जवाब देंहटाएंLaajabaab..
जवाब देंहटाएं९ अप्रैल २०११ १२:३१ अपराह्न
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