वंदना शर्मा ::






























नए वर्ष में प्रेम पर कुछ कविताएँ फूलों से ::

१ ::


सोने के बुर्ज वाले संगमरमरी

मन्दिर के सामने से गुजरते हुए ...


मुस्कुराती हूँ इस ख़याल पर ..


कि ऊब जाते हैं देवता भी ....


आरामगाहों में भक्तों के चौबीस घंटे के साथ से ..


चले जातें हैं किसी नामालूम सी जगह


शयन श्राद्ध या उत्तरायण सूर्य के बहाने


कार्तिक एकादशी तक लौटने के लिए ..


खोजती हूँ अनमनी सी ..


छुपाकर रखी हुई मामूली शेरो शायरी वाली धूल भरी डायरी..


अब तो इतना भी याद नही..


कि उसमे रखें हैं सूखे गुलाब या हरसिंगार


उलट पुलट देती हूँ सुव्यवस्थित सज्जा और अनुमोदित अनुशासन


थकी मिचमिचाती द्रष्टि से देखती हूँ ,


नई जगह चहकते हुए ..


शो पीस केंडिल्स और क्रिस्टल पिरामिड की चमक,


यहाँ तक कि ऐश ट्रे की राख भी..


जो जानती है कि असम्भव है मगर फिर भी


सेंटर टेबुल से उतर कर सुलगना चाहती है अलाव में ..


अपरिचित आकर्षण बांधता है दृष्टि  ..


ध्यान आता है ..


बहुत दिनों से नही लिख पा रही हूँ..


मुकम्मल प्रेम कविता ..


और मुस्कुराती हूँ..


देख न लिए जाने की सावधानी के साथ !!!

 

२::
 
 एक जैसा कहाँ होता है उम्मीद और तारे का टूटना

स्याह अंधेरों में फूट पड़ती हैं रौशन कोंपलें टूटते तारे को देख कर


जबकि दम तोड़ देती हैं कई कई उम्मीदें किसी एक उम्मीद के टूटने पर


कितना शोर करता है तुम्हारा जाना कि नहीं आ पाते कानों तक


बेतरतीब बालों के तकाजे,गाड़ियों के होर्न


फल सब्जियों के दाम और सारे जरुरी काम !


टप से गिरती हैं स्मृतियाँ ह्रदय में नुकीले पत्थर सी


ठीक टूटते तारे की तरह धंस जाती हैं बेआवाज़ कसक सी


तुम्हरे स्पर्श छोड़ जातें हैं हाथों पर तड़के कांच के निशान !


जानती हूँ तुम्हें रोका जा सकता था


हाँ , मगर नहीं  रोका .....


क्यों कि शरद के पक्षियों सा तय था तुम्हारा जाना


छुटपन की कहानियों में छुपा उस चेतावनी सा


कि जिसमें जिक्र था ऐसे ही किसी परदेसी का !


दर्द का मोती बहुत गहरे पैठ गया मोक्ष की प्रतीक्षा में


आकस्मिक मौत के प्रेत सा


सालता है रात - दिन


कि जैसे भारी कटती हैं निष्फल बेरोजगार दीर्घ यात्राएँ !


ग्रीष्म की तारों भारी एकाकी रातों में


टूटते तारे को देखने की चाह सी..


तुम्हारे लौटने की उम्मीद, अभी बाकी है !


वर्षों को पीती रहूंगी मैं


आकाश दीप सी


और सूनी आँखों से देखती रहूंगी


तुम्हारी वापसी के रास्ते..


हाँ, मगर तय है कि नहीं आएगी तुम तक कोई भी आवाज़


क्यों कि खारे पानी नहीं देते प्रतिध्वनियाँ


वे बस गिरते हैं कातर चुपचाप !!!!


३::


तुम्हारे आने पर अब

नहीं सवांरती बाल, शीशा नही देखती ..
नही लगाती करीने से चाय की ट्रे
कुछ और तो लो ,जिद भी नहीं करती
उड़ेलती हुई दिन भर की बीती..
बिंदास देती हूँ गालियाँ और मजे में कह जाती हूँ
उठा लाओ तो जरा दूर रखी मेरी चप्पलें
फर्श बहुत ठंडा है ..
भूल ही जाती हूँ वह पहली तारीख जिसमे हम मिले थे
तुम्हारे प्रेम में हूँ ..
ये कुछ सबूत मुझको मिले हैं ....

बह गईं हैं खारे पानियों में

तन मन की निबोलियाँ ..
क्षुब्ध ज्वालाओं के तर्पण कर चुकीं हूँ
बाकी नही रहे हाथों पर अड़ियल जले निशाँ

अंधड़ो से नाते...

आजकल रुला नही पाते
कितने वेश बदलने पड़ते..
तुमसे खुली किताब
भूलने और माफ़ भी करने लगी हूँ
तुम्हारे प्रेम में हूँ..
ये कुछ सबूत मुझको मिले हैं ..

व्यस्तताओं की उलझी लटों में

खिलते हैं बारहमास तुम्हारी फ़िक्रों के फूल
लेते है राहत की सांस..
इस ख़ुशी में..
कि ठीक ठाक पहुँच गए हैं मुझ तक
जैसे तेज रफ़्तार गाड़ी के आगे से..
दौड़कर निकल जाए हँसता हुआ बच्चा

सारी बातें, खुराफातें, सारे गुस्से आस पास के

रख देती हूँ...
मिटटी सनी सीपियों से
पौंछते, धूसर थकानों के निशान..
कभी नही रखते रस्तों पर संदेहों के स्याह पहाड़
कुछ भी नही पूछते ...
जैसे नही बोल पाई हूँ तुमसे
शुक्रिया...
तुम्हारे प्रेम में हूँ...
ये कुछ सबूत मुझको मिले हैं !!!

४::


ये प्रेम के शुरूआती दिन हैं

भागतीं हैं ट्रेन सी घटनाएं
किन्तु प्रेम करती हुई लड़की
लेटी है पाँव पसार..
बिनसर के सूने जंगलों की लता सी !

बिना धुला,थका चेहरा भी

दमकता रहता है आज कल
त्वचा की ठीक पहली परत के नीचे
शरद की सुबह सी
अनचीन्हे फूलों से भरी होती है
प्रेम करती हुई लड़की !

हिल स्टेशन पर मौसम के

खिले दिनों की राहत सी
गुनगुनी धुप सी रहती है
आखिर वह कर रही होती है ..
दुनिया के सबसे शानदार पुरुष से प्रेम !

अलौकिक कल्पनाओं वाले स्वप्न पाखी

सतत देते हैं कोरे कागजों से सन्देश
विसर्जित कर देती है वह उनमे
तमाम वर्जनाएं ठीक ऐसे
कि जैसे हो सारी सावधानियों के साथ पूरी असावधान
अहर्निश तैरती है उनके अद्रश्य आखर सरोवरों में
जल पर दिए सी !

बेवजह बातें बेसबब उठती बैठती भूलती है हर जरुरी काम

और आपस में ही उलझते हाथ आजकल नहीं मानते उसकी बात !

स्मृतियों में आते ही दादी नानी की वह सीख

कि किताबों से इतर बहुत कुछ है करने सीखने को
वह लेती है राहत की सांस..
रोकने को उमगती हँसी ..
धौल जमाती है सहेली की, बेखबर पीठ पर !

प्रेम करती हुई लड़की अक्सर सोचती है

क्यों गढ़ा गया सच्चिदानंद
लिखा जा सकता था केवल प्रेम ..
क्यों मांगे गए अभयदान
चाहे जा सकते थे प्रेम के वरदान ..
जिसे कहना चाहिए था प्रेम
क्यों कहा गया निर्वाण..

प्रेम करती हुई लड़की के लिए

किसी काम के नही होते तर्क !

वह लड़की हैरान है

अपने नास्तिक होते जाने पर
कि उसमे उतरने लगी है हीर
बर्खास्त चल रहे हैं नारायण !

सुबह शाम और चाँदनी रात का होना

अब होने लगा है ...
ठीक सुबह शाम और चाँदनी रात के होने जैसा
बारिशें अब बारिशें ही लगने लगीं हैं
और लम्बे रास्ते हो गए हैं बहुत छोटे
जिन्हें नर्म रखते हैं
स्वगत गान से ..
कल्पनाओं के वन्य निर्झर !

आज कल सुन पा रही है सारी बातें

फूलों परिंदों हरी चूड़ियों और उत्सवों की भी..
जिन्हें जरा भी नही जानती थी वह कभी पहले

प्रेम करती हुई लड़की..

ह्रदय में छुपाये इन्द्रधनुष
हाथों में थामे ताज महल..
जब इठलाती हुई टहलती है
वीनस पर..
सर झटकता है समय का
दुनियादार बूढा..
और हैरत से झपकता है
धँसी भयभीत आँखें !!!!!!!


५.

हे ! सत्तासीन स्त्रियों ::


पसरी हुई है मौन दूधिया रौशनी

डरी सी बिछी हुई करीने से कटी हुई घास
ग्रेनाईट पत्थर से चकाचक अम्बेडकर पार्क में
जंगल के सबसे विशाल जानवर खड़े हैं पंक्तिबद्ध सावधान

राजमहिषी के अगले संकेत की प्रतीक्षा में
अमरत्व की चाह सा उभरा तुम्हारा नाम शिलापट्टिका पर
जानती हो
भरता रहा हम में विजेता भाव
वह गौरव का दिन भूले नही हैं हम
कि जब तुम्हारे सामने शकुनियों दु:शासनों की हताश फौज ने
किया था आत्म समर्पण ....
२०६ का जादुई आंकडा बंद मुट्ठी में लिए
टहले तुम्हारे पाँव ५ कालिदास मार्ग पर
ठंडे चूल्हे वंचित आस बादलपुर के खेत खलिहान
गाने रहे थे स्वगत गान ....
 फिर एक बार हम खुश थे कि जहाँ गंधाती थी हमारे खून पसीने की फसलें
जहाँ लाद दिए गये थे हमारे कन्धों पर दुत्कारे इतिहास
ठीक वहीँ, जरा सीधी- सी हुई हमारी टेढ़ी पड़ चुकीं पीठें ..
निर्वस्त्र घसीटी गईं औरते,रसोईघर की लपटें और पिता की लाचारी
सभी, दबे पाँव इकट्ठे हुए और लगभग दौड़ते हुए .....
गले जा लगे अछूतों की बस्तियों,जूठन पर पलते भविष्य,पवित्र कुओं और मंदिरों से भगाए गये देवताओं से
दुःख का भार कम होने तक चीख चीख कर रोते रहे हम ..
ठीक उन्ही दिनों की तरह मर्मभेदी थे हमारे आर्तनाद
जिन दिनों दी गईं थी हमें समान नागरिक सहिंताएं या मौलिक अधिकार
हम डरे हुए तो थे
पर खुश थे
हाँ,चुप थे
 इस ख़ुशी में हम एक बार फिर भूल गये
कि शीर्ष पर पहुंची हुई शक्तियाँ स्त्री या पुरुष नही होती
वे मात्र असुरक्षा हैं दर्प हैं लिप्सा हैं
और हैं रेसकोर्स रोड पर पूर्ण होती महत्वाकांक्षाएं
हम भूल गये कि राजभवन की सीढ़ियों पर किसी काम की नही होतीं संवेदनाएं
बल्कि इन रपटीले रास्तों पर इतना हल्का होना ही सुविधाजनक है
कि टोल टेक्स में ही पीछा छुडा लिया जाए अंतरात्मा के बोझ से
हमें यह भी याद नही रहा कि अंतर्रात्मा नर या मादा नही होती
हमें बताया गया कि बहुत जरुरी है राजपथों का सुरक्षित होना
गली मौहल्ले चौपालों के खतरों से ...
हमें समझाया गया कि राजा और प्रजा समानार्थी शब्द नही होते
हे सत्तासीन स्त्रियों
गलती तुम्हारी नहीं है
 गलत थे हमारे आकलन गलत थे हमारे उछाह
असल में
आचार्यों द्वारा निर्मित शब्दकोशों के बाहर
सत्ता कभी स्त्रीलिंग नहीं होतीं !!


21 टिप्‍पणियां:

  1. औरतों की जिंदगी के भागे देखे अनुभवों का बेबाक वर्णन करने वाली सीधी मगर विचारपरक कवितायेँ.इसमें निराश,प्रेमरत और सत्तासीन स्त्रियों पर सटीक ओंजर्वेशन है.

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  2. Padhne ke bad itni jaldi kuch kahna itna aasaan nahi .likne aur padhne mein samay lagta hai iss liye intezaar kijiye abhi to mere zehn mein in kavitaon ki pertein khulni baqi hain ..koshish sarahniye hai

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  3. अद्भुत....आपकी लेखनी का तो जबाव नहीं....सचमुच सत्ता पर पहुंच कर महिला-पुरुष का भेद मिट जाता है....इस ख़ुशी में हम एक बार फिर भूल गये.. कि शीर्ष पर पहुंची हुई शक्तियाँ स्त्री या पुरुष नही होती वे मात्र असुरक्षा हैं दर्प हैं लिप्सा हैं
    .... अंतर्रात्मा नर या मादा नही होती ...सटीक चोट, इतनी सपष्टता से कहना ही आपको सबसे अलग करता है...वाह....

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  4. बेहद शानदार रचनाये………प्रेम करती लडकी बहुत सुन्दर

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  5. वंदना की कविताओं की वंदना होनी चाहिए. सुंदर प्रेम की सुंदर कविताएँ. वंदना जी को ऐसी प्रेम कविताएँ लिखनी बंद ना करनी चाहिए.

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  6. प्रेम की अविरल धारा में बहते हुए, यात्रा का अंत होना चेताता है, यात्रा जिसे कभी ख़त्म नहीं होना चाहिए था, प्रेम पर लिखना, उसे महसूसना और बह जाना......सब था कविताओं में, लगा अभी और पढना है वंदना दी को........नए साल पर फूल खूब महकें, अपर्णा दी और वंदना दी, दोनों को बधाई और नववर्ष की शुभकामनायें........

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  7. बधाई! और नववर्ष की शुभकामनाएँ आप इसी तरह बेहतरीन लिखती रहें.

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  8. aacharyon dwara nirmit shabdkoshon ke bahar satta kabhi striling nahi hoti,adbhut kalpna.apne hamare samya ka sach samne laa diya .mubark ho .

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  9. बहुत सुंदर मन के भाव ...
    प्रभावित करती रचना ...आपको नववर्ष की शुभकामनायें

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  10. बेहतरीन अभिवयक्ति.....नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये.....

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  11. अदभुत है आपकी संवेदना |प्रेम की इतनी खूबसूरत कविताये अरसे बाद पढ़ी है मैंने ...अभिभूत कर दिया आपने |बहुत बधाई आपको..

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  12. वंदना जी, आप का संदर्भ मुझे किसी अन्य युवा कवि से मिला था. मैं कुछ दिन से आप से संपर्क करने का प्रयास कर रहा हूँ. मैं एक संकलित कविता संग्रह तैयार करने की प्रक्रिया में हूँ. यदि उसमें सम्मिलित होना आप को स्वीकार्य है तो कृपया निम्न लिखित मेल ऐड्रेस में से किसी पर भी संपर्क करें: premuncle@gmail.com, anjana.kavyakalash@gmail.com

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  13. बहुत खूब...... सत्ता *स्त्रैण* नहीं हो सकती. कभी नहीं!!

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  14. पढ़ते पढ़ते खो जाने वाली कवितायें ...
    बहुत ही सुन्दर रचनायें ...........

    मेरा ब्लॉग पढने की लिए इस लिंक पे आईये...
    http://dilkikashmakash.blogspot.com/

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  15. वंदना दी की कसी हुई सशक्त भावपूर्ण लेखनी की तो पहले से ही मुरीद हूँ यह सभी कवितायेँ पहले भी पढ़ी थी पर उनको यहाँ एक साथ पढ़ कर और भी अच्छा लगा इतनी खूबसूरत कवितायेँ जैसे फूलो का साथ पा कर और भी महक उठी है बधाई वंदना दी ....
    आभार अपर्णा दी इन्हें समेकित कर और भी महकाने के लिए ....

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  16. बढ़िया शब्द विन्यास ...
    शुभकामनायें आपको !

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  17. मीनाक्षी जी को पढते वही यह लिंक मिली । जिज्ञासावश रचनाएं देखी । अभिभूत होगई ।कमाल की कविताएं हैं ।

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  18. काफी अच्छा लगा आपकी कवितायें पढकर.

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  19. और मुस्कुराती हूँ..

    देख न लिए जाने की सावधानी के साथ !!!

    बहुत सुन्दर रचनाएँ...
    nice blog..

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