1
आओ चलें
तुम -
सितारों की ज्यामितीय कला से प्रेरित
अनंत व्योम की उज्ज्वलता में
व्यवस्थित - गुंथित
बेहिसाब - बेशुमार - बेशकीमती रेशम.
मैं -
इस पृथिवी के चारो ओर
उपजी - बिलाती वनस्पतियों की साँस से संचालित
हवा में उड़ता - भटकता हुआ
एक अदना - सा गोला भर कपास.
यह एक दूरी है
जो खींच लाई है कुछ निकट - तनिक पास
अपनी दैनंदिन साधारणता में
भुरभुराता हुआ यह जीवन
लगने लगा है कुछ विशिष्ट - तनिक खास.
इसी में छिपी है निकटता
इसी में है एक दबी - दबी सी आग
इसी में है सात समुद्रों का जल
इसी में हैं वाष्प - ऊष्मा - ऊर्जा के सतत स्रोत
इसी में हैं सात आसमानों की प्रश्नाकुल इच्छाएं
इसी में रमी है पंचतत्वों से बनी यह देह
जिसमें विराजती हैं कामनाओं की असंख्य अदृश्य नदियाँ
अपने ही बहाव में मुग्ध - अवरुद्ध
एक तट पर विहँसता है राग
और दूसरे पर शान्त मंथर विराग.
फिर भी भला लगता है
अगर रोजाना बरती जा रही भाषा में
तुम्हें कहा जाए रेशम
और स्वयं को कपास.
अपने करघे से एक धागा तुम उठाओ
मैं अपनी तकली से अलग करूँ जरा -सा सूत
बुनें दो - चार बित्ता कपड़ा
और तुरपाई कर बना डालें
दो फुदकती गिलहरियों के लिए नर्म- नाजुक मोजे.
मौसम के आईने में
कोई छवि नहीं है स्थिर - स्थायी
आँख खोल देखो तो
सर्दियाँ सिर पर सवार होने को हैं
पेड़ों से गिरने लगे हैं चमकीले -चीकने पात
आओ चलें
थामे एक दूजे का हाथ
चलते रहें साथ - साथ .
2
कौसानी में घर की याद
कैसे - कैसे
करिश्माई कारनामे
कर जाता है एक अकेला सूर्य....
किरणों ने कुरेद दिए हैं शिखर
बर्फ के बीच से
बिखर कर
आसमान की तलहटी में उतरा आई है बेहिसाब आग.
कवि होता तो कहता -
सोना - स्वर्ण - कंचन - हेम...
और भी न जाने कितने बहुमूल्य धातुई पर्याय
पर क्या करूं -
तुम्हारे एकान्त के
स्वर्ण - सरोवर में सद्यस्नात
मैं आदिम -अकिंचन...निस्पॄह..नि:शब्द..
क्या इसी तरह का
क्या ऐसा ही
रहस्यमय रोशनी का - सा होता है राग !
3
नाम
असमर्थ - अवश हो चले हैं शब्दकोश
शिथिल हो गया है व्याकरण
सहमे - सहमे हैं स्वर और व्यंजन
बार - बार बिखर जा रही है वर्णों की माला.
यह कोई संकट का समय नहीं है
न ही आसन्न है भाषा का आपद्काल
अपनी जगह पर टिके हैं ग्रह - नक्षत्र
धूप और उमस के बावजूद
हल्का नहीं हुआ है गुलमुहर का लाल परचम.
संक्षेप में कहा जाय तो
बस इतनी - सी है बात
आज और अभी
मुझे अपने होठों से
पहली बार उच्चारना है तुम्हारा नाम.
4
पूर्वानुमान
फोन पर
लरजता है वही एक स्वर
जिसे सुनता हूँ
दिन भर - रात भर.
छँट रहा है कुहासा
लुप्त हो रही है धुन्ध
इधर - उधर
उड़ - उड़ कर.
मैं कोई मौसम विज्ञानी तो नहीं
पर सुन लो -
आज के दिन
कल से ज्यादा गुनगुना होगा
धूप का असर.
5
रात
रात
खुद से कर रही है बात.
शब्दों की बिसात पर
खुद को ही शह खुद से ही मात.
कौन है
जो नींद को जगाए हुए है ?
कौन है
जो आधी रात को कह रहा है शुभ प्रभात !
क्या इसी तरह का
जवाब देंहटाएंक्या ऐसा ही
रहस्यमय रोशनी का - सा होता है राग !
प्रेम का अद्भुद परिचय देती सुंदर भावो से ओत प्रोत कविताये ,अच्छा लगा पढ़ कर ....
सिद्धेश्वर जी को बहुत बहुत बधाई
एकदम टटका-टटका-सा अहसास।मानो किसी ने सर्दी की गुनगुनी धूप की तरह छू लिया हो।
जवाब देंहटाएंअरे वाह!
जवाब देंहटाएंआपको भी फूलों का साथ मिल गया!
बधाई हो साहिब!
आपकी रचनाएँ बहुत सशक्त हैं!
खूबसूरत बिंब, मनमोहक कविताएं..
जवाब देंहटाएं’इसी में छिपी है निकटता
इसी में है एक दबी - दबी सी आग
इसी में है सात समुद्रों का जल
इसी में हैं वाष्प - ऊष्मा - ऊर्जा के सतत स्रोत
इसी में हैं सात आसमानों की प्रश्नाकुल इच्छाएं ’
..बहुत कुछ दर्शा गईं आपकी कविताएं. बधाई सिद्धेश्वरजी.
बहुत खूबसूरत कवितायेँ!! कवितायें तो अच्छी हैं ही, उन के लिए सिद्धेश्वर जी को और प्रस्तुति के लिए अपर्णा जी को बधाई और शुक्रिया भी...
जवाब देंहटाएंbahot sundar rachna.
जवाब देंहटाएंSundar Kavitayen!
जवाब देंहटाएंकविताओं में जो कशिश है ............ बेचैनी है .... उस ने मोह लिया .......सिद्धेश्वर जी बधाई .. शुभकामनायें .......
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