इच्छाएँ, दुःख...और प्रेम::
इच्छाएँ
लटकी पतंग सी
किसी घने बरगद की
डाल पर
दुःख
थिरकते हुए
टँके पीपल के
पात पर
..और प्रेम
वह तो तपते मरु का
हरियर कँटीला कैक्टस
बूढ़े बरगद के आगे
क्यों झुकना,
क्यों नत होना
पीपल के सामने
देवताओं, क्षमा करना
मैंने शीश नवाया
नन्हे कैक्टस के समक्ष
उसकी जड़ें
धरती में गहरे धँसी थीं
वहाँ तक,जहाँ तक पहुँचती है
पानी की आखिरी बूँद
आखिर,थोड़ी सी नमी की खातिर
चुकाई थी उसने
सबसे बड़ी कीमत ।
कठिन समय में प्रेम::
बहुत सोचा, मेरी जान
मैंने तुम्हारी जानिब
और तय पाया
कि कठिन समय का
कठिनतम मुहावरा है प्रेम
प्रेम की खोज अक्सर
अनगिनत तहों के भीतर
एक और तह की तलाश
और हर तलाश के बाद भी
बची हुई तलाश
बहुत सोचा, मेरे महबूब
मैंने तुम्हारी जानिब
और यक़ीन करना पड़ा
कि बिरहन की स्मृतियों में
गूलर का फ़ूल है प्रेम
युग-युगान्तर तक सुरक्षित
लोकगाथाओं में, कि पाया उसे
जिस किसी ने जिस दम
मारा गया वह उसी दम
बहुत चाहा, मेरी जान
कि शब्दों के बाहर
कहीं टहलता हो, प्रेम,
और पूछ लूँ उसका पता
तफ़सील से
किसी चाय की दुकान
किसी बस अड्डे
किसी गली-चौराहे
उसकी पीठ पर रखूँ हाथ,
औचक, और चमत्कृत कर दूँ
किसी आँख की चमक
किसी हाथ की लकीर
किसी गर्दन की लोच में
नहीं बचा था, प्रेम,
ढूँढ़ा मैंने, पर्त दर पर्त
भटका किया जंगल-जंगल
एक फ़ूल की तलाश में
उधर, बाज़ार में,
ऊँचे दामों में बिक रहा था प्रेम ।
गोलार्द्धों में बँटी पृथ्वी ::
एक माँग है, स्वर्ण रेखा सी
कि सूनी सड़क एक, रक्ताभ समय जिसपर
चहलकदमी करता काले बादलों में
दो आँखें हैं डबडबाई सी
कि अतलान्त का खारापन
असंख्य स्वप्न सीपियाँ जगमगातीं जहाँ
रूपहले पानी में
दो उभार हैं वक्ष पर
कि श्वेत कपोत युगल
पंख तौलते आसमान में,
कि दूध के झरने, नवजातक के होंठ सींचते
कि बीहड़ एक घाटी, गुज़रती उफ़ान खाती
नदी हहराती जहाँ से
यहाँ हथियार डालते हैं
दुनिया के सबसे पराक्रमी योद्धा,
भू-लुण्ठित होती हैं यहाँ
विश्वविजेताओं की पताकायें,
यह इस पृथ्वी का
वह भू- भाग है जहाँ
खोये हुए बसन्त के
सारे फ़ूल , अपनी वेणी में
गूँथ लेना चाहती है एक लड़की
हे पूर्वज कवि कालिदास,
तुम्हारी शकुन्तला तो नहीं यह
भटकती किसी दुष्यन्त के लिये
यह भगीरथ की बेटी है
दो गोलर्द्धों में बँटी पृथ्वी, अपनी छाती पर उठाये ।
पानी: एक समीक्षा ::
ऐसे भी शुरू हो सकती है
पानी की कथा,
कि एक लड़की थी
हल्की, नाज़ुक सी
और एक लड़का था
हवाओं-सा, लहराता,
दोनों डूबे जब आकण्ठ
प्रेम में, तब बना पानी
वह पॄथ्वी का सबसे आदिम
क्षण था,
सृष्टि की सबसे पुरानी
रासायनिक अभिक्रिया
कि जहां दो तत्वों के मेल से
एक यौगिक बना,
उस आदिम क्षण में
एक लड़की थी
यानि कि पृथ्वी पर उपलब्ध
सबसे हल्का रासायनिक तत्व,
उसे भरा जा सकता था
गुब्बारों में और फिर
बैठ कर उन गुब्बारों में
उड़ा जा सकता था
सातवें आसमान तक,
हालांकि उसके दूसरे गुण-धर्म
परेशान करने वाले थे
वह प्रज्ज्वलित हो सकती थी
ज़रा सी आंच पाकर,
उसे बमों में
बदला जा सकता था
और गिराया जा सकता था
किसी भी आदिम बस्ती में
लेकिन एक आदिम क्षण में
डूबी वह प्रेम में आकण्ठ
और इस तरह बना पानी,
वह लड़का, हवाओं-सा, लहराता था
पृथ्वी पर,
एक दिन क़ैद हुआ
हल्की, नाज़ुक-सी बाहों में,
वायुमण्डल की एक-बटा-पांच हवा
उसी दिन से आती-जाती रहती है
प्रेम में डूबी सांसों में,
इसके भी थे अपने गुण-धर्म
जैसे कि, वह (स्वभाव से) दाहक था
पर बिना ख़ुद जले
दूसरों को जलाता था धू-धू कर,
एक आग का दरिया
उसी दिन बह निकला शायद
जिसमें डूबे शायर-आशिक कितने
डूबे पण्डित-मौलवी, सन्त-फ़कीर
ऋषियों ने रचीं ऋचाएं उसी दिन
और जन्मा सृष्टि पर
पहला-पहला संगीत,
जब एक लड़की डूबी आकण्ठ
एक लड़के के प्रेम में, तो बना
तरल-शीतल एक यौगिक
जिसे पानी कहा लोगों ने
पानी इस सृष्टि पर
पहली कविता है, नपे-तुले छंद में
कविता के आलोचकों,
यह आदि-कवि के कण्ठ से फूटे
पहले श्लोक से भी पुरानी घटना है
कि एक हल्की, नाज़ुक-सी लड़की
और एक लड़का हवाओं-सा
जब डूबे प्रेम में तो बना पानी ।
एक दिन आऊंगा::
एक दिन आऊंगा
खटखटाऊंगा तुम्हारा दरवाज़ा
मुझसे पीछा छुड़ाने की कोशिश में
तुम पूछोगे मेरे आने का मकसद
विरक्ति में डूबी आंखों से ।
उस दिन धीरे से चुपचाप
थमा जाऊंगा तुम्हें
जो कुछ भी होगा
मेरी झोली में ।
वह अगरबत्ती का एक
पैकेट भी हो सकता है
या फिर आधी-जली
मोमबत्ती का टुकड़ा,
कोई मुरझाया सा फूल
या पुरानी ज़िल्द वाली
कोई किताब ।
कुछ नहीं पूछोगे तुम मुझसे
अगरबत्ती के बारे में, कि वह
जलेगी तो कमरों में कितनी
देर तक रहेगी सन्दल की ख़ुशबू
या कितनी दूर तलक जाएगी
मोगरे की गन्ध ।
मुझे यह भी बताने की
जरूरत नहीं होगी बाकी
कि मोमबत्ती के भीतर की
सुतली के जलने के दरम्यान
कितनी मोम पिघल कर
फैल गई है हमारे एकान्त में
या फिर कालिख की तरह
जम गई है हमारी सांसों में ।
और ताज्जुब तो यह कि
तुम जानना भी नहीं चाहोगे
कैसे मुरझा जाते हैं फूल दबे-दबे
किताबों के भीतर, और फैल जाता है
एक हाहाकार शब्दार्थों के बाहर की दुनिया में ।
उस दिन,
न तो पूछ ही सकोगे तुम
न ही बता सकूंगा मैं
एक किताब की ज़िल्द के
पुराने होते जाने की इतिकथा,
उस दिन,
अभिव्यक्ति पाए बिना ही उठेंगी
कुछ कविताएं , भाप बन कर ,
पुरानी ज़िल्द वाली किताब से
और फुसफुसाती हुई कानों में
बताएंगी मेरे आने का मकसद ।
मुझसे पीछा छुड़ाना
नहीं होगा इतना आसान
कि मेरे पास होंगी कुछ
मामूली चीजें,
मसलन एक अगरबत्ती का पैकेट
एक आधी-जली हुई मोमबत्ती
एक मुरझाया-सा फूल , या
पुरानी ज़िल्द वाली एक किताब ।
चुपचाप थाम लोगे तुम कोई एक
मामूली सी चीज मेरे हाथों से
और मैं लौटूंगा अपनी झोली में
सहेज कर कोई बहुत पुराना ख़त
जिसे तुमने संभालकर रखा होगा
मेरे लिये स्मृतियों के सन्दूक में ।
उस दिन, आंखों में झिलमिलाते
तरल सन्धिपत्रों पर होंगे हमारे
अमिट हस्ताक्षर ।
कैसा यह देना-लेना साथी, कैसा नक़द - उधार
कैसा अद्भुत यह जीवन व्यापार ।
बहुत सुन्दर रचनायें हैं।
जवाब देंहटाएंकैसा यह देना-लेना साथी, कैसा नक़द - उधार
जवाब देंहटाएंकैसा अद्भुत यह जीवन व्यापार ।
बहुत खूब!!मन में खुसुर-पुसुर करती रचनाएँ...
bhut sundar . pram ke rang me dubi huyi
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएं - "पानी एक समीक्षा" खास कर.
जवाब देंहटाएंनीलकमलजी को बधाई.
आप सब का आभार । मेरी मित्रता सूची में आपका हर्दिक स्वागत है..
जवाब देंहटाएंaaj pehli baar aapke blog per aye hai ..
जवाब देंहटाएंsabhi rachnayein bahut hi sunder hai
सभी कवितायेँ सुंदर हैं, पर सब से सुंदर है पानी: एक समीक्षा. एक कविता संग्रह तैयार करने के प्रयास में हूँ जिसमें होंगे लगभग ३० कवि, अधिकांश युवा. इन कविताओं के रचेता श्री नील कमळ जी से निवेदन कि वे अपना ई मेल पता व फोन नंबर मुझे निम्न ई मेल पर भेज दें. कवितायेँ हमारे संपादन मंडल को पसंद आएंगी तो उन्हें संग्रह के लिये ले लिये जाएगा. लगभग पांच कविताएँ प्रति कवि. premuncle@gmail.com, anjana.kavyakalash@gmail.com
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