वंदना शर्मा ::






























मौन::
 
अनुशासन में

स्वरबद्ध नही हैं शब्द

तो क्या ..

बोलते, हँसते, देखते अनुरक्त,

कल कल जल से..

बह रहे हो तुम !

साम्य की चर्चा समस्त..

हो चली है व्यर्थ !

कर चुका तुमको प्रतिष्ठित..

लघु मन , हो रहा परिपूर्ण !

डूब रहा ,तिर रहा ,उतर रहा ..

मन अबाध !

जो था अपूर्ण ..

प्रिय ..

पा रहा निज पंथ !


टीस::
 
कितना अच्छा होता है ..
किसी दर्द को पी लेना ..
जैसे लोहे के बंद दरवाजों में कैद ..
ऊँची दीवारों के पीछे ....
किसी तानाशाह बूढ़े के हरम में ..
गरीब की बेटी का हँसते हुए जी लेना ..!

कितना सुकून देती है वह टीस..
सूने मकबरे पर लहराती ..
शीतल हवाओं से जूझती ..
मोमबत्ती की लौ - सी ..
हौले हौले जलाती है निर्दोष ह्रदय ..!

करतें हैं कई कई खूबसूरत इंकार
आँखों के मोती या होठों के गुलाब..
उपमाओं पर हँस देता है ..
रोम -रोम में लहराता दर्द का सैलाब ...
गर्भ में छिपाए अनगिन रत्न काई या सिवार !

कितनी मधुर लगती है ..
सूई की नोक सी मीठी कसक ..
भर आई आँखों को ..
चुपके से पोंछना भी तुम्हें नहीं आता ..
जो कर जाता आवारा बादल सा बरस कर
निरभ्र आकाश ...!

अभागे हो तुम जो गुजरे नही दर्द से ..
तुम किसी के हो ही नही पाए ..!
माँ से दूर पिता का अभाव बहिन की विदा और छुटके की चोट पर
सच तो यह है रो ही नही पाए ...!

अफ़सोस कि वह राहत नही है तुम्हारे पास ..
जी भर रो लेने के बाद ...
जो कर जाती है मन हल्का निर्मल ख़ाली
हवा आकाश या सूखे पत्ते सा ..!

हैरत से देखते रहोगे..
उम्र भर यह मंद स्मित
दर्द की यह संपदा ..
पहचान नही पाए ..
शायद इसलिए इसे
मुझे सौंप आये !!!!!





सुनो::
 
इससे पहले कि मै सर्द हो जाऊं
रक्त मे दौड़ रहे ऊष्ण सतत प्रवाह को
जिसके ऊष्ण होने का....
कारण तुम्हारा प्रेम..
अंतिम यात्रा से ..
ठीक पहले की चाह सी
यह जरुरी बात ..
शब्दों में ढलनी बहुत जरुरी है !
क्यों कि तुम भी जानते हो ..
सभी इच्छाओं के उपवास
टूटे हैं...
तुम्हारे साथ के पारायण पर !
फिर क्योँ ..
 हृदय का ज्वार ..
  नहीं आता विरेचन तक ..
  ज्यों गुजर जाएँ..
बरसों.. बिना बरसे
अमृत कलश बादल ..!
जाने किस घडी मे न रहूँ .
इसलिए तुम्हे कहना चाहती हूँ
बहुत थोडा सा कुछ ....
जो रहा सर्वस्व मेरा !
सुनो ..
तुम और तुम्हारा होना भी ..
ह्रदय तक नही सीमित..
सोचों में ..सांसों में ..भीड़ में एकांत में ..
स्मृतियों के साथ
हमेशा साथ रहे हो !
लीन आत्म चेतना तुम में
तुम्ही विश्व हो ..
विस्मृत मैं ..
इससे पहले कि मैं सर्द हो जाऊं
बस इतना कहना चाहती हूँ ..
इस बेला कर दो एकाकी .
.. सोचो क्योँ डूब जाने दूँ
वैतरणी की निष्ठुर लहरों में
अंतिम क्षण भी
आशाओं के दीप ..
साथ में
वे सारे अहसास .....
. पोसे जिनमे झंझावत
तुम्हारे अभाव के ...!!!!!

तुम::

तुम पर लिखना बहुत कठिन है
तुम ...
जो न ईश्वर हो और न मानव
मात्र पौरुष नहीं  तुम
नहीं  केवल मधुर ..

आज हो फिर कल नहीं  हो
ऐसा भी नहीं  ..!
आधार हो सीमित मगर ..
नभ जैसे निस्सीम तुम्ही हो ..!

माँ पिता प्रेमी सखा भी तुम नहीं  हो ..
कर्तव्य और अधिकारों से भी ..
तुमसे नाते का भान नहीं  होता ..!

बिम्बों और प्रतीकों से बढ़
तुम अमूर्त हो !
पर तुम
तुम हो !

अकथ प्रेम की परिभाषाएं
तुम तक आकर बदल गईं हैं
जितना तुमको समझ सकी हूँ

तुम में..
मैं  हूँ ..
'मै' नहीं तुम

तुम बस तुम हो
तुम बस तुम हो
तुम बस तुम हो !!!!!


17 टिप्‍पणियां:

  1. वंदना दी का अक्सर पहला पाठक होता हूँ मैं. पहला आलोचक भी...इन कविताओं में अपनी कुतरी-कतरी पंक्तियाँ याद कर पा रहा हूँ. उनके शिल्प में समकालीन शिल्प की गद्यात्मकता की जगह अतुकांत शैली वाली छंदमुक्तता है...शायद उसकी की वज़ह से कई बार कविताओं का अंत थोड़ा असहज सा हो जाता है. लेकिन इन कविताओं में जो सबसे आकर्षक है वह है उनकी तुर्शी...उनका गुस्सा और उसके बावजूद बची हुई सकारात्मकता. उनका प्रेम हिन्दी का बहुपरिचित विगलित प्रेम नहीं. उसमे एक औरत का स्वाभिमानी व्यक्तित्व अपनी पूरी अना के साथ उपस्थित है. उनका स्वागत.

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  2. अभागे हो तुम जो गुजरे नही दर्द से ..
    तुम किसी के हो ही नही पाए ..!
    माँ से दूर पिता का अभाव बहिन की विदा और छुटके की चोट पर
    सच तो यह है रो ही नही पाए ...!
    tees bemisal hai. tees hamesha bemisal hee hoti hai. behtareen kavita

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  3. बहुत ही अर्थपूर्ण कवितायें. मैंने वंदना जी को पहली बार पढ़ा. लेकिन मैं बहुत प्रभावित हुआ. बहुत बहुत धन्यवाद

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  4. ई-पत्रिकाएँ कितनी महत्वपूर्ण हैं, इसका पता चलता है. समय के जिन महत्वपूर्ण हस्तक्षेपों के बारे में हमें पता भी नहीं चलता, या सिर्फ हम उनका नाम भर सुन पाते हैं, ई-पत्रिकाएँ उन तक हमारी पहुँच बनाती हैं. वन्दना शर्मा का नाम सुना था, पढ़ा आज पहली बार. उनकी कविताएँ समयानुकूल प्रेम के साहित्य में एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप जैसी लगती हैं. पहली कविता बहुत "अनुशासन में" लगती है, पढ़ते हुए छायावाद याद आता है. "टीस"...क्या कविता है, इस कविता की हर पंक्ति ने मन को छुआ.
    "कितना अच्छा होता है ..
    किसी दर्द को पी लेना ..
    जैसे लोहे के बंद दरवाजों में कैद ..
    ऊँची दीवारों के पीछे ....
    किसी तानाशाह बूढ़े के हरम में ..
    गरीब की बेटी का हँसते हुए जी लेना ..!",
    सचमुच विचलित करती है यह कविता. दूसरी कविताएँ भी बहुत जानदार, शानदार व अर्थवान है. अंत में यही कि वंदना की ये कवितायेँ प्रेम की वंदना तो नहीं ही हैं, बाकी जो कुछ हों सो हों. अशेष बधाई वंदना जी और अपर्णा जी!

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  5. प्यार है ,गहरा ,अटूट और प्यार में गलती करने वाले को प्यारभरी फटकार भी है इन कविताओं में ! ह्रदय में बलात प्रवेश कर जाने वाली इन कविताओं के लिए वंदना जी को बधाई , अपर्णा जी का आभार !

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  6. अभागे हो तुम जो गुजरे नही दर्द से ..
    तुम किसी के हो ही नही पाए ..!

    बहुत सुंदर और गहरे भाव लिए हुए है ...मन की अतल गहराइयों को छूती हुई है सारी कविताये ..बधाई

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  7. मुग्ध हूँ वंदना जी आपकी रचनाएँ पढकर...

    बधाई आपको और
    आभार अपर्णा जी..


    सस्नेह
    गीता पंडित

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  8. पहली बार वन्दना जी को पढ़ा और पढ़ना चाहूंगी। कविताएं अच्छी और सच्ची संवेदना लिए हुए हैं। औऱ क्या कहूं सबने तो सब कुछ कह ही दिया है सिवाय इसके कि वन्दना जी और अर्पणा जी दोनों को बधाई।

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  9. वंदना जी की सभी कवितायेँ बहुत अच्छी लगीं.
    --------------------------
    आपका स्वागत है "नयी पुरानी हलचल" पर...यहाँ आपके ब्लॉग की किसी पोस्ट की कल होगी हलचल...
    नयी-पुरानी हलचल

    धन्यवाद!

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  10. kisi budhe tanasah ke haram me kisi garib ki bety ka haste hue jeena . dard pee lene ki isse aachchhi upma isse aachchha paryay nahi padha main. in do panktiyon me sara kuchh keh diya aapne bahut dino tak kirch kee tarah chubhi rahengi ye panktiyan seene me

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  11. वंदना जी की कविताएं बता गई ... दर्द, टीस और पीड़ा पर संतुलित रचनाएं संभव है ....... वंदना जी बधाई ......... आपकी एक पंक्ति "तुम पर लिखना बहुत कठिन है" .... "तुम" के बारे में बहुत कुछ कहती है ...... अच्छा लगा शुभकामनाएं

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  12. क्या बात है ...बहुत अच्छी कविता हमेशा की तरह...बधाई वंदना जी

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  13. वंदना जी की कविताएँ पहली बार पढ़ीं,प्रभावित किया उन्होंने ।

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  14. अपरिमित स्नेह और शुभाशीष. भाई अशोक पाण्डेय जी की टीप मुझे यहाँ खींच लाइ. किसी भी रचना के दो पहलू होते हैं. शिल्प और भाव. अधिकाँश महिला रचनाकारों की तरह आपकी कविताओं का भाव पक्ष बहुत मज़बूत है. स्त्री ह्रदय की वेदना चेतना बनाकर आपकी रचना में प्रकट होती है. जब हम गद्य को कविता के रूप में स्वीकृति दे रहे हैं तो अतुकांत पर प्रश्न कैसा ? जब अतुकांत है तो छंद मुक्त तो होगा ही. जब रचनाकार पीड़ा और दर्द पर समाज से दो दो हाथ करने निकली है तो चूँकि अपनी बात पाठक तक बखूबी पहुंचा रही हैं. रचना अपने उद्देश्य में सफल है. बधाई.

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