परमेश्वर फुंकवाल


कवि ने कहा:


कविताएँ मेरे लिए एक शब्दहीन संसार है. इस अद्भुत संसार में मैंने पहला कदम चौदह वर्ष की उम्र में रखा. फिर एक लम्बा अंतराल आया. कविता धनात्मक बदलाव की प्रक्रिया का उत्प्रेरक है. कई बार लगा मानों लोक सेवा में फाइलों पर दर्ज कई निर्णय बदलाव के लिए कविताओं की पंक्तियों से अधिक ताकतवर हैं. इस बात ने मुझे अक्सर तसल्ली भी दी. फिर अपने व्यावसायिक और व्यक्तिगत जीवन की व्यस्तताओं पर मन ही मन आरोप लगाया और छूट पा ली. इस बीच कई तकनीकी शोध पत्र लिखे.

पर चौदह साल के उस बेचैन बालक को शायद अब और मौन रहना मंजूर नहीं था. जीवन के अधूरेपन के अहसास को जनवरी २०११ में इन पंक्तियों ने तोड़ा:

उम्र के उस पार
ले जाने को
फिर दरवाजे पर
कालरथ के अश्व हिनहिना रहे हैं
सोच रहा हूँ
डायरी में कुछ पुष्प
कुछ महक
रख जाऊं
कल हो जाने के पहले

लगा जैसे कोलाहल के राजपथ को छोड़ संवेदनाओं के वन की दूरगामी पगडंडियों पर निकल पड़ा हूँ. कविताओं के आईने में मैं अपने आप को पहचानने का प्रयास करता हूँ और जितना लिखता हूँ स्वयं से अपरिचय उतना ही गहरा होता जाता है. एक भरे पूरे परिवेश में अपनी पहचान खोना सुखद है. भावनाएं शब्दों को सच्चे मित्रों की तरह जोडती हैं और मुझे वहां ले जाती हैं जहाँ मैं कभी नहीं गया. कविता के लेंस के पार जीवन के इन्द्रधनुष भी हैं और मृत्यु के अँधेरे भी. कविता ऐसे पथिक का प्रेम है जिसके पास निरंकुश संवेदनाएं न होकर आदर्शों के कम्पास और मानवता की दिशाएँ हैं. संवेदनाओं के इन वनों में मैं बस चलते रहना चाहता हूँ कविता का हाथ हाथ में लिए.


            Amrita Shergill

गिट्टी उठाती औरतें: तीन कविताएँ ::
खुशी :

ट्रेक के किनारे
पंजे(1) से गिट्टी भरते
उसके चेहरे पर
रह रह कर
झांकती थी एक खुशी
रुक रुक कर
अपनी कलाई में
देख लेती थी इन सबके बीच
पुरानी होकर भी चमक रही चूड़ी
भूख उसे ले आयी थी
मीलों दूर
भगोरिया(2) की उस चमकती सुबह से
प्यास वह छोड़ आयी थी
झाबुआ के जंगल की एक बस्ती में
प्रेम उसके साथ चला आया था
अनंत खुशी बनकर
और छलकता जाता था
गिट्टी की हर तगारी(3) से
इस सिझाती उमस में.

1.    गिट्टी उठाने के लिए तार से बना हाथ के पंजे के आकर का औजार
2.    झाबुआ का एक आदिवासी होली पर्व जिसमें वे अपना जीवन साथी चुनते हैं
3.    तसला




मिठास :

दिन हो चला है
और काम अभी भी
पसरा पड़ा है
ट्रेक के पास तम्बू में
बच्चे रो रो कर उकता चुके हैं
उलीचती है वह
भर भर कर गिट्टी
मशीनों के शोर में
गुनगुना लेती है
सबसे छुप कर
एक ऐसा मीठा गीत
कि काम के बीच
दो मिनट के ब्रेक में
कटिंग चाय की चीनी
फीकी पड जाती है
उसके सामने.


सपने :

इन्हें कोई पुरस्कार नहीं मिले
नहीं पढ़े इन्होने
समर्पण से काम करने के
अध्याय
नहीं जानती हैं ये
गीता किसी ग्रन्थ
का भी नाम है
घंटों इन पत्थरों को ढोती
जब सांस दो मिनट सुस्ताती है
मुंशी झपटा चला आता है
काटने को दिहाड़ी
पता नहीं क्या कहती हैं
एक दुसरे की आँखों में ऑंखें डाल
मुस्कुराती हैं
पड़ती जाती है गिट्टी
बनता जाता है राजपथ
राजधानी एक्सप्रेस
को लिए जाने को
इनके सपनों के पास
कहाँ इतना साहस
चढ़ सके जो किसी पैसेंजेर ट्रेन की
आखिरी बोगी भी.



पता: दो कविताएँ  


८, पोरवाल भवन
नयी आबादी
मंदसौर

इसी के आंगन में
बिखरे पड़े हैं मेरे बचपन के झरे हुए पत्ते
इसकी दीवारों में अब भी बाकी होंगे
मेरे उकेरे कई चित्र
वर्षों की परत दर परत सफेदी के नीचे

चूल्हा, लकड़ी, धुआं और आग
और माँ
सब यहीं से विलीन हो गए
न जाने कैसे वक्त के ईथर में

पीयूष, रवि, नन्ही, गोपाल, बबलू, मुन्नू
कंचे, गिल्ली डंडा, क्रिकेट
यही मेरी खुशियों के शीर्षक थे

न जाने कहाँ होगी
इसके आसमान पर उछाली हुई
मेरी हरी गेंद
इसी की जमीन को
यादों की खुरपी से खुरच
मैं यहाँ जमी अपनी जड़ों को प्राणवायु देता हूँ

मेरे बचपन के मित्रों की
डायरी में अब भी लिखा होगा मेरा यह पता

खतों की दुनिया अब सुनसान है
पर यदि भूले भटके से
आज भी मुझे कोई इस पते पर लिखे
तो भैय्या दूध भंडार के चौराहे से
इस पते की और इशारा करती उँगलियाँ
डाकिये को कहती मिलेंगी
उसी सांवले लड़के के घर जाना है न
जिसकी बहनें पढने में तेज़ थीं
लेकिन वो तो अब यहाँ नहीं रहता

डाकिये की उलझन से निकल
अनगिनत चिट्ठीयों के शब्द
अब भी मुझ तक पहुँच जाते हैं

मैं कोई भूत प्रेत नहीं पर
यहाँ अब भी मेरी आत्मा रहती है.

२.

फोन के दूसरे सिरे पर
मेरे कॉलेज के प्रोफेसर तारे थे

एक पोस्टकार्ड है तुम्हारे नाम

सर पच्चीस साल बाद?

उस पर तुम्हारा नाम
कमरा नंबर ३१५ ए
हाल ४ , आई आई टी, कानपुर
लिखा है

तुम्हारी माँ की चिट्ठी है
मंदसौर से
दिनांक ठीक से पढने में नहीं आ रही
पर यह नवम्बर ८७ में चली थी
उनकी आवाज़ से स्मृतियों के अनेक चित्रों पर धूप बिखर गयी

सर आप तो जानते हैं
माँ दिसंबर ८७ में .....

हाँ, तुमने शायद अपने पहले स्टायपेंड पर
मनी आर्डर भेजा था
माँ ने तुम्हे दुआएं दी हैं
‘अच्छे बनो’

वही शब्द जिनको पाने के बाद कुछ और पाना शेष नहीं रह जाता
वही स्पर्श जो आत्मा को कोमलता में भिगोता रहे 
किसी अनाम डाक के डिब्बे या फिर
पोस्ट ऑफिस में भुला गयी
वह चिट्ठी मुझ तक नहीं पहुँची
फिर भी
उसमें लिखी दुआ मेरे पते पर कब से आ चुकी

परमेश्वर, मैं जानता हूँ यह तुम्हारे लिए कितनी कीमती है
मैं इसे लिफ़ाफ़े में डाल स्पीड पोस्ट कर दूँ
या स्कैन कर इ मेल?
इस आवाज़ से मैं फिर इस आभासी संसार में लौटा

फोन पर भरभराती आवाज़ में बस यह कह सका
सर, मैं पहली उड़ान से कानपुर आ रहा हूँ...



विकल्प::

यह आपस में लड़ने का वक़्त नहीं है
समय की प्रयोगशाला में
 ‘पेट्रीडिश’ पर ‘अगर’ की परत
एक स्निग्ध मुस्कान लिए खड़ी है
नंगी ऑंखें धोखा खा जाती हैं.

यहाँ अलगाया गया है एक बीमारी के विषाणु को
और खेती की गयी है
उसकी पहचान करने को
एक बेक्टीरिया का कल्चर
लहलहा रहा है इस परत पर

सूक्ष्म से सूक्ष्म
आदर्शों को तलाशने का वक़्त है यह
और है ज़रुरत
आत्मा की सतह के ‘अगर’ पर
एक बची रह गयी कविता को अलगाने
और संवेदना के लेंस में
उसके लहलहाते अक्षर पढने की
अपने बरक्स इस ज़माने के सारे अँधेरे रखकर

ठीक इसी समय
उन्हें फ़ैल जाना चाहिए
समय के सारे विषाणुओं पर पेनिसिलिन की तरह

यह प्रेम के अंकुरण और
उसके संक्रमण को
सारी मृत देहों में फूंक देने का क्षण है

विलुप्ति के पहले
इतना भर ही है विकल्प.

‘पेट्रीडिश’- कांच की विशेष डिश और ‘अगर’- जैव भोजन, जिनका प्रयोग प्रयोगशाला में जैव कल्चर विकसित करने में किया जाता है.








परमेश्वर  फुंकवाल
16 अगस्त 1967
आई आई टी कानपुर से सिविल इंजीनियरिंग में परास्नातक
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन.
पश्चिम रेलवे अहमदाबाद में अपर मंडल रेल प्रबंधक
pfunkwal@hotmail.com









13 टिप्‍पणियां:

  1. कवि परमेश्‍वर फुंकवाल की इन कविताओं में घर-परिवार की जीवन-स्‍मृतियों और मानवीय संबंधों का विलक्षण रचना-संसार गहरी हार्दिकता के साथ अभिव्‍यक्‍त हआ है। कवि का लहजा इतना आत्‍मीय और अपनेपन से लबरेज है कि इन कविताओं का असर इनसे बाहर निकल आने के बाद भी देर तक इनकी अनुगूंज चित्‍त में बनी रहती है। परमेश्‍वर को बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं।

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  2. परमेश्वर जी अच्छी कविताएँ लिख रहे हैं. देर आयद दुरुस्त आयद ..

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  3. बहुत सुन्दर कविताएँ.....
    निराला जी की "वो तोडती पत्थर" याद आयी...
    शुभकामनाएं कवि को!
    अनुलता

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  4. दिल को छू लेने वाली रचनाएँ. पता कविता मेरे अपने भोगे हुए यथार्थ को व्यक्त करती लगी. कवि ने सार्वजनिक एवं सार्वभौमिक भावनाओं को शब्द दिए हैं. साधुवाद.

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  5. बहुत अच्छी कविताएँ हैं. पता- 2 ने तो आर्द्र कर दिया. यह कविता मैने अपने परिवार के सदस्यो को भी सुनाई. सुनाते हुए गला भर आया और शब्द जैसे फँस गए. किसी तरह पूरी की और फिर काफी समय तक कोई कुछ नहीं बोला. यानी आपके शब्द संवेदना के जिस स्तर और ह्रदय की जितनी गहराई से आते हैं, पाठक या श्रोता को उसी स्तर और गहराई से छूते हैं. हार्दिक बधाई.

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  6. सभी रचनाये बहुत सुन्दर है आपकी रचनाओ में कई भाव दिल की गहरायिओं को छू गए , मार्मिक है रचनाये, संवेदनाओ के धरालत को छूती हुई, जैसे बहुत बारीकी से आपने इन संवेदनाओ को उकेरा है जैसे प्रत्यक्ष चित्रित हुआ है वर्णन , गीते ने हमारी भावनाओ को भी व्यक्त कर दिया , इसीलिए अब और कुछ नहीं कहना। सिर्फ हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ

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    1. सभी रचनाये बहुत सुन्दर है आपकी रचनाओ में कई भाव दिल की गहरायिओं को छू गए , मार्मिक है रचनाये, संवेदनाओ के धरालत को छूती हुई, जैसे बहुत बारीकी से आपने इन संवेदनाओ को उकेरा है जैसे प्रत्यक्ष चित्रित हुआ है वर्णन , आ.गीते जी ने हमारी भावनाओ को भी व्यक्त कर दिया , इसीलिए अब और कुछ नहीं कहना। सिर्फ हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ

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  7. आपकी रचनाएँ इतनी मार्मिक होती हैं कि पढ़ते-पढ़ते ही मन आर्द्र हो जाता है। प्रशंसा को शब्द ही नहीं मिलते। जीवन की सैकड़ों गुत्थियों को खोलती हुई गूढ अभिव्यक्ति के लिए आपकी कलम को शत बार नमन।

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  8. मुझे याद नहीं कि इतनी संवेदनशील कवितायेँ मैंने पहले कभी पढ़ी हों. मार्मिक संवेदना के उच्च मानदंडों को स्पर्श करती और कराती हुई। आपकी लखनऊ तैनाती कि अवधि में आदरणीय पूर्णिमा वर्मन जी के यहाँ एक काव्य गोष्ठी का आपका विडियो अब भी मेरे पास है. बहुत अच्छा लगा, आपके ब्लॉग पर अब आपकी कवितायेँ सुलभ रहेंगी। मुझे याद है एक बार 'अनुभूति' में रक्षाबंधन पर आपकी एक हृदयस्पर्शी कविता छपी थी, जिसे मैंने घर में पढ़ कर सुनाया था. लोग कहते है बहुत सी भावनाएं शब्दातीत होती हैं, उन्हें शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता। पर जहाँ तक मेरी समझ है, मैं गर्व से कह सकता हूँ कि आप संवेदना के कुशल चितेरे हैं.

    उम्र के उस पार
    ले जाने को
    फिर दरवाजे पर.………

    इस कविता का उत्स ही तो अभीष्ट होना चाहिए हर रचनाकार का.
    "गिट्टी उठाती औरतें" की तीनों कवितायेँ: ख़ुशी मिठास और सपने और 'पता' शीर्षक की दोनों कवितायेँ इस बात को प्रमाणित करने को काफी हैं कविता अभी जिन्दा है और रहेगी। ये कवितायेँ एक आश्वस्ति है कि ऊंचे ओहदों पर रहते हुए भी भौतिकता हमें अपनी जड़ों से काट नहीं पाई है. लिखने को बहुत कुछ लिखा जा सकता है इन कविताओं पर. पर इतना ही कहूंगा कि कवि और कवितायें दोनों यशस्वी, कालजयी हों.

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  9. सिझाती उमस में तगारी उठाती स्त्री को ऊर्जस्वित बनाए हुए है झाबुआ-की बस्ती में मिला प्रेम; मशीनों के शोरगुल के बीच " गुनगुना लेती है / सबसे छुप कर / एक ऐसा मीठा गीत " जिसकी मिठास के सामने फीके लगने लगते हैं सब दृश्य, मधुर लगने लगती है थकान भी ! सपने देखती इन स्त्रियों को परिस्थितियाँ नहीं देतीं उन्हें जीने-भोगने का अवसर; तत्वज्ञानी नहीं हैं ये कामकाजी औरतें फिर भी अपने जीवन में सहेजे हुए हैं प्रेम और उत्फुल्लता के रँग ! कवि को सहज आकर्षण में बाँध लेती हैं वे एक दूसरे की आँखों में आँखें डाल मुस्कुराते हुए ! कर्म ही जिनका जीवन है, प्रेम ही जिनका दर्शन : गारा-गिट्टी-पत्थर ढोती इन नारियों के लोक और अंतर्लोक की गरिमामय झाँकी प्रस्तुत की है कवि ने ! बचपन और लड़कपन की स्मृतियों का सुन्दर तान-बाना बुना है " पता-१ " कविता में! अपनी जन्मभूमि को बहुत शिद्दत से याद किया है रचनाकार ने और प्रत्येक अनुभव को इस तरह साझा किया है कि पाठक स्वयं भी शब्दों के भीतर बसा एक चरित्र बन जाता है ! "पता-२" रचना के विषय में तो जितना कहा जाए कम है ! इतनी सान्द्र अनुभूति और भावनाओं को अकुला देने की सामर्थ्य इनी-गिनी क्लासिक कविताओं में ही होती है ! भौतिक जगत में न होते हुए भी, कवि के ह्रदय में धड़कते हुए पल-पल, उसे असीसते और " अच्छा बनो" की सीख देती माँ की दुआ को महसूस करना शब्दातीत अनुभव है पाठक के लिए : " वही शब्द जिनको पाने के बाद कुछ और पाना शेष नहीं रह जाता / वही स्पर्श जो आत्मा को कोमलता में भिगोता रहे / किसी अनाम डाक के डिब्बे या फिर / पोस्ट ऑफिस में / भुला गयी / वह चिट्ठी मुझ तक नहीं पहुँची / फिर भी / उसमें लिखी दुआ मेरे पते पर कब से आ चुकी "...मर्मस्पर्शी काव्य है शब्द-शब्द ! ...समय की परख करती कविता "विकल्प" की वैचारिक परिपक्वता यथेष्ट प्रभाव छोड़ती है: " सूक्ष्म से सूक्ष्म / आदर्शों को तलाशने का वक़्त है यह..." विसंगत वर्तमान पर बेहद संवेदनशील टिप्पणी हैं रचनाकार के ये शब्द ! उत्कृष्ट सृजन !

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  10. इतने स्नेह का पर्याय धन्यवाद नहीं हो सकता. आ नन्द जी, अरुण जी, सुशील जी, अनुलता जी, संजय जी, शशिकांत जी, शशि पुरवार जी, कल्पना रमानी जी, रामशंकर जी और अश्विनी जी आपके स्नेह के लिए मेरी कृतज्ञता स्वीकारें.
    अपर्णा जी आपके लिए विशेष कृतज्ञता, फूलों में आना बहुत अच्छा लगा.
    सादर.

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  11. आपकी कविताओं में एक सहज प्रवाह है जो अंतर्मन को छू लेती है I

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  12. परमेश्वर जी, आपकी रचनायों को बहुत बार पढ़ा | कभी मन आर्द्र हो गया और कभी गिट्टी उठाती मजदूरन के साथ मुस्कुरा उठा | अपने अतीत को बहुत ही संवेदनशीलता से अपने पाठकों तक पहुंचाया है आपने | एक पंक्ति पढ़ कर तो मन ठहर गया" वही शब्द जिनको पाने के बाद कुछ और पाना शेष नहीं रह जाता "| बस इसे पढ़ कर और कुछ लिखा भी नहीं जाता | आप ऐसे ही लिखते रहें , बस इन्ही मंगल कामनायों के साथ |

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