नूतन डिमरी गैरोला




नूतन को हम facebook पर सहृदय चिकित्सक और समाजसेवक के रूप में जानते हैं . कविता उनकी सहृदयता को संगत देती है . प्रकृति और प्रेम नूतन के काव्य जगत में सहजता से आते हैं .


घबरा कर 



हम लिखेंगे प्रेम
द्वार पर
स्वागत गीत की तरह
पत्थरों मे भित्तिचित्र की तरह
दीवारों पर रौशनाई की तरह
हवाओं में महकती खुश्बू की तरह
छत पर छाया की तरह
देह पर प्राण की तरह
तब खिड़कियाँ होंगी बंद
दरवाजे भीतर से .……
.
प्रेम ही प्रेम
प्रेम मे डूबते हुए
एक इतिहास की तरह
भविष्य की खुदाई में
मिलेंगे भग्नावशेषों की तरह
किसी तालाब की मिट्टी में
या कुवों के पत्थरों में ..……
पर अभी
फिकर है
कि बना रहे प्रेम 
पर नष्ट कर दी जाएँ सारी निशानियाँ 
इसे तो लिखे जाने से पहले ही
मिटा दिया जाना चाहिए
हमें अपने ही हाथों से ...........
देखो बाहर
एक अजनबी भीड़
और चेहरे कुछ पहचाने हुए
सरे आम लिए
लाल स्याही वाला एक पैगाम
जिसको लिखते ही क्रूरता ने
कलम की नोक तोड़ डाली है ....
देखो द्वार काँप रहे है
संकले टूट रही हैं
इस से पहले की वो भीड़
मूछों पर ताव दे कर
सर पर एक नयी सुनहरी पगड़ी संवार ले.
इज्जत की ……..
आओ हम तुम
प्रेम गीत को
पूरा रच लें|
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आज का हिटलर 

देखो उस खिडकी से बाहर / बहुत सुन्दर फूल खिलें है / ताकीद किया है मैंने ताकि तुम गलती से भी ना देखो उस ओर / वहाँ खिडकी से बाहर दिखेगा तुम्हें वह माली भी जो कर रहा है बगीचे की हिफाजत / क्या पता उसकी नजर हो बुरी..

तुम कर रही थी उस रोज / अपनी जिस प्रिय मित्र की बात/ करती नहीं वह मुझसे बात / तुम उससे मत जोड़ कर रखना कोई सखाभाव  / जिससे बोलूं बस उससे अभिवादन भर रिश्ता रखना / देखो तुम हो बहुत भोली और तुम नहीं जानती हो भला बुरा इसलिए मैं चयन करूँगा कि तुम्हें किसको बनाना होगा मित्र और होंगे कौन अमित्र

देखा मैंने कि कह रहे थे लोग, तुम बहुत खूबसूरत हो/  तुमने कभी शीशे में भी देखा है अपना चेहरा / कितना झूठ बोलते हैं लोग ये है तुम जानो/ तुम उनकी बातों में न आना/ जानो कि वैसे भी मुझे सुंदरता से न कुछ लेना देना / और अगर देखनी हो सुंदरता तो आइना मत देखना,  देखना मेरी ओर, मेरी आँखों की ओर जहाँ तुम दिखती हो

आज कल तुम बातें करती हो भ्रष्टाचार के बारे में/ दुनियाँ में फ़ैली दुःख बीमारी की / इस से तुम्हें क्या लेना देना / इन्होने तुम्हें वैसे भी क्या देना / देखो मुझे ही रहती है फिकर तुम्हारी / देखना हो तो देखो मेरे दुःख मेरी बातें / मेरा दुःख तुम्हारे लिए होना चाहिए दुनियाँ का सबसे बड़ा दुःख, और सबसे जरूरी बात ..

भूरा रंग तुम्हें बिल्कुल भाता नहीं / पर क्या करें हाट में यह भूरी साड़ी सबसे सस्ती मिली/  पहन लेना इसे और कहना मुझे बेहद पसंद है क्यूंकि तुम कहो नापसंद यह सुनना मुझे भाता नहीं / यह तौहीन होगी किसी की किसी प्रेमउपहार की / और सुना है आज तक वह बड़ा दिल कर कहती है कि यह साड़ी भूरी मुझे बहुत बेहद पसंद है ..

वह तुम पढ़ रही हो कौन सी किताब / अडोल्फ हिटलर की जीवनी / यह भी कोई पढ़ने की चीज है / पढ़ना हो तो पढ़ो मेरा चेहरा और समझो करता हूँ मैं तुमसे कितना प्यार / और जानो कि जैसा मैं कहूँ तुम्हें वैसा करना होगा / जैसा मैं चाहूं तुम्हें वैसा बन कर रहना होगा / क्योंकि तुम्हारे जीवन की ( मौत की) चाभी है मेरे हाथ / तुम अभी तक महफूज़ हो जिन्दा हो अभी तक, क्या ये कुछ कम नहीं, तो जान लो कि करता हूँ तुम्हें कितना प्यार ..

तब उस स्त्री ने किताब तहखाने की अलमारी में बंद कर ली/ और उस आदमी की आज्ञा  की अवहेलना न करती हुई अपना होना ना होना एक किनारे रख, उस प्रेममंदिर की हिरासत में थानेदार को भयभीत नजरों से देखती रही और उसकी आँखों के समंदर से गुजरने वाली राहों में चलते हुए अपने अस्तित्व को खोती रही,  डूबोती रही | वह जान चुकी थी कि यह मासूम सा लंबी काया वाला क्लीन सेव्ड आदमी ही  आज का अडोल्फ हिटलर है और वह तब्दील हो चुकी है इवा ब्राउन में|” 

                                                Pablo Picasso

 

कैनवास पर सफ़ेद फूल 


सफ़ेद दीवार पर वो दो
कैनवास
जिनमे खिले सफ़ेद फूल
एक चंपा
दूसरा रात की रानी
अदीठ इच्छाओं की तरह
जो सदा बने रहते है दीवार पर
उसी तरह स्थायी
पर खिल नहीं पाते
न मुरझाते है कभी
न मिल पाते हैं
बस जड़ दिए जाते है
काली पट्टी वाले फ्रेम के भीतर
सदा के लिए 


मौन का प्रत्युत्तर 


जब एक सुप्त रिश्ता
जिसे जोर जबरदस्ती थपका के सुलाया गया था
जाग जाना चाहता हो और जी उठता हो .....

अपनी आँखों को खोल कर
मिचमिचा कर देखता है ऐसे
जैसे कोई शिशु असमंजस में
जानना चाहता है दुनियां को  
और कि मुझे सुलाया क्यों जा रहा है,
जब कि उसे दिन रात का हिसाब भी नहीं पता
न ही वह जानता है भूख प्यास
बस वह जानता है रोना असुविधा के होने पर
और जानता है माँ की आवाज .............

ऐसे में वह रिश्ता रेगिस्तान में बिखरे पानी की तरह
ऊँचें पर्वतों में विलुप्त होती हरियाली की तरह
समुन्दर में जा दबी नदी की मिठास की तरह
पूछता है
संदेह में
अपने होने या न होने का मतलब.....
  
कभी मुस्कुरा कर
तो कभी उठा कर फन
कि मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ?............ 

तब बोलता है एक मौन,
अपनी वर्जनाओं की दीवार में
सेंध लगा कर बना लेता है
एक विलुप्त होता हुआ अस्थायी सा सुराख  
जिस पर अपने होंठो को धीमे से
रख कर
फुसफुसाता है चुपके से
और कहता है

तुम पानी, तुम लपलपाती आग
तुम पृथ्वी, तुम आकाश
तुम मिट्टी और मिट्टी में बसा प्राण|


 



                         Caspar David Friedrich
कभी तो जागोगे तुम 


पत्थर ही हो न तुम…..
जिसके आगे
दीये में
एक लौ लिए
जलती रही ...
हर पल तुम्हारे लिए
रौशनी, जीवन गर्माहट को समेटे
खुद को अर्पित करती रही
अपनी ऊर्जा के साथ
तिल तिल अंतिम बूंदों तक .......
पूजती रही विश्वास से
कि पत्थर में भी तो
प्राण प्रतिष्ठित रहते हैं ..
कभी तो जागोगे
कभी तो पिघलेगी बर्फ
कभी तो तुम्हारी शिराओं में
दौड़ेगा रक्त
और प्रसन्न हो कर
आशीष दोगे
भर दोगे अपनी भुजाओं में ...…….
पर एक मूर्ति ही तो हो तुम
निर्विकार, तटस्थ, उदासीन
अधमुंदी आँखों से
देख कर अदेखा करते हुए
कितने ही दीयों की आहुति ...……
मिटटी के थे
जले बुझे टूटे मिटे
बाती जली और राख  हुई
प्रारब्द्ध ही उसका जलना धुंवा होना था
माना गया|
और तुम अपने ओज पर
जो उन दीयों की चमक से थी
मुस्कुराते रहे.......
तुमने आदेश दिया
हवा को, पानी को, भूमि को
अपने भक्त को मिटा देने  को
और मिटा दिए गये
दीये श्रद्धा के बुझा दिए गए ...
असमय ..
तुमने तो पाप का संहार किया था
धरती का उद्धार किया था
तांडव करते नहीं देखा था किसी ने तुम्हें..
सैलाब में दबते हुए भक्तों ने देखा था
अपनी पथराती आँखों से
मौत का तांडव
और
तुम यूँ ही मुस्कुराते रहे उस समय भी
जैसे शिल्पी की कल्पनाओं से
अपने प्रारम्भ में गढ़े गए थे तुम
छेनी और हथौड़े से ...
पत्थर के ही हो न तुम
उसी तरह निर्विकार भाव से
सबको अपनाते रहोगे
मेरे बुझने के बाद भी ...
क्यूंकि तुम्हें पता है
तुम पूजे जाते रहोगे
भक्त नए रूपों में आते रहेंगे
पूजा और दीये की थाली ले कर.........
श्रद्धा और विश्वास की घंटियां
रुनझुन बजती रहेगी
तुम्हारे गुणगान करती रहेंगी
तुम्हारे देवत्व की …….....
तुम देवालय के देव हो
सबसे ऊँचे पहाड़ की चोटी में
आरूढ़ बरफ से|
और मैं इधर उधर छितरती
फूंक में उडती
रुई की फुन्गी
कभी तुम्हारे चरणों में
कभी दीये की लौ में
अपना अंत ढूँढती,
इस कामना के साथ
कभी तो मुझे मेरे हिस्से का
जीवन मिलेगा 
कभी तो जागोगे तुम .



डॉ नूतन गैरोलाचिकित्सक (स्त्री रोग विशेषज्ञ), समाजसेवी और लेखिका हैं.   गायन और नृत्य से भी लगावपति के साथ मिल कर पहाड़ों में दूरस्थ क्षेत्रों में निशुल्क स्वास्थ शिविर लगाती रही व अब सामाजिक संस्था धाद के साथ जुड़ कर पहाड़ ( उत्तराखंड ) से जुड़े कई मुद्दों पर परोक्ष अपरोक्ष रूप से काम करती हैं. पत्र पत्रिकाओं में कुछ रचनाओं का प्रकाशन.


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14 टिप्‍पणियां:

  1. नूतन जी के सहज व्यक्तित्व को शाब्दिक रूप देती हैं उनकी ये कविताएँ. जीवन में इधर जिस सादगी की कमी हो चली है उसे पूरा करती सी. "हम लिखेंगे प्रेम", "अगर देखनी हो सुंदरता तो आइना मत देखना, देखना मेरी ओर, मेरी आँखों की ओर" जैसी पंक्तियाँ विश्वास को जगाती है. कविता सफ़ेद केनवास पर श्वेत पुष्पों की महक की तरह है उन्हें शब्दों की तरह पुस्तकों में रहने के बजाय फ्रेम के बाहर के जीवन में भावों की सुरभि की तरह होना चाहिए..जैसी वे यहाँ हैं. नूतन जी को बधाई और अपर्णा जी का शुक्रिया.

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  2. नूतन की काव्य-यात्रा में अभी कई मोड़ आयेंगे. ठहरेंगी और फिर अपनी लम्बी श्रमसाध्य यात्रा पर निकल जाएँगी. ये कविताएँ बताती हैं कि वे ठीक रास्ते पर हैं- कविताओं में शब्दों के अपव्यय के शुरूआती दौर से वह बाहर आ गयी हैं. 'कभी तो जागोगे तुम' मुझे अच्छी लगी . 'आज का हिटलर भी' ठीक है पर उस पर अभी थोडा और काम करना चाहिए. अपर्णा जी को इस सुंदर पोस्ट के लिए आभार.

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  3. संवेदन शील और सरल कवितायें

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  4. मुझे प्रेम की संवेदनाओं को ले कर चलते हुए साहित्य को समर्पित ब्लॉग में अपनी रचनाओ को जो स्थान इससे मुझे प्रोत्साहन ही नहीं संबल मिला है ... मैं अपनी रचनाओं को आपका साथ साथ फूलों का में पा कर खुद को साहित्य के खूबसूरत फूलों के बीच पाती सी महसूस करती हूँ ... आदरणीय अरुण देव जी को, परमेश्वर जी को और कमल जोशी को धन्यवाद| और मित्र अपर्णा को तहेदिल धन्यवाद जिन्होंने मेरी रचनाओं को पढ़ा समझा और इस योग्य पाया ...

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  5. सुन्दर शब्द रचना
    रंग-ए-जिंदगानी
    http://savanxxx.blogspot.in

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..
    मकरसक्रांति की हार्दिक शुभकामनायें!

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  7. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति वास्तव में आज के भौतिक युग में साधनों की प्राप्ति के लिए लगायी जाने वाली दौड़ में प्रेम और संवेदनाएं केवल कागजी रह गयी हैं
    सार्थक और सुन्दर प्रस्तुति के लिए साधुवाद

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  8. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 05 अक्टूबर 2019 को लिंक की जाएगी ....
    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

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  9. अद्भुत रचनाएं अंतर मंथन करती।
    निशब्द सृजन ।

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  10. अच्छी जानकारी !! आपकी अगली पोस्ट का इंतजार नहीं कर सकता!
    greetings from malaysia
    द्वारा टिप्पणी: muhammad solehuddin

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