मुकेश मानस::




























पहली बार जब देखा तुम्हें::

कैसे भूल सकता हूँ वो शाम
बढ़ा चला आता था तिमिर
रौशनी पड़ रही थी मद्धम
और घिरता जा रहा था मैं
एक अतल निराशा में

पहली बार जब देखा तुम्हें

एक लहर सी उठी
ठहरे हुए समंदर में कहीं
हवा में लहराकर बिखरने लगे
चंपा के मदमदाते फूल
और बहने लगी हँसी तुम्हारी
मेरे भीतर
निश्छल निर्मल जल सी

मचलने को आतुर हुआ मन
जाने कितनी इच्छाएं
जाने कितनी अभिलाषाएं
जाने कितने देखे-अदेखे स्वप्न
साकार होने को
बेताब से होने लगे
लगा कि जैसे हटने लगा
बोझ कोई मन से

लगा कि जैसे छँटने लगी
धुँध कोई नज़र से

लगा कि जैसे बसंती फूल सा
खिलने लगा मैं

लगा कि जैसे जाग गया हूँ
अतल, अगम किसी गहरी नींद से

पहली बार जब देखा तुम्हें


जबकि मैं तुम्हें भूल जाना चाहता हूँ::

हवा में लहराता है आंचल तुम्हारा
और बसंती रंग बिखर जाता है
दिशाओं में
एक उदास सांझ के धुंधलाते अन्धेरे में
जगमगाने लगती हैं आंखें तुम्हारी

और न जाने कहाँ से आकर
बहने लगती है एक नदी
मेरे भीतर
तुम्हारा रूप,
तुम्हारा रंग
और तुम्हारा मन लेकर

जबकि मैं तुम्हें भूल जाना चाहता हूँ

एक शाम के धुँधलके में
एक सूनी उदास वीथी में
तुमने थाम लिया मेरा हाथ
और मेरी सूनी उजाड़ राहों में

खिलने लगा बसंत
और महकने लगी सारी धरती
आसमान पर छाने लगे रंग
और कोई मेरे भीतर से
मुझे पुकारने लगा

मैं बरसों पहले भुला दिये गये
अपने ही गीतों को गुनगुनाने लगा
बरसों पहले पीछे छूट गई
अपनी ही रौशनी में जगमगाने लगा।

जबकि मैं तुम्हें भूल जाना चाहता हूँ

इतिहास का कोई विरल क्षण था
जब आकाश से कोई तारा टूट रहा था
सांझ मिल रही थी रात्रि में
और किसी स्वप्न के यथार्थ होने की तरह
मिले थे हम तुम

जबकि मैं तुम्हें भूल जाना चाहता हूँ
मगर तुम्हें भूल जाने की
अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद
ऐसा क्यों होता है?
कि जितना ही तुम्हें भूलने की कोशिश करता हूँ
उतना ही याद आने लगती हो तुम

उतना ही महसूस होता है मुझे
कि कहीं तुम मेरे मरुस्थल की नदी तो नहीं?
कहीं तुम मेरे पतझड़ का बसंत तो नहीं?
कहीं तुम मेरे भीतर की करुणा तो नहीं?

कहीं तुम मेरे भीतर का प्यार तो नहीं?

और अब
जबकि मैं तुम्हें भुला नहीं पाता हूँ
पर पूरी तरह जान भी तो नहीं पाता हूँ तुम्हें

जितना ही जानता जाता हूँ तुम्हें
उतना ही बढ़ता जाता है मेरे भीतर प्रेम
उतना ही घटता जाता है मेरे भीतर का मरुस्थल
उतनी ही बढ़ती जाती है मेरे भीतर करूणा
उतनी ही बढ़ती जातीं हैं मेरे भीतर सदिच्छाएं



कहाँ हो तुम?::

मैं खड़ा हूँ जाने कब से
उसी उदास राह पर
तुम्हारी ही प्रतीक्षा में

अपनी आँखों में तुम्हारी छवि लिये
तुम्हारे स्वागत में अपनी बाँहें फैलाये
अपनी अनन्त चुप्पी में
तुम्हें पुकारता

न जाने कब तुम्हें मेरा ख़्याल आयेगा
न जाने कब पुकारोगी मुझे
तुम ले के मेरा नाम।

उसी धूसर सांझ में

अब भी ठहरा है समय
जब डूबते सूरज की धुंधलाती आभा में
पीछे मुड़कर एक बार
तुमने मुझे देखा था
जाने क्या था तुम्हारी आंखों में

क्या वो तुम्हारा प्यार था……??

तुमने लहराया था हाथ विदा में
जैसे किसी पेड़ पर लहराया हो
आखिरी पत्ता हवा में
बसंत का आखिरी क्षण
जैसे ओझल हुआ हो
देखते ही देखते
ओझल हो गया चेहरा तुम्हारा

ओ रूपसी
तुमने किसे विदा किया था?

मैं तो खड़ा हूँ वहीं
उसी उदास राह पर
उसी धूसर सांझ में
तुम्हारी ही प्रतीक्षा में

कहाँ हो तुम?
किस गहन वन में विचर रही हो
किस अनन्त धुंध में
बढ़ी चली जाती हो

न जाने तुम्हें किसकी तलाश है?



तुम्हारे प्यार में : एक::

बादल की तरह बरस जाना चाहता हूँ
सागर की तरहफैल जाना चाहता हूँ
पहाड़ की तरह उठ जाना चाहता हूँ
पंछी की तरह उड़ जाना चाह्ता हूँ
फूल की तरह महक जाना चाहता हूँ
बसंत की तरह खिल जाना चाहता हूँ
तुम्हारे प्यार में

तुम्हारे प्यार में : दो::

जैसे बादल
जानता है आसमान को
जैसे पानी
जानता है सागर को
जैसे पत्थर
जानता है पहाड़ को
जैसे महक
जानती है फूल को
जैसे पत्ता
जानता है वृक्ष को
जैसे बसंत
जानता है धरा को

ऐसे ही जानता हूँ मैं तुम्हें

तुम्हारे प्यार में



नई भाषा::

जिस भाषा में बातचीत करते हैं हम
वह नाकाफ़ी है
हमारे उन भावों के लिए
जिन्हें हम व्यक्त करके भी
व्यक्त नहीं कर पाते

इसलिए हमें चाहिए एक नई भाषा
बेहद सहज और सरल भाषा
ठीक उस प्यार की तरह
जो हमारे भीतर महक उठता है
एक दूसरे के लिए
कभी-कभी



मुझे अब तुम्हें भूल जाना चाहिए मेरी प्रियतमा::

मुझे अब तुम्हें भूल जाना चाहिए मेरी प्रियतमा
मेरे जैसे आदमी के लिए
जिसे समाज की कोई परवाह ही नहीं है
यही सबसे बड़ी सज़ा है

हालांकि मैं जानता हूँ कि प्यार को
और सच्चे प्यार को भुलाना कितना कठिन काम है
फिर भी जब इन दिनों
प्यार जब शर्तों पर किया जाने लगा हो

और प्यार करने के कायदे बना दिए गए हों
जिन्हें न मानने पर प्यार को कत्ल किया जा रहा हो सरे-बाज़ार
ऐसे हालात में एक भले नागरिक की तरह जीने के लिए
प्यार को भुला देना ही बेहतर है
फिर चाहे वो सच्चा प्यार ही क्यों ना हो

मुझे ये भी अच्छी तरह मालूम है
कि तुम्हें भूल जाने का स्वांग भर करने पर भी
मेरा जीवन पटरी पर आ जायेगा पहले की तरह
मान लिया जायेगा मुझे फिर से एक भला मानुष
जितना ही अच्छी तरह से पालन करुँगा मैं कायदों का
उतनी ही प्रशंसा मिलती जायेगी मुझे बराबर
और मैं ये सब करता जाऊंगा नाटक के किसी पात्र की तरह
ये जानते हुए कि जो हो रहा है, सही नहीं हो रहा है

लेकिन क्या खत्म हो जायेगा सच्चा प्यार
मेरे हृदय से जुड़ गया है जो धड़कन की तरह
मेरी आँखों में बस गया है जो पुतली की तरह
त्वचा की तरह मेरे शरीर से एकमेक हो गया है
और मुझमें समा गया है जो मेरी ही तरह

क्या मैं उससे जुदा हो पाऊंगा
तुमसे जुदा होने की तरह

पर अभी तो वक्त का यही तकाज़ा है
कि मैं तुमको भूल जाऊं मेरी प्रियतमा
हालांकि मैं जानता हूँ कि प्यार को
और सच्चे प्यार को भुलाना कितना कठिन काम है
और मेरे जैसे आदमी के लिए
जिसे समाज की कोई परवाह ही नहीं है

यही सबसे बड़ी सज़ा है

कलाहीन प्यार::

ये प्यार
न जाने कहाँ से आता है मेरे भीतर
और मैं इसे देता हूँ बिना सोचे समझे
शायद पागलों की तरह
या कभी तो गंवारों की तरह बिल्कुल
लोग मुझे सिखाते हैं पर मैं सीख नहीं पाता
प्यार बांटने का कलात्मक और सभ्य तरीका
मैं बड़ा उल्लू हूँ काठ का सचमुच
जो इतनी सी बात भी समझ नहीं पाता
जो प्यार कलात्मक और सुसभ्य नहीं है
आज की दुनिया मैं उसका कोई अर्थ नहीं है
और लोग हैं कि समझ नहीं पाते
प्यार को कलात्मक और सुसभ्य बनाने के लिए
बड़े धैर्य की जरूरत होती है
और धैर्य की मुझमें बड़ी कमी है



7 टिप्‍पणियां:

  1. "पहली बार जब देखा तुम्हें" तो लगा तुम्हारा साथ, साथ फूलों का, "जबकि मैं तुम्हें भूल जाना चाहता हूँ" पर क्या करूँ कि तुम्हारा साथ, साथ फूलों का,"कहाँ हो तुम?" तुम जानती हो तुम्हारा साथ, साथ फूलों का,"तुम्हारे प्यार में" एक "नई भाषा" की आवश्यकता हुई क्योंकि तुम्हारा साथ, साथ फूलों का,"मुझे अब तुम्हें भूल जाना चाहिए मेरी प्रियतमा" क्योंकि आज का प्यार "कलाहीन प्यार" है और तुम्हारा साथ, साथ फूलों का.

    सुंदर रचनाएं, सुन्दर प्यार की सुंदर अभिव्यक्ति. बधाई मुकेश जी, बधाई अपर्णा जी!

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  2. Mukesh ji Aparna di ke sanjha karne par aapki kavitaaye padne ko mili, bahut hi khoobsurati se vyakt kiya hai bhavo ko.............

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  3. अरुण कुमार प्रियम25 मई 2011 को 12:12 pm बजे

    कविताओं के पढने से लगता है मुकेश जी सघनतम मानवीय अनुभूति प्रेम के गायक है.....कविताओं को पढ़ते हुए "प्रेम की पीर" के कवि घनानंद की याद आती है...लेकिन मुकेश जी प्रेम में कल और कलाहीनता की बात जब कहते है तो उसमे बुद्धि का योग नजर आता है जो प्रेम को मुक्कमल नहीं बनने देती है. घनानंद प्रेम से बुद्धि को निथार कर अलग कर देते हैं....यहीं पर मुकेश जी की कविता मुक्कमल प्रेम से अलग होती प्रतीत होती है

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