बाबुषा: कहते हैं ज्ञानी दुनिया है फ़ानी, पानी पर लिक्खी लिखाई

                               

[ राग-बिराग
प्रियतम !
तेरी पहली दृष्टि, गूँज उठे जीवन में राग
तेरी छुअन से चमक उठा माथे पर रक्ताभ सुहाग
मन भर कर सोहर सुनते थे, जी भर गाए हमने फाग
छलिया ! तेरा छल भी सुंदर
हमको हुआ बिराग
रे प्रियतम !
नींद नगरिया संग चले तुम बने हमारी जाग
सजनवा !
हमको हुआ बिराग ]



छल
चुनरी के कच्चे रंगों पर इतरा जाती हैं
आँखें मूँदें टिक जातीं कच्ची दीवारों पर
वो बावरी लड़कियाँ
कच्ची उम्र के चूल्हे में पूरी पक जाती हैं
वो बेशरम लड़कियाँ
पीस देतीं कच्ची रातें सिल पर
पक्के रंग पाने की ख़ातिर
कच्चे आम की फाँक जैसे
इच्छाएँ चखतीं आँखें मिचकाते
दाँत खट्टे कर बैठती प्रेम के रस से
वो बेसुरी लड़कियाँ
छोटी कच्ची सड़कों पर निकल पड़तीं
लम्बे-लम्बे गीत गाते जीवन के
एक मोड़ पर आ कर ख़त्म हो जाती सड़कें
उनके गीत नहीं चुकते
कच्ची टहनियों पर बाँध बिरही राग सारे
लौट आतीं घरों को
सूरज ढलने के पहले
बुजुर्ग कहते हैं
कि सुबह का भूला साँझ घर लौट आए
तो उसे भूला नहीं कहते
वो बेसुध लड़कियाँ
भूल जातीं तोते की तरह रटे जीवन के सबक
भूलें दोहरातीं
कच्चे कानों पर रख देतीं पक्के वादे
वो बुद्धू लड़कियाँ
गीता का दूसरा अध्याय नहीं बाँचतीं
उन्हें मतलब नहीं इस बात से
कि आत्मा को न काटा जा सकता है
न मारा जा सकता है
न जलाया जा सकता है न ही सुखाया जा सकता है
वो बेज़ुबान लड़कियाँ
छलनी आत्मा के टुकड़े जोड़ती-सहेजती
जानती हैं खूब
कि आत्मा को छला जा सकता है


लोभ

( शबनम नानी के लिए )
नानी एक कथा कहती थीं, जिसमें एक लड़की की सच्चाई से प्रसन्न होकर  देवताओं ने वरदान दिया था. वरदान यह था कि गाँव के तालाब में वो एक डुबकी लगाएगी तो सुंदर हो जाएगी. बहुत मन करे तो एक और डुबकी लगा ले, और सुंदर हो जाएगी पर तीसरी डुबकी पर प्रतिबन्ध था.
देवताओं ने बार- बार कहा था कि किसी भी हाल में तीसरी डुबकी मत लगाना.
और ये बदतमीज़ लड़कियाँ
कथा को दरकिनार कर तीसरी डुबकी ज़रूर लगाती हैं
वो खो देती हैं सारा अर्जित सौंदर्य
ज़्यादा पाने के लोभ में नहीं करतीं वो देवताओं के वरदान की अवहेलना
उठाती हैं ख़तरे प्रतिबन्ध के रोमांच में
अंजान गलियों में ढूँढ़ती सही पते
तालाब की गहराइयों में खोजतीं मोती
मिले शायद कहीं जो आँखों से छिटक के गिरा था
इस बात से बेफ़िकर कि यह दुस्साहस सारा सौंदर्य नष्ट कर देगा
अह !
कैसा दुर्भाग्य कि दुनिया गहरे उतरने को लोभ परिभाषित करती है
मैं बेशऊर पूछती
नानी, तुम काली क्यों हो ?
तेरे चेहरे पर ये काला धब्बा कैसा, नानी ?
माँ कहती है वो तुम्हारी जैविक नानी नहीं
फिर भी देखो ! एक गुण कितना मिलता जुलता
कि तुम दोनों जिस क़िस्से पर हँस देती हो
ठीक उसी क़िस्से को कहते रो पड़ती हो
थोड़ा बड़ी हुई तब फिर से याद किया नानी का चेहरा
काले रंग पर एक दाग उजला
सोचती हूँ
कितने तंग हाथों से देता है पुरुष
कि तीसरी ही डुबकी में सौतेला हो जाता है
पुरुष तालाब है
नानी कहती थी
कि आसमान तकते लोग आख़िर में सितारे बन जाते हैं
वो बेअदब लड़कियाँ
आख़िर में ज़रूर कमल बन जाती होंगी
ये जानते हुए भी कि बाहर तख़्ती लगी है
कि सख़्त मनाही है तीसरी डुबकी की
वो तीन नहीं तीन सौ बार डूबती होंगी
यह जानने के लिए
कि तालाब के भीतर आख़िर क्या छुपा था









मोह
कि जैसे उसके जूते के तस्मे में मन बाँध देना.
फिर इंतज़ार करना कि जब वो लौट आएगा और जूते खोलेगा तब अपनी चीज़ लेकर अपने देस लौट जाएँगे. वो किसी मन्दिर चला गया था. जब  घर लौटा तो पाँव में किसी और के जूते थे. कहने लगा, जूता बदल गया यार ! पता नहीं किसका है यह.
जाने किसका मन मेरे पास ले आया. जाने मेरा मन कहाँ भटकता होगा. ऐसा लगता है जैसे हर कोई मंदिर के बाहर से ग़लत जूते पहन आया है.
कितना तो कोलाहल है संसार में
नासा वाले खोज रहे निर्जन द्वीपों में जीवन
बुद्ध खोजते थे जीवन में मृत्यु
शायद वॉन गॉग तलाशता रहा हो सूरजमुखी में सूरज
मैं ढूँढ़ती रहती उसके गुमे जूते संसार भर में
मन्दिरों के बाहर जूते बहुत तेज़ी से पाँव बदल रहे हैं
बेबस पाँव जूतों की आदत नहीं बदल पाते
मन बेचारा !
जूतों के तस्मे में बँधा घूमता संसार भर में

कामना, क्रोध, समर्पण
हर आग का रंग नारंगी नहीं होता
कोई चिंगारी हरी भी होती है लपट के बीचों-बीच उठती
अलग-अलग होती है तासीर जलने की
कोई आग जला कर राख करती
तो कोई अपने ताप में गला कर कुंदन बना देती
कुछ जल्दबाज़ लोग जल्दी-जल्दी जीते हैं जीवन
जल्दी चलते हैं
जल्दी सुनते हैं
जल्दी में आधा सुनते हैं
उससे भी जल्दी कहते हैं
आधा सुनने वाले लोग पूरा मतलब निकालने के विशेषज्ञ होते हैं
किसी निष्कलुष मन की आँच को
जल्दी से जल्दी
जंगल की आग की तरह फैला देते हैं
हाथों में थामे जलती हुई मशाल
सब कुछ जला देने तैयार
ये जलते हुए लोग नहीं समझ पाते मामूली- सी बात
कि किसी जंगल का दिल जला होगा
तब कहीं जाकर जंगल हरा हुआ होगा


मुक्ति
सबका अपना-अपना मक्का होता है
सबकी अपनी काशी
बताया  था मैंने
एक प्रेत रहता है मेरे भीतर
लिबास बदल-बदल कर सिर चढ़ जाता
नहीं भागता किसी जादू-टोने या मंतर से
स्याही की रौशनाई से बिचक कर भूत बन जाता है
इन भूतों को भविष्य में तालियाँ मिल जाती हैं
उपहार और फूल मिलते हैं
कितनी सारी बदतमीज़ लड़कियाँ लिखती हैं
बेबाक चिठ्ठियाँ
"बाबुषा ! हमारे बंद होठों और बेबस मन को तुमसे आवाज़ मिलती है
यूँ ही भूत-प्रेत के तंत्र-मंत्र करती रहना "
सहेज लेती हूँ दूर-दराज से आई गीली चिठ्ठियाँ
सीली दराज में
गीले तकिये को फूँक मार कर सुखा देती हूँ
उन बेसुध, बावरी, बेज़ुबान लड़कियों को मिलती है आवाज़
मुझे माइग्रेन की ज़ंजीरों से मुक्ति मिलती है
प्रेम की चोट लगती है
कोई और प्रेम बन जाता है औषध
जीवन से भरोसा टूट जाए
कम्बख़्त ! कोई गोंद नहीं जोड़ पाती
प्रेत को भूत में बदलने का मंत्र साध चुके
भरोसे के तितर-बितर टुकड़ों को बो कर
भरोसे की फ़सल उगाने की किसानी अब तक न आई
गाहे-बगाहे गुनगुनाती हूँ कच्ची सड़कों पर जीवन के गीत
तालाब किनारे बैठे दोहराती हूँ नानी की कहानी
कभी सिखाऊँगी ये गीत अपनी बेटी को
मैं उसे तीन डुबकी की कथा सुनाऊँगी
अब तलक काशी से मक्का तक ढूँढ़ती जूते तुम्हारे
जंगल के हरे को हरि जान कर पूजती
मैं जीवन के सारे अनुष्ठान करती हूँ
शायद ऐसा होगा कभी
कि भूत-प्रेत के चक्करों से छुटकारा मिल जाएगा
हरी-नारंगी आग से दहकते जंगल के बीचों बीच
उस तालाब के पानी पर एक दिन
तुम्हारा नाम लिखूँगी उँगलियाँ गड़ा कर
सबका अपना-अपना मक्का
सबकी अपनी काशी
एक दिन मेरे भीतर हुड़दंग मचाते सारे प्रेत हो जाएँगे सन्यासी



बाबुषा






लड़की कहती है कि ये पांच गद्य गीत हैं , मेरे अड्डे के लिए. मेरे फूलों के लिए और मैं सोचती हूँ कि मैं इन गीतों को कहाँ सहेज लूँ -अभी मेरी गज कमान वॉयलिन का पेट चीरेगी और अभी ये गीत दिल के आर पार होगा. अभी -अभी खमाज  से लड़ -भिड लड़ भिड करुँगी मैं और ये गीत मेरे गले का विप्रलंब होगा.
घंटी की टन टन होती रही और मेरा मन न हुआ कि इस स्कूल से भाग छूटूं . पढ़ाने वाली भी यही लड़की और मेरे बस्ते को ठीक करती हुई भी यही लड़की .
यही लड़की मेरी धाय कि जाड़ा ज्यादा तो नहीं हो गया -लाओ जुराब पहना दूँ . लाओ दस्ताने और टोपी भी और इस तरह मेरी बुजुर्गियत में बचपन घोल कर शरबत बनाती रही मुझे .
यही लड़की जो मुझे मेरी नादानियों पर सज़ा सुनाती है -जाओ बार -बार इन्हीं सीढियों से चढ़ो-उतरो. खुद फैसला करो, खुद सज़ा दो और चुपचाप कंकड़ वाली राह में मिट्टी ओढ़ कर सो जाओ -दुनिया सोती है, दुनिया ओढती है -तुम क्या सतमासी हो जो कुम्हला जाओगी और मैं नौ महीने की परिक्रमा करके इस लड़की का चेहरा देखने लगती हूँ - अब आगे क्या करूँ ? बता न .
और तब ये हंसती है . और तब ये उतने ही जोर से रोती है -चार्ली हमकु कुछ नहीं पता . तू बोल न !



एक शहर की डायरी :


घंटी की टन-टन बस्ते में भर ली. गलियारों में दौड़ते एक जोड़ी पैरों के निशान ढूँढते रहे. खटमिट्ठी बेर-सा बचपन बीनते रहे. सड़कों पर बिखरी शरारतें समेटते रहे.

देर तक रोते रहे...

आधी रात घबरा कर उठ बैठे. तकिये के नीचे दबा हुआ वादा निकाला. घुटनों पर बैठे दुआ पढ़ते रहे. आँखें  बहती रही, सितारे टूटते रहे. पागलों से हम क़समें चूमते रहे.

थान से एक मीटर हवा काट ले आए, झबला सिया और ख़्वाब को पहना दिया.
धानी दुपट्टा तार -तार किया. ख़्वाबों का पैरहन सहेजते रहे.

***
पेचीदा गलियों में घूमते रहे. घंटों तक बालों से खेलते रहे. आईने में ख़ुद को निहारते रहे. ख़ुद को देख कर लजाते रहे. पैरों के दर्द को सोखते रहे. कॉलर में काजल को पोंछते रहे.

बेवजह हँसते रहे, क़िस्से कहते रहे. धमनियों में बेज़ुबान दर्द को सहते रहे.

सौ दफ़ा छाती पर नाम उकेरा. छिली उँगलियों में आँखों की नमी बाँध ली.
मुठ्ठी भर साँस से प्याला भर लिया. सर्द दिन में घूँट -घूँट पीते रहे.

***
सलाइयों में साँझें उतारते रहे, रातों को फंदे गिराते रहे. एक क़ीमती स्वेटर बुनते-उधड़ते रहे. आँखों में ख़ुद को दर्ज किया और बाँहों में ख़ारिज करते रहे. आसमान पर सवाल दागे और सूरज के सीने में जलते रहे.

मोगरे की तरह महकते रहे.

किससे कहें और क्यों कर कहें कि मौत की तश्तरी पर ज़िंदगी चखी है. टेसू के जंगल में आग लगी है. आँच में मुसलसल झुलसते रहे. कुर्ती में लाल रंग भरते रहे.

***
दूर तक गलियों को तकते रहे. अरमान कभी जमते , कभी गलते रहे. हम गिरते रहे और संभलते रहे.

टैक्सी में ख़ुद को रख कर भूल आए . एक टुकड़ा 'केनी जी' की धुन के सिवा दिन भर कुछ नहीं खाया. भीड़ भी बहुत थी और शोर भी बहुत था. पर दवा पूछने वाला कोई भी नहीं था.

माथे पर अंगारे बरसते रहे. कंबल के अंदर हम सुबकते रहे.

***
पटरियों पर लम्हे सरकते रहे. हम स्टेशन-दर-स्टेशन पीछे छूटते रहे. दिल के जंगल में जुगनू चमकते रहे. मरना, क्या कोई बड़ी बात है ? जीना, मगर हाँ ! बड़ी बात है. अपनी मर्ज़ी से हम साँस लेते रहे. साँस-साँस सदियों को जीते रहे.

पुलिया -पहाड़ों से कहते रहे. नदियों के संग -संग बहते रहे.

एक शहर पैरों में लिपट आया है. उस शहर के पैरों से हम लिपटे रहे.
जूठे मुँह ईश्वर का नाम जपते रहे.

                                          Jean-Francois Millet




माइग्रेन की एक रात :

" लाओ री मालिनिया हरवा
अच्छी नीकी लड़ी मालनिया लाओ
आज सजन संग मिलन बनिलवा "

... कि जैसे एड़ियों की खुजलाहट असह्य हो, कि जैसे विरह का काढ़ा और गाढ़ा हुआ जाता हो, कि जैसे इसे गटके बिना स्वर्ग के द्वार पर ही अटके रहेंगे.

बीतने को पूरी रात पड़ी है और जीतने को कितने स्वप्न ! चटख - सुनहले रँगों वाले ...

निर्दोष-से ये सपने बीत जाते हैं और चतुर लड़ाकू रात जीत जाती है. हज़ार तालों में जकड़ी बैरी इच्छा छटपटाती है. एक कातर सिसकी की गूँज आकाश तक जाती है. सुदूर पूरब में भोर का तारा तड़प कर टूटता है, पर सुबह आती है यूँ कि जैसे फ़र्श पर काँच का गिलास फूटता है !

छन्न !

कोने में जा छिपी किरचें समेटते दिन भी यूँ ही कट जाता है और टहनी से उचक आया चंचल चाँद खिड़की से सट जाता है. जो घड़ी मिलन की थी, वो आँखों में फिर उतरी है. पर बाँझ हुयी है ये साँझ जो बस, यादों में गुज़री है.

एक बार जो तुम आ जाओ तो फिर उम्मीद का नीबू चखूँ . बोलो ! कब तक आले पर मैं आस का दीया रखूँ ?

साँस जलती-फुंकती है, चलती है, रुकती है. 'माइग्रेन' में सिर नहीं, अब छाती दुखती है.

पपीहे की पुकार सुन लूँ तो जान जा सकती है. और ये रात, जो आख़िरी हो तो किशोरी अमोणकर मेरे लिए पूरी रात गा सकती हैं !

कि,

"अच्छी नीकी लड़ी मालनिया लाओ
आज सजन संग मिलन बनिलवा "



                                                                                             









                                                                                                                                                                                                                           William Dyce



जब रुलाई फूटे 

जब रुलाई फूटे, किसी पेड़ से लिपट जाना.
लॉकेट की तस्वीर में बेजान बालू भर लेना.  किसी भूरे पत्थर  को दिल की धड़कन सुनवाना.  इंतज़ार करते हुए लकड़ी की बेंच बन जाना.  बेबस घाटों- सा कट जाना,  कपड़े- लत्तों सा फट जाना. किनारियाँ उठा के सी देना, रहमत का पुल बन जाना.
दुःख को हाँडी में सेंकना, चूल्हे में सीली लकड़ियाँ सुलगाना. लपटों  से अपनी धधक कहना. मुट्ठी भर मिट्टी उठाना, भुरभुरा के ढह जाना.  बारिशों में भीगना, बाग़ों में बरसना, समंदर में बूँद बन फ़ना हो जाना.
दिल निकालना, ब्लैक टी में घोल कर गटक जाना. पपीहे के कंठ में अटक जाना. मज़ारों में हर रंग के दर्द बाँधना.  ख़्वाहिशों को गाय की सींगों में फँसा देना.
रेलवे स्टेशन निकल जाना. भिखारियों का भूखा पेट देखना. हिजड़ों को सूखा पेट दिखाना. उनके दुआओं वाले हाथ जबरन  सिर पर रख लेना. सिक्के बराबर आँसू बन जाना. ग़रीब की कटोरी में छन्न से गिर जाना.
सुनार से एक अँगूठी बनवाना. उस पर मोती बराबर नींद की गोली जड़ देना. आधा गिलास पानी में फड़फड़ाना, छटपटाना और डूब जाना पर महबूब से एक लफ़्ज़ मत कहना.
कंकड़ पीठ में चुभने देना. मिट्टी ओढ़ना, चुपचाप सो जाना.



सूरजमुखी 


माना कि तुम्हारी हथेली में पच्छिम नहीं है. एक लक़ीर अमावस की क्यूँ हरदम चलती रहती है ?
एक काम करोगी आज...
गहरे गले का ब्लाउज़ वो नीला वाला पहनो. जिस पर पीठ तुम्हारी आधे चाँद-सी झिलमिल करती है. लम्बा-सा स्कर्ट वो पीला रेशम-रेशम, जिसकी हद पे सरसों की बाली फूला करती है. हरे रंग के कंगन पहनो. फ़ोन पे उनकी खन-खन भेजो.  कानों में वो आगरा वाले लटकन पहनो. शाहजहाँ की बेतरतीब सी धड़कन पहनो. माँग में गीली शबनम पहनो. कमर में सारे मौसम पहनो.
कच्चा कोयला सीने में फिर से सुलगाओ. धुआँ-धुआँ काजल से तुम बादल बन जाओ. सिर के ऊपर कड़ी धूप है. मेरे शहर में बड़ी धूप है. हँसी की बूँदें छम छम भेजो. इन्द्रधनुष और सरगम भेजो.
जैसे लापरवाही से तुम बाल झटकती हो, हौले से बस! वैसे ही वो बात झटक दो.
ब्लाउज़ के नीचे काँच रंग की जो डोरी है, ज़रा-सा नीचे सरकाओ. चटक -मटक रंगों में तुम नाखून डुबाओ. बायीं तरफ़ हँसली पर जानाँ, हँसते सूरजमुखी उगाओ.
जिस्म- जान सब रौशन-रौशन कर जाएगा. काँधे पे डूब के सूरज आज ही मर जाएगा.


तन तितली मन स्याही 
[ या इलाही से मुख़ातिब ]
किस के बस्ते से ये सारे रंग चुराए. जाने कैसे तुमने इतने रंग बनाए..

कैसे सोचा हरे से भरे पत्ते  होंगे ?   पेड़ों के ये सुंदर कपड़े-लत्ते होंगे.  शँख फोड़ कर क्या तितली के पंख बनाए ? पीले-नीले रंग सफ़ेदी पर छितराए. तितली जा कर फूलों से सौदा कर आयी. पी कर शरबत फूलों में वो रंग भर आयी. आग को रंगते वक़्त तुम्हारा हाथ जला था. बर्फ़ का टुकड़ा हाथ पे अपने ख़ूब मला था. ठंडक पर तुमने कूची फिर खूब चलाई. ठंडा रस भर शाख़ों पर नारंगी लटकाई.
नीली लपटों से थोड़ा-सा रंग निकाला. मुट्ठी भर नीले को फिर दरिया में डाला . धरती की छत पर उस दिन शीशा लटकाया. नीले दरिये ने आँखों को झट मटकाया. दरिया, नदियाँ और  समन्दर शीशे में बहते हैं,  और हम कितने नादाँ ! उस  शीशे को अम्बर कहते हैं. उत्तर से दच्छिन तक तुमने इन्द्रधनुष जो खींचा है. अस्मानी मिट्टी को गीले  सतरंगों से सींचा है. क्या परियों की चिमटी से तारे चमकाए ? जलते-बुझते सूरज के  कैसे रंग बनाए. मिट्ठू मियाँ की कैसे तीखी  चोंच रंगी ? किस कूची से वॉन गॉन्ग की सोच रंगी ?
जाने कैसी -कैसी तो तुम साज़िश करते हो ? यहाँ -वहाँ और कहाँ कहाँ रंगों को भरते हो.
भर दी माटी के पुतले में सारी माया और कुदरत के संग तुमने इक रास रचाया. खेल- खेल में उस दिन तुमने मुझे बनाया. सब रंगों के प्याले में  फिर ख़ूब डुबाया. तन पर मेरे किसम-किसम के रंग लगाते और खुद ही सारे रंगों को धोते जाते. क़दम- क़दम पर धूप-छाँव को खूब जिया है. घूँट-घूँट विष-अमरित संग हर रंग पिया है.
मुझको अपना आज पता दे, कुशल चितेरे राज़ बता दे. बस ! मुझको इक बात बता दे...
कौन कमी इस पुतले में बाक़ी थी, मालिक ? काले को क्या रात नहीं काफ़ी थी, मालिक ? पौ फटने ही वाली थी कि काली चिंदी जोड़ गए. रात अमावस से चोरी कर छाती पर तुम छोड़ गए.
स्याही शीशी में भर कर क्यों मन के भीतर फोड़ गए.


नूतन डिमरी गैरोला




नूतन को हम facebook पर सहृदय चिकित्सक और समाजसेवक के रूप में जानते हैं . कविता उनकी सहृदयता को संगत देती है . प्रकृति और प्रेम नूतन के काव्य जगत में सहजता से आते हैं .


घबरा कर 



हम लिखेंगे प्रेम
द्वार पर
स्वागत गीत की तरह
पत्थरों मे भित्तिचित्र की तरह
दीवारों पर रौशनाई की तरह
हवाओं में महकती खुश्बू की तरह
छत पर छाया की तरह
देह पर प्राण की तरह
तब खिड़कियाँ होंगी बंद
दरवाजे भीतर से .……
.
प्रेम ही प्रेम
प्रेम मे डूबते हुए
एक इतिहास की तरह
भविष्य की खुदाई में
मिलेंगे भग्नावशेषों की तरह
किसी तालाब की मिट्टी में
या कुवों के पत्थरों में ..……
पर अभी
फिकर है
कि बना रहे प्रेम 
पर नष्ट कर दी जाएँ सारी निशानियाँ 
इसे तो लिखे जाने से पहले ही
मिटा दिया जाना चाहिए
हमें अपने ही हाथों से ...........
देखो बाहर
एक अजनबी भीड़
और चेहरे कुछ पहचाने हुए
सरे आम लिए
लाल स्याही वाला एक पैगाम
जिसको लिखते ही क्रूरता ने
कलम की नोक तोड़ डाली है ....
देखो द्वार काँप रहे है
संकले टूट रही हैं
इस से पहले की वो भीड़
मूछों पर ताव दे कर
सर पर एक नयी सुनहरी पगड़ी संवार ले.
इज्जत की ……..
आओ हम तुम
प्रेम गीत को
पूरा रच लें|
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आज का हिटलर 

देखो उस खिडकी से बाहर / बहुत सुन्दर फूल खिलें है / ताकीद किया है मैंने ताकि तुम गलती से भी ना देखो उस ओर / वहाँ खिडकी से बाहर दिखेगा तुम्हें वह माली भी जो कर रहा है बगीचे की हिफाजत / क्या पता उसकी नजर हो बुरी..

तुम कर रही थी उस रोज / अपनी जिस प्रिय मित्र की बात/ करती नहीं वह मुझसे बात / तुम उससे मत जोड़ कर रखना कोई सखाभाव  / जिससे बोलूं बस उससे अभिवादन भर रिश्ता रखना / देखो तुम हो बहुत भोली और तुम नहीं जानती हो भला बुरा इसलिए मैं चयन करूँगा कि तुम्हें किसको बनाना होगा मित्र और होंगे कौन अमित्र

देखा मैंने कि कह रहे थे लोग, तुम बहुत खूबसूरत हो/  तुमने कभी शीशे में भी देखा है अपना चेहरा / कितना झूठ बोलते हैं लोग ये है तुम जानो/ तुम उनकी बातों में न आना/ जानो कि वैसे भी मुझे सुंदरता से न कुछ लेना देना / और अगर देखनी हो सुंदरता तो आइना मत देखना,  देखना मेरी ओर, मेरी आँखों की ओर जहाँ तुम दिखती हो

आज कल तुम बातें करती हो भ्रष्टाचार के बारे में/ दुनियाँ में फ़ैली दुःख बीमारी की / इस से तुम्हें क्या लेना देना / इन्होने तुम्हें वैसे भी क्या देना / देखो मुझे ही रहती है फिकर तुम्हारी / देखना हो तो देखो मेरे दुःख मेरी बातें / मेरा दुःख तुम्हारे लिए होना चाहिए दुनियाँ का सबसे बड़ा दुःख, और सबसे जरूरी बात ..

भूरा रंग तुम्हें बिल्कुल भाता नहीं / पर क्या करें हाट में यह भूरी साड़ी सबसे सस्ती मिली/  पहन लेना इसे और कहना मुझे बेहद पसंद है क्यूंकि तुम कहो नापसंद यह सुनना मुझे भाता नहीं / यह तौहीन होगी किसी की किसी प्रेमउपहार की / और सुना है आज तक वह बड़ा दिल कर कहती है कि यह साड़ी भूरी मुझे बहुत बेहद पसंद है ..

वह तुम पढ़ रही हो कौन सी किताब / अडोल्फ हिटलर की जीवनी / यह भी कोई पढ़ने की चीज है / पढ़ना हो तो पढ़ो मेरा चेहरा और समझो करता हूँ मैं तुमसे कितना प्यार / और जानो कि जैसा मैं कहूँ तुम्हें वैसा करना होगा / जैसा मैं चाहूं तुम्हें वैसा बन कर रहना होगा / क्योंकि तुम्हारे जीवन की ( मौत की) चाभी है मेरे हाथ / तुम अभी तक महफूज़ हो जिन्दा हो अभी तक, क्या ये कुछ कम नहीं, तो जान लो कि करता हूँ तुम्हें कितना प्यार ..

तब उस स्त्री ने किताब तहखाने की अलमारी में बंद कर ली/ और उस आदमी की आज्ञा  की अवहेलना न करती हुई अपना होना ना होना एक किनारे रख, उस प्रेममंदिर की हिरासत में थानेदार को भयभीत नजरों से देखती रही और उसकी आँखों के समंदर से गुजरने वाली राहों में चलते हुए अपने अस्तित्व को खोती रही,  डूबोती रही | वह जान चुकी थी कि यह मासूम सा लंबी काया वाला क्लीन सेव्ड आदमी ही  आज का अडोल्फ हिटलर है और वह तब्दील हो चुकी है इवा ब्राउन में|” 

                                                Pablo Picasso

 

कैनवास पर सफ़ेद फूल 


सफ़ेद दीवार पर वो दो
कैनवास
जिनमे खिले सफ़ेद फूल
एक चंपा
दूसरा रात की रानी
अदीठ इच्छाओं की तरह
जो सदा बने रहते है दीवार पर
उसी तरह स्थायी
पर खिल नहीं पाते
न मुरझाते है कभी
न मिल पाते हैं
बस जड़ दिए जाते है
काली पट्टी वाले फ्रेम के भीतर
सदा के लिए 


मौन का प्रत्युत्तर 


जब एक सुप्त रिश्ता
जिसे जोर जबरदस्ती थपका के सुलाया गया था
जाग जाना चाहता हो और जी उठता हो .....

अपनी आँखों को खोल कर
मिचमिचा कर देखता है ऐसे
जैसे कोई शिशु असमंजस में
जानना चाहता है दुनियां को  
और कि मुझे सुलाया क्यों जा रहा है,
जब कि उसे दिन रात का हिसाब भी नहीं पता
न ही वह जानता है भूख प्यास
बस वह जानता है रोना असुविधा के होने पर
और जानता है माँ की आवाज .............

ऐसे में वह रिश्ता रेगिस्तान में बिखरे पानी की तरह
ऊँचें पर्वतों में विलुप्त होती हरियाली की तरह
समुन्दर में जा दबी नदी की मिठास की तरह
पूछता है
संदेह में
अपने होने या न होने का मतलब.....
  
कभी मुस्कुरा कर
तो कभी उठा कर फन
कि मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ?............ 

तब बोलता है एक मौन,
अपनी वर्जनाओं की दीवार में
सेंध लगा कर बना लेता है
एक विलुप्त होता हुआ अस्थायी सा सुराख  
जिस पर अपने होंठो को धीमे से
रख कर
फुसफुसाता है चुपके से
और कहता है

तुम पानी, तुम लपलपाती आग
तुम पृथ्वी, तुम आकाश
तुम मिट्टी और मिट्टी में बसा प्राण|


 



                         Caspar David Friedrich
कभी तो जागोगे तुम 


पत्थर ही हो न तुम…..
जिसके आगे
दीये में
एक लौ लिए
जलती रही ...
हर पल तुम्हारे लिए
रौशनी, जीवन गर्माहट को समेटे
खुद को अर्पित करती रही
अपनी ऊर्जा के साथ
तिल तिल अंतिम बूंदों तक .......
पूजती रही विश्वास से
कि पत्थर में भी तो
प्राण प्रतिष्ठित रहते हैं ..
कभी तो जागोगे
कभी तो पिघलेगी बर्फ
कभी तो तुम्हारी शिराओं में
दौड़ेगा रक्त
और प्रसन्न हो कर
आशीष दोगे
भर दोगे अपनी भुजाओं में ...…….
पर एक मूर्ति ही तो हो तुम
निर्विकार, तटस्थ, उदासीन
अधमुंदी आँखों से
देख कर अदेखा करते हुए
कितने ही दीयों की आहुति ...……
मिटटी के थे
जले बुझे टूटे मिटे
बाती जली और राख  हुई
प्रारब्द्ध ही उसका जलना धुंवा होना था
माना गया|
और तुम अपने ओज पर
जो उन दीयों की चमक से थी
मुस्कुराते रहे.......
तुमने आदेश दिया
हवा को, पानी को, भूमि को
अपने भक्त को मिटा देने  को
और मिटा दिए गये
दीये श्रद्धा के बुझा दिए गए ...
असमय ..
तुमने तो पाप का संहार किया था
धरती का उद्धार किया था
तांडव करते नहीं देखा था किसी ने तुम्हें..
सैलाब में दबते हुए भक्तों ने देखा था
अपनी पथराती आँखों से
मौत का तांडव
और
तुम यूँ ही मुस्कुराते रहे उस समय भी
जैसे शिल्पी की कल्पनाओं से
अपने प्रारम्भ में गढ़े गए थे तुम
छेनी और हथौड़े से ...
पत्थर के ही हो न तुम
उसी तरह निर्विकार भाव से
सबको अपनाते रहोगे
मेरे बुझने के बाद भी ...
क्यूंकि तुम्हें पता है
तुम पूजे जाते रहोगे
भक्त नए रूपों में आते रहेंगे
पूजा और दीये की थाली ले कर.........
श्रद्धा और विश्वास की घंटियां
रुनझुन बजती रहेगी
तुम्हारे गुणगान करती रहेंगी
तुम्हारे देवत्व की …….....
तुम देवालय के देव हो
सबसे ऊँचे पहाड़ की चोटी में
आरूढ़ बरफ से|
और मैं इधर उधर छितरती
फूंक में उडती
रुई की फुन्गी
कभी तुम्हारे चरणों में
कभी दीये की लौ में
अपना अंत ढूँढती,
इस कामना के साथ
कभी तो मुझे मेरे हिस्से का
जीवन मिलेगा 
कभी तो जागोगे तुम .



डॉ नूतन गैरोलाचिकित्सक (स्त्री रोग विशेषज्ञ), समाजसेवी और लेखिका हैं.   गायन और नृत्य से भी लगावपति के साथ मिल कर पहाड़ों में दूरस्थ क्षेत्रों में निशुल्क स्वास्थ शिविर लगाती रही व अब सामाजिक संस्था धाद के साथ जुड़ कर पहाड़ ( उत्तराखंड ) से जुड़े कई मुद्दों पर परोक्ष अपरोक्ष रूप से काम करती हैं. पत्र पत्रिकाओं में कुछ रचनाओं का प्रकाशन.


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