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मेरी सीढियों पे कल की बारिश के बाद,
अलसाये पत्ते बिखरे थे.
तुम शाम की गंध से मेरे भीतर,
अलसाये अजगर से लिपटे रहते हो.
कटे नाखूनों से,घटते चाँद से तुम ओझल हो रहे हो.
बातों के टुकडो की चुभन मुट्ठी में समेटे,
खामोश,उस झील के किनारे खड़े हो,
जहाँ आखों की पुतलियो सी काली रात में
कांपती घास बनती है मछलियों का भोजन,
और मछलियाँ उस भेडिया का जो निष्ठुरता का
परिचय है.
अलसाये पत्ते बिखरे थे.
तुम शाम की गंध से मेरे भीतर,
अलसाये अजगर से लिपटे रहते हो.
कटे नाखूनों से,घटते चाँद से तुम ओझल हो रहे हो.
बातों के टुकडो की चुभन मुट्ठी में समेटे,
खामोश,उस झील के किनारे खड़े हो,
जहाँ आखों की पुतलियो सी काली रात में
कांपती घास बनती है मछलियों का भोजन,
और मछलियाँ उस भेडिया का जो निष्ठुरता का
परिचय है.
६
तिनकों से भरी मुट्ठी को लिए
बिना चुभन के
पृथ्वी की ओर नेह से निहारती.......
जब आया वो..
तो सुबकती हवाओं को भी जलन हुई थी
बर्फ तक जलन से नीर हुई
और मैं!
मैं...जैसे किसी हरे भरे खेत के बीच - ठूंठ
जीवन सी शर्मा रही थी.
७
कुछ तिनके उठा
कुछ बातें समेट
कुछ किस्से उठा
कुछ ताने समेट
कुछ हिस्से चुरा
कुछ हिस्से समेट
फितूर सी...इंसानियत....
इंसानों से भागती हाय...आज फिर इंसानियत
सोच कैद संदूक में
इंसानों के फितूर का
क्या फितूर का मतलब समझती इंसानियत,,,
खरोचती इंसानियत
बिलखती इंसानियत
गीद्ध का निवाला बनती
हमारी इंसानियत...!!
बिखर चुके है तिनके
बिखर चुके है किस्से
बिखर चुके हैं हिस्से
न जाने कब समेटेगी
बातें,ताने,वादे...इंसानियत
खुरच कर नींद को आई
फिर इंसानियत.....
न जाने कब पनपेगी.....
मन के पेड़ में इंसानियत....!!!
संदूक में सुराख़ है
सोच फिर आजाद है
इंसानों के साथ आजाद सी इंसानियत
(painting by Frida Kahol)
बधाई वल्लरी.....इस प्रथम प्रकाशन पर बधाई और शुभकामनाएं....
जवाब देंहटाएंबधाई.
जवाब देंहटाएंपहली बार पढ़ा वल्लरी को. कविताएँ सु गठित हैं और फ्रेश लगी. पहली कविता का गठन लाजबाब है.
मेरी सीढियों पे कल की बारिश के बाद,
अलसाये पत्ते बिखरे थे.
तुम शाम की गंध से मेरे भीतर,
अलसाये अजगर से लिपटे रहते हो.
कटे नाखूनों से,घटते चाँद से तुम ओझल हो रहे हो.
बातों के टुकडो की चुभन मुट्ठी में समेटे,
खामोश,उस झील के किनारे खड़े हो,
जहाँ आखों की पुतलियो सी काली रात में
कांपती घास बनती है मछलियों का भोजन,
और मछलियाँ उस भेडिया का जो निष्ठुरता का
परिचय है.
वल्लरी की कविताओं में प्रकृति से लिए गए बिम्ब नयापन लिए हुए हैं और घटती इंसानियत के प्रति चिंता संवेदनशीलता को दर्शाती है.रास्ते और रिश्ते समान लगते हैं क्योंकि दोनों फिसलते जाते हैं.
जवाब देंहटाएंsabhi rachnayen bahut achchhi hai !
जवाब देंहटाएंसंदूक में सुराख़ है
जवाब देंहटाएंसोच फिर आजाद है :)
खूबसूरत आज़ाद शब्द!
वाह, वाह !
जवाब देंहटाएंक्या बात है !!
इसी तरह सृजन से जुड़ी रहें !!!
Tumhari rachna Padhkar bahut Garv mahsoos hua..
हटाएंअरे ... तुम भी कविता की कतार में आ खड़ी हुई? बहुत खूब। बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता |
जवाब देंहटाएंतुम शाम की गंध से मेरे भीतर,
जवाब देंहटाएंअलसाये अजगर से लिपटे रहते हो................ मैंने काफी आवाजों को ,
मुट्ठी मैं क़ैद कर रखा है...... इन पंक्तियों से आपने मेरा दिल खुश कर दिया है ! इन पंक्तियों में आपके हस्ताक्षर हैं .... शुभकामनाएँ वल्लरी जी ... मुबारक इन कविताओं के लिए
Aise hi likhte raho, kalam or syahi dono ko tumse pyaar hai, akshar khud-bakhud lipat jayenge panno se, bus likhti raho.
जवाब देंहटाएंजंगली फूलों की-सी अनगढ़ता और वैसा ही आकर्षण......कविता की फुलवारी में इस नये फूल का स्वागत....
जवाब देंहटाएंआशा करते हैं जल्द ही वल्लरी की और भी कविताएं पढ़ने का मौका मिलेगा...अनंत शुभकामनाएं!
बहुत प्यारी मगर परिपक्व...कवितापन का पूरापन लिए हुए, वल्लरी बधाई, आज तुम्हारे पापा से ज़िक्र हुआ इन कविताओं का जब वि.हि. सम्मेलन की काग़जी कार्यवाही के दौरान सुलभ जी वहाँ मिले... मनीषा कुलश्रेष्ठ
जवाब देंहटाएं''एक चहकती हुई गौरैया के क़दमों से
जवाब देंहटाएंख्वाहिश ने मन में घोसला बना लिया ,
कल शाम से
जाने भाप बन कर उड़ जायेगा या
हाथ बनकर साथ रहेगा.''.............!!! पिता की राह पर...!! आश्चर्य... आत्मसुख... हार्दिक बधाइयाँ बेटी वल्लरी !
"मैंने लोगों के झुरमुट में
जवाब देंहटाएंतुम्हें सूरज के साथ उगते देखा है, सुर्ख लाल,
मेरी भृकुटियों के बीच
आ सिमटते हो तुम." प्रकृति और मानवीय रिश्तों के बीच गहरी आत्मीयता की तलाश में उभरते ये काव्य-बिम्ब वल्लरी की कविता को अलग रंगत देते हैं, इन्सानियत को पनपते देखने की आकांक्षा इन कविताओं को एक और वृहत्तर आयाम देती हैं। शुभकामनाएं।
काफ़ी देर से आया यहाँ (हालांकि पहले दिन सिर्फ़ सरसरी तौर पर देख लिया था), इसके लिए क्षमा चाहूंगा। सबसे पहले तो वल्लरी को बधाई। संभवतः पहली बार वल्लरी की कविता हम सब के सामने आई है।
जवाब देंहटाएंग़ज़ब की ताज़गी है इन कविताओं में।
"मेरी सीढियों पे कल की बारिश के बाद,
अलसाये पत्ते बिखरे थे.
तुम शाम की गंध से मेरे भीतर,
अलसाये अजगर से लिपटे रहते हो"।
"कटे नाखूनों से,घटते चाँद से तुम ओझल हो रहे हो.
बातों के टुकडो की चुभन मुट्ठी में समेटे,
खामोश,उस झील के किनारे खड़े हो,
जहाँ आखों की पुतलियो सी काली रात में
कांपती घास बनती है मछलियों का भोजन,
और मछलियाँ उस भेडिया का जो निष्ठुरता का
परिचय है"।
रचनाकर्म जारी रहे इसकी शुभकामनाएँ।
कुछ दिन पहले मुझे ये आभास हुआ कि जीवन मेँ हम जिस दुखद पल से डरते रहते हैँ वह एक साए कि तरह हमारा पीछा करता है
जवाब देंहटाएंसँयोग से जीवन के हर मोड़ पर हमसफर कि तरह हमे धोखा मिलता है
अपकी कविता पढ़ के लगा कि ये मेरे नजदीक से गुजरी है
किस निष्ठुरता कि बात करुँ?
जग ही निष्ठुर अब लगताहै, कोई कितना भी जुडना चाहे,
उतना ही ये दुर्धर लगता है,
निर्मोही मेँ मोह कहाँ?,
कहाँ बंधता वह बँधन मेँ?
किसमे इतनी शक्ति व्यापित?
जो लिपट सके उस चँदन मेँ