अजेय कुमार ::

























तपती पृथ्वी को प्रेम करना  ::


चाहता हूँ उड़ना
पहुँच जाना अंतरिक्ष में
एक ऐसी जगह
जहाँ से दिखती हो पृथ्वी
एक तपते चेहरे की तरह
और पूछना उस से
अब कैसा है दर्द ?
चाहता हूँ दो आत्मीय बाहें उसकी
और लपक कर गले मिलना
उसे थपथपाना कंधों के पास
और कहना
अपना खयाल रखना !
सोचता हूँ दो गतिशील पैर उस के
लेकिन सधे हुए ऐसे
कि कुछ दूर तक छोड़ आएं
मुझे इस विदाई की घड़ी में
और बेआवाज़ एक ज़ुबान काँपती हुई
जो कहना चाहती हो
कि मेरी खबर लेते रहना !
इच्छा हुई है आज
कि प्रेम करूँ गरमा गरम
इस बीमार लड़्की के चेहरे सी पृथ्वी को
पीते हुए उस के अंतस की मीठी भाप
बचा लूँ आँख भर उस की ज़िन्दा उजास
इस से पहले कि कोई खींच ले जाए
अज्ञात नक्षत्रों के ठण्डे बियावानों में उसे
छू लूँ मिट्टी की खुश्बू दार त्वचा उसकी
और पूछ लूँ उसी से
कि इन छिटपुट चाहतों से बढ़ कर भला
क्या है कोई रिश्ता
पूरी ज़िन्दगी में --
चाहे वह पृथ्वी हो
अथवा कोई भी प्रेमिका 
 
चन्द्रताल पर फ़ुल मून पार्टी::
(जिमी हैंड्रिक्स और स्नोवा बार्नो के लिए )  

इस कुँआरी झील में झाँको
किनारे किनारे कंकरों के साथ खनकती
तारों की रेज़गारी सुनो
लहरों पर तैरता आ रहा
किश्तों में चांद
छलकता थपोरियां बजाता
तलुओं और टखनों पर
पानी में घुल रही
सैंकडों अनाम खनिजों की तासीर
सैंकडों छिपी हुई वनस्पतियाँ
महक रही हवा में
महसूस करो
वह शीतल विरल वनैली छुअन...
कहो
कह ही डालो
वह सब से कठिन कनकनी बात
पच्चीस हज़ार वॉट की धुन पर
दरकते पहाड़
चटकते पठार
रो लो
नाच लो
जी लो
आज तुम मालामाल हो
पहुँच जाएंगी यहाँ
कल को
वही सब बेहूदी पाबंदियाँ !
                                                    

भोजवन में पतझड़::

मौसम में घुल गया है शीत
बेशरम ऎयार
छीन रहा वादियों की हरी चुनरी
लजाती ढलानें
हो रही संतरी
फिर पीली
और भूरी
मटमैला धूसर आकाश
नदी पारदर्शी
संकरी !
काँप कर सिहर उठी सहसा
कुछ आखिरी बदरंग पत्तियाँ
शाख से छूट उड़ी सकुचाती
खिड़की की काँच पर
चिपक गई एकाध !
दरवाजे की झिर्रियों से
सेंध मारता
वह आखिरी अक्तूबर का
बदमज़ा अहसास
ज़बरन लिपट गया मुझसे !
लेटी रहेगी अगले मौसम तक
एक लम्बी
सर्द
सफ़ेद
मुर्दा
लिहाफ़ के नीचे
एक कुनकुनी उम्मीद
कि कोंपले फूटेंगी
और लौटेगी
भोजवन में ज़िन्दगी ।
 
 इस उठान के बाद नदी::
इस नदी को देखने के
लिए आप इसके एक दम करीब जाएँ।
घिस-घिस कर कैसे कठोर हुए हैं और सुन्दर
कितने ही रंग और बनक लिए पत्थर।

उतरती रही होगीं
पिछली कितनी ही उठानों पर
भुरभुरी पोशाकें इन की
कि गुमसुम धूप खा रही
चमकीली नंगी चट्टानें
उकड़ूँ ध्यान-मगन
और पसरी हुई कोई ठाठ से
आज जग उतर चुका है पानी।

अलग-अलग बिछे हुए
पेड़
मवेशी
कनस्तर
डिब्बे
लत्ते
ढेले
कंकर
रेत.............

कि नदी के बाहर भी बह रही थीं
कुछ नदियाँ शायद
उन्हें करीब से देखने की ज़रूरत थी।

कुछ बच्चे मालामाल हो गए अचानक
खंगालते हुए
लदे-फदे ताज़ा कटे कछार
अच्छी तरह से ठोक- ठुड़क कर छाँट लेते हर दिन
पूरा एक खज़ाना
तुम चुन लो अपना एक शंकर
और मुट्ठी भर उसके गण
मैं कोई बुद्ध देखता हूँ अपने लिए
हो सके तो सधे पैरों वाला
एकाध अनुगामी श्रमण
और खेलेंगे भगवान-भगवान दिन भर।

ठूँस लें अपनी जेबों में आप भी
ये जो बिखरी हुई हैं नैमतें
शाम घिरने से पहले वरना
वो जो नदी के बाहर है
पानी के अलावा
जिसकी अलग ही एक हरारत है
गुपचुप बहा ले जाएगा
अपनी बिछाई हुई चीज़ें
आने वाले किसी भी अंधेरे में
आप आएँ
देख लें इस भरी पूरी नदी को
यहां एक दम करीब आकर।


 
 

7 टिप्‍पणियां:

  1. तुम चुन लो अपना एक शंकर
    और मुट्ठी भर उसके गण
    मैं कोई बुद्ध देखता हूँ अपने लिए...

    हमेशा की तरह सुखकर!

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  2. इस से पहले कि कोई खींच ले जाए
    अज्ञात नक्षत्रों के ठण्डे बियावानों में उसे
    छू लूँ मिट्टी की खुश्बू दार त्वचा उसकी
    और पूछ लूँ उसी से
    कि इन छिटपुट चाहतों से बढ़ कर भला
    क्या है कोई रिश्ता anootha prem ka aahvaan ..
    full moon party me ek sammohan kheenchta hai..
    किनारे किनारे कंकरों के साथ खनकती
    तारों की रेज़गारी सुनो..

    aur adbhut chitran..
    बेशरम ऎयार
    छीन रहा वादियों की हरी चुनरी
    लजाती ढलानें
    हो रही संतरी
    फिर पीली
    और भूरी
    मटमैला धूसर आकाश
    नदी पारदर्शी
    संकरी !
    aur phir..
    तुम चुन लो अपना एक शंकर
    और मुट्ठी भर उसके गण
    itni sundar. mohak. anoothi kavitaaye. naman.

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  3. धन्य वाद ! आप सब ने ने मेरी इन उपेक्षित रचनाओं को गम्भीरता से पढ़ा !

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  4. अजय दादा, एक एक कविता चबा के पढ़ी है ...और सच कहूँ तो अभी पेट नहीं भरा ..!
    शायद कई बार पढ़ूँ !
    कई कई बार ..!

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