प्रेमचंद गाँधी ::




























मम्‍मो::

क्‍या तुमने अपने बच्‍चों की हंसी में

कभी अपनी हंसी देखी है

या उनकी जिद में

मेरी जैसी जिद देखी है

ये जिद भी क्‍या चीज़ है मम्‍मो

तुम्‍हारी जिद में मैं

और मेरी जिद में तुम

दोनों परेशान होते थे

अपने बच्‍चों की जिद में

परेशान होतीं तुम

क्‍या तुम्‍हें मेरी जिद भी कभी

याद आती है

हम दोनों की थीं जो साझा जिद

उन्‍हें हम बच्‍चों के मार्फत

पूरा कर रहे हैं मम्‍मो।



याद::

यह याद... यह स्‍मृति

क्‍योंकर चली आती है

मेरे पीछे आहिस्‍ता-आहिस्‍ता

जिसे भूलने में बीस बरस भी कम लगें

वो याद क्‍यूं चली आती है

बीती हुई शाम की तरह चुपचाप

हौले-हौले

जैसे ठण्‍डे मक्‍खन में उतरता है

कोई गुनगुना चाकू

आहिस्‍ता-आहिस्‍ता

नहीं-नहीं समय

कभी कम नहीं करता घावों का ज़ख्‍मी अहसास

घावों की तासीर बढा देता है वक्‍त

आहिस्‍ता...आहिस्‍ता

तुम्‍हारी याद के ज़ख्‍म अब भी हरे हैं

तुम्‍हारे छूट चुके आंगन की तुलसी की तरह

क्‍या तुम्‍हें वो चांदनी रात और

छत का नज़ारा याद है

जब तुम पहली बार

बड़े-बड़े फूलों वाली

नीली साड़ी पहनकर आई थीं

और मैं हैरत से देख रहा था

कभी नीला आकाश

कभी तुम्‍हारा नीला रूप...। 



एक दुआ::

पवन

ज़रा धीरे बहो

बादलों हट जाओ

आने दो पूनम के चांद की पूरी रोशनी

सितारों थोड़ा और चमको

मैं अपने महबूब के

ख़त पढ़ रहा हूं

चांदनी रात में

माहताब को देखते हुए

ख़ुतूते मुहब्‍बत पढ़ना

हयात-ए-इश्‍क़ में कुरानख्‍वानी है। 



इक बाल::

ना जाने किसका है यह

नर्म, रेशमी, लंबा-सुनहरा बाल

जो होटल के इस कंबल में

मेरे चेहरे और कपड़ों में उलझ गया है

बहुत आहिस्‍ता से सुलझाया है मैंने इसे

ताकि टूटे नहीं

एक बार टूटे हुए को

फिर से तोड़ना

कोई अच्‍छी बात नहीं

इस बाल की रंगत और खुश्‍बू बताती है

ज़रूर यह किसी नई-नवेली दुल्‍हन का होगा

तो क्‍या यह कंबल

एक प्रेम का साक्षी रहा है

इस सर्द सुबह में

एक अकेले पुरुष को

कितना गर्म अहसास दे गया है

यह खूबसूरत बाल

इस बाल का इकबाल बुलंद रहे

इस बाल वाली दुल्‍हन की मुहब्‍बत बुलंद रहे।



मेरा सूरज::

रोज़ शाम उगता है सूरज

मेरी आंखों के सामने

दिन भर की थकान के बाद

जब जवाब दे जाता है

शरीर का पोर-पोर

तुम्‍हारी मुस्‍कान की

यह कभी ना खत्‍म होने वाली कौंध

जगा देती है तमाम इंद्रियां

दुनिया के लिए उगता होगा

अलस्‍सुबह पूरब में सूरज

मेरे लिए तो

तुम्‍हारे माथे पर चमकती

बिंदिया की शक्‍ल में नुमायां होता है।





लौट आना तुम्‍हारा::
थार के टीलों ने जैसे

बरसों बाद किया हो

सावन की बूंदों का आचमन

लंबे वक्‍त तक कैद रहे

परकटे परिंदे को जैसे

अचानक कर दिया गया हो आजाद

और भूलकर परवाज परिंदा

गाने लगा हो लोरी जैसा कोई गीत

आकाश मार्ग से जैसे

नीले समंदर को मिल गई हों

अपनी बिछुड़ी बूंदें वापस

इन तीन उपमाओं से पहले

एक आश्‍चर्य की तरह घटी क्रिया

उस विशेषण में बदल गई

जिसमें वाक्‍य और अर्थ खो जाते हैं

‘लौटकर आना’ जैसी सहज क्रिया ने

कम कर दिया सूरज का ताप

बढ़ा दी वृक्षों में हरियाली

रातों में चांदनी

7 टिप्‍पणियां:

  1. अलग-अलग भाव एक साथ पि‍रोकर आपने तो खूबसूरत हार बना दि‍या। अच्‍छी प्रस्‍तुति। बधाई।

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  2. गुलाबी मौसम में बहुत ही सुंदर फूल खिले हैं.....सभी कवितायेँ प्रेम में पगी हुई हैं और मन को छू जाती है.......प्रेमचंदजी और अपर्णा दी दोनों को बधाई...........

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  3. एक अकेले पुरुष को

    कितना गर्म अहसास दे गया है

    यह खूबसूरत बाल

    इस बाल का इकबाल बुलंद रहे

    इस बाल वाली दुल्‍हन की मुहब्‍बत बुलंद रहे।....प्रेम के धागे से बुनी ....हुई सुंदर रचनाएँ.... बधाई प्रेमचन्द जी... आभार अपर्णा...

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  4. हर कविता ने अपनी ज़मीन पर अपने भावपुष्प को हवा दी है,पानी दिया है इसीलिए कवितायेँ खिल उठी हैं!अच्छी कवितायेँ !

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  5. खूबसूरत कवितायेँ ! बधाई...........

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