मोनिका कुमार ::

 
 
 
 
 
 
 
 
 
१ 
ब्रैड पे उगी फफूंद
चुपचाप का पेड़ है
जिसकी जड़े इसके फूलों में है
और फूल बीज के भीतर
इसे सीरतें प्यारी हैं सूरतों से
फफूंद की गंध
हठ की गंध है
जो किसी भी तरह पूरा होना चाहती है
फफूंद की गंध तड़प की गंध है
जो लिफाफे से आज़ादी चाहती है

दीमक फरिश्ते हैं
जो अलमारी से उसकी आखिरी ख्वाइश पूछते हैं
शहर की धुआंसी हवा
हमारी देहों पर उगी फफूंद की फूंक है
हमारी देहों की फफूंद
हमारी चुपचाप का पेड़ है
उन चुटकियों का रोस है जो हमने नहीं बजाई
उस गूँज की निराशा जिसे तालियाँ चाहिए थीं
देह पर उगती फफूंद से घिन्न होती है जिन्हें
उन्हें आइनों से भी चिढ़ होती है
२.
ताप जो पाप की तरह चढ़ा
प्रेम की भांति जिस्म को जकड़ लेता है
ज्वर लहू का जनून है
आततायी है
जो अपनी ही गति को कूटना चाहता है
अपनी ऊष्मा की हद देखना चाहता है
लालाई का बल परखता है

देह एकल द्वीप है
मृत्यु से अपराजित
मृत्यु के जल से घिरी हुई
मृत्यु से मिलन को अधीर
ज्वर मृत्यु का अभ्यास है
ज्वर से लड़ना जिंदगी का
ज्वर से बचना सिखाया जाता है
जैसे जिंदगी से
लहू की लालाई पे भरोसा भी न करो
औषधियों का रस्ता भी ताको
मृत्यु से पराजित भी रहो

ज्वर देह का निकटतम धार्मिक अनुभव है
इसीलिए भीषण है
भयानक है
३.
दिन का चढ़ा आधी रात तक उतरता है
अहिस्ता उतरती है रात दिन की सीढ़ियों से
और गुज़रा हुआ दिन टूटे हुए फूल की तरह
बिछ जाता है
इसी पहर उस फूल को किताब में रख के
आईने की तरह पढ़ती हूँ
रात दिन को विस्मृत करती है
दिन रात को रहने नहीं देता
दोपहर की अलसाई नींद
खुलते ही अवसाद करती है
जैसे नींद रात की धरोहर हो
जिसे दिन में लूट लिया जाये
दिन जैसा कुछ भी करना रात के एकांत को कष्ट देता है
रात में लिखी चिठ्ठी पढ़तुम को रात ही में पढ़नी चाहिए
लेकिन फिर भी चिठ्ठी खुलती है सिखर दोपहर
और पढ़तुम को ठीक समझ आती है
कवियों को लिखने चाहिए अपने राग के समय
कविता के भीतर जो बारिश है
उस में भीगने के लिए कब हाथ उठने चाहिए
फिर भी कभी आप दिन में झुलस रहे हों
तो किसी बारिश सी कविता को याद किया कीजे
दिन और रात की संसृति में
मनचाहा मौसम है
जिन्हें आती है यह जादुगरियां
वोह दिन में भी अपनी हर सांस सुनते हैं
और रात में दोपहर-खिड़ी से खिलते हैं
४.
जंग लगना लोहे की लोहे से आसक्ति है
जैसे रेशम की शाल का पड़े पड़े घिस जाना
सब नाज़ुक सब कड़क टूटने पे अमादा है
फिर भी जंग टूटने का सुंदर ढंग है
पीस डालो खुद को कि बीच से रंग उतर आए
इतना धैर्य कि मन में छेद हो जाए
लोहे को सिर्फ दूसरा लोहा नहीं काटता
उसका अपना लोहा भी काटता है

रेशम के कीड़े शाल में छुपे रहते हैं
धैर्य से टूटते रहते हैं
गेहूं के अंदर ही है घुन
मटर की आज्ञा है कि उसे सुंडिया खा जाएँ
गुड़ चाहता है उसे रातो रात मक्खियाँ खा जाए
और उनमें भिनभिनाने की ताकत भर दे

कौए चाहते हैं वोह उड़ते निसंग उड़ते हुए पकड़े जायें
पोखर पे उगे फूल चाहते हैं
कुछ बालक राह भटक यहाँ आ जायें

मार्क्स की मूंछ से बाल गिर रहें हैं
जहाँ बाल गिरता है
श्रमिक पौधा लगा देते हैं
यह भी टूटने का सुंदर ढंग है

और प्रार्थना की यह कैसी विकृति
हाथ बंद हैं कि दिल जुड़ा रहे
दिल खुल के कह रहा है दिल टूट जाये
इस दिल में भरा पड़ा है कांच
पर यह टूटने का कैसा ढंग है
५.
इस ऊब भरी शाम में
वोह सब जो उत्साह से साथ जुड़ता है
कर्कश लगता है
अच्छा खाने की सलाह मत दें
स्वाद ऊब का बैरी है
वायलन सारंगी बांसुरी से कान गिर रहें है
अच्छा संगीत भी ऊब की महिमा को कम करता है

नल से बहता बेतुका पानी ऊब का सुंदर अनुवाद है
घड़ी की टिक टिक आपको सावधान नहीं कर रही
असल में उसे आपसे कोई मतलब नहीं
कंप्यूटर के पंखे से निकलती हवा
आपका साथ दे रही है निस्वार्थ
बिल्ली का दिखना शुभ संकेत है
आप सुबह तक इस ऊब के साथ रह सकते हैं
फिर कोई भरोसा नहीं
आप पर क्या गुज़रे
कौन कब कैसे
आपकी ऊब को आहत कर दे
और आप तुरंत उठकर नल बंद कर दें
अपनी अलमारी सजाना शुरू कर दें

अगर आप किसी दोस्त से कहेंगे
कि आप ऊब से खुश हैं
और बिल्ली को थप्पड़ नहीं दिखाते
छिपकली से घिन्न नहीं करते
हालाकि प्यार भी नहीं करते
तो वोह आपसे इर्ष्या करने लगेगा
उसी समय आपकी ऊब को खत्म करना चाहेगा
अपनी ऊब को बचा कर रखिये
यह हरदम संकट में है

ऊब की शाम
मेरा मन आराम करता है
जिस्म नींद पूरी करता है बिना किसी ढोंग लगावट
मेरे हाथ धन्यवाद देते है एक दुसरे को
पैर इक दुसरे का सफर निकाल देते हैं
और प्रार्थना करते हैं
जो जैसा है
कुछ देर बना रहे
६.
बीच से शुरू करते हैं
तुम मेरी दोपहर के बारे पूछो
जून जुलाई की सुस्ती की बात करो
मेरी १७ साल की उम्र के दुःख पूछो

मुझे तिरक्ष के सबसे गुमनाम बिंदु पे मिलो
इसी अक्षांश पे मैं निर्भय सोती हूँ
किनारों की कल्पना व्याकुलता है
मेरी प्रार्थना में पार लगने की गुहार नहीं

पेड़ की जड़ और फल में महा प्रयोजन है
मैं मध्य में चुपचाप तुम्हारी राह ताकुंगी
उस छाल के संग
जिसे तुम सबसे चोरी बड़े ईमान से गले मिलते हो

मुझे तुम्हारे बालों के उगने की स्मृति नहीं
मुझे तुम्हारे पहले सफेद बाल खूब याद हैं
जो उस बीच उगे जब हम अपने नाम भूल रहे थे

मैं अब बीच से किताबें पढ़ने लगी हूँ
बीच से अंत पढ़ती हूँ
अंत से आरंभ
और फिर प्राक्कथन
केवल यही तरीका ढूँढ पाई हूँ
किताब को पूरा पढ़ने का

मुझे बीच का निवाला खिलाना
न पहला जिसे तुम निगल जाते हो
न आखरी जो आसक्ति से भर जाता है
मुझे बीच का निवाला खिलाना
जिसे तुम सबसे लापरवाही से बामौज खाते हो
७.

वृत का अर्धव्यास तय कर रहा है
वृत के फैलने की सीमा
केंद्र से हर बिंदु उतना ही दूर सुदूर
तुम्हारा एक पांव कम्पास की सुई है
जो दुसरे पांव के गिर्द घेरे बुनता है
सुई गोद्ती रहती है हर वक़्त ज़मीन को
तुम फिसलते हो इस गोलाई से बाहर जाने के लिए
और तुरंत उठ खड़े हो जाते हो फैसला बदलकर

तुम्हारी बाजुएँ आकाश नापती है
और पांव धरती
तुम्हारे और अनगिनित दायरे हैं
इसीलिए मैं सबसे पहले तुम्हारे पांव चूमती हूँ
तुम्हारी बाजुएँ अब तक कितना नाप चुकी ?

तुम्हारे नाखून थक गये हैं
इनकी सख्ती बेवजह तो नहीं
इनका टूट जाना दुःख है
तुम्हारे पोरों की छतरी हैं यह नाखून
मुझे इनसे बेहद प्यार है

तुम्हे जो शब्द भाता है
उसे नाखून में छुपा लेते हो
लिखते हो तो वे शब्द बहने लगते हैं
दिल से साहस रिसता है संग संग

नाखून टूटना दुःख है
तुम्हारे नाखून तुम्हारी यात्रा के स्तम्भ है
इनकी सख्ती तुम्हारे सबसे करीब शब्दों का कवच है
तुम्हारे नाखून तुम्हारे दिल से भी कोमल हैं

अपने पांव से कह दो कि धरती अहिस्ता नापे
और बाजुएँ ध्यान से आकाश घेरें
मुझे तुम्हारे नाखूनों से बेहद प्यार है



22 टिप्‍पणियां:

  1. दी !बिल्कुल नया आस्वादन ,आभार !!!

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  2. jitni khoosurat surat aapko nawazi h khuda ne us se bhi sunder h aapki kavitaye....badhai

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  3. etnee sundar kaviteyn sirf monika hee leekh saktee hain badhai monika

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  4. bhawnaao ki abhiwaykti ka ek alag ki tarika , bahut khooburat laga

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  5. "दीमक फरिश्ते हैं
    जो अलमारी से उसकी आखिरी ख्वाइश पूछते हैं
    शहर की धुआंसी हवा
    हमारी देहों पर उगी फफूंद की फूंक है..."

    "मैं अब बीच से किताबें पढ़ने लगी हूँ
    बीच से अंत पढ़ती हूँ
    अंत से आरंभ
    और फिर प्राक्कथन
    केवल यही तरीका ढूँढ पाई हूँ
    किताब को पूरा पढ़ने का..."

    "तुम्हारी बाजुएँ आकाश नापती है
    और पांव धरती
    तुम्हारे और अनगिनित दायरे हैं
    इसीलिए मैं सबसे पहले तुम्हारे पांव चूमती हूँ
    तुम्हारी बाजुएँ अब तक कितना नाप चुकी ?" अच्छी कविताएं हैं. अंतर्वस्तु और शैली, दोनों के लिहाज़ से. अच्छी कविताएं उलझन में भी डालती हैं, इस मायने में कि ध्यान से पढ़ने पर भी तय करना मुश्किल हो जाता है कि किन पंक्तियों को रेखांकित किया जाए.

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  6. "कवियों को लिखने चाहिए अपने राग के समय/ कविता के भीतर जो बारिश है/ उस में भीगने के लिए कब हाथ उठने चाहिए/ फिर भी कभी आप दिन में झुलस रहे हों/ तो किसी बारिश सी कविता को याद किया कीजे/ दिन और रात की संसृति में/ मनचाहा मौसम है" जीवन-जगत की उन तमाम विषम और विडंबनापूर्ण हलचलों को जो कविता इतनी बारीकी से अपने भीतर सहेज लेती हो और किसी वाद्य-वृन्‍द सरीखी अनुगूंज के बीच आपको विस्मित-सा छोड़ जाती हो, उस कविता के असर से बच पाना सहज तो नहीं। अपनी अन्‍तर्वस्‍तु में जितनी वैविद्यमय हैं ये कविताएं उतनी ही अपने भाषिक संवेदन और शिल्‍प में अनूठी भी। मोनिकाजी को बधाई और अपर्णाजी को आभार, कि ऐसी कविताओं से रूबरू होने का अवसर दिया।

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  7. "कवियों को लिखने चाहिए अपने राग के समय/ कविता के भीतर जो बारिश है/ उस में भीगने के लिए कब हाथ उठने चाहिए/ फिर भी कभी आप दिन में झुलस रहे हों/ तो किसी बारिश सी कविता को याद किया कीजे/ दिन और रात की संसृति में/ मनचाहा मौसम है" जीवन-जगत की उन तमाम विषम और विडंबनापूर्ण हलचलों को जो कविता इतनी बारीकी से अपने भीतर सहेज लेती हो और किसी वाद्य-वृन्‍द सरीखी अनुगूंज के बीच आपको विस्मित-सा छोड़ जाती हो, उस कविता के असर से बच पाना सहज तो नहीं। अपनी अन्‍तर्वस्‍तु में जितनी वैविद्यमय हैं ये कविताएं उतनी ही अपने भाषिक संवेदन और शिल्‍प में अनूठी भी। मोनिकाजी को बधाई और अपर्णाजी को आभार, कि ऐसी कविताओं से रूबरू होने का अवसर दिया।

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  8. ‎"कवियों को लिखने चाहिए अपने राग के समय/ कविता के भीतर जो बारिश है/ उस में भीगने के लिए कब हाथ उठने चाहिए/ फिर भी कभी आप दिन में झुलस रहे हों/ तो किसी बारिश सी कविता को याद किया कीजे/ दिन और रात की संसृति में/ मनचाहा मौसम है" जीवन-जगत की उन तमाम विषम और विडंबनापूर्ण हलचलों को जो कविता इतनी बारीकी से अपने भीतर सहेज लेती हो और किसी वाद्य-वृन्‍द सरीखी अनुगूंज के बीच आपको विस्मित-सा छोड़ जाती हो, उस कविता के असर से बच पाना सहज तो नहीं। अपनी अन्‍तर्वस्‍तु में जितनी वैविद्यमय हैं ये कविताएं उतनी ही अपने भाषिक संवेदन और शिल्‍प में अनूठी भी। मोनिकाजी को बधाई और अपर्णाजी को आभार, कि ऐसी कविताओं से रूबरू होने का अवसर दिया।

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  9. ‎"कवियों को लिखने चाहिए अपने राग के समय/ कविता के भीतर जो बारिश है/ उस में भीगने के लिए कब हाथ उठने चाहिए/ फिर भी कभी आप दिन में झुलस रहे हों/ तो किसी बारिश सी कविता को याद किया कीजे/ दिन और रात की संसृति में/ मनचाहा मौसम है" जीवन-जगत की उन तमाम विषम और विडंबनापूर्ण हलचलों को जो कविता इतनी बारीकी से अपने भीतर सहेज लेती हो और किसी वाद्य-वृन्‍द सरीखी अनुगूंज के बीच आपको विस्मित-सा छोड़ जाती हो, उस कविता के असर से बच पाना सहज तो नहीं। अपनी अन्‍तर्वस्‍तु में जितनी वैविद्यमय हैं ये कविताएं उतनी ही अपने भाषिक संवेदन और शिल्‍प में अनूठी भी। मोनिकाजी को बधाई और अपर्णाजी को आभार, कि ऐसी कविताओं से रूबरू होने का अवसर दिया।

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  10. कविताओं की ताजआकगी र्षित करती है। लेकिन सबसे अच्छी बात ये कि शब्दों और बिंबों के बीच बहुत कुछ साफ-साफ दिखता है, जो हमरा जीवन है। हमरा रहना-सहना है। बहुत-बहुत बधाई.....

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  11. कविताओं की ताजगी आकर्षित करती है। लेकिन सबसे अच्छी बात ये कि शब्दों और बिंबों के बीच बहुत कुछ साफ-साफ दिखता है। जो हमारा जीवन है। हमारा रहना-सहना है। बहुत-बहुत बधाई.....

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  12. अचूक

    लगता है डर जिनको,
    चढ़ते सूरज से,
    करते है कोशिश वो ,
    ढांपने की उसको,
    ... मुह से निकट धुएं से,
    भूल जाते है,
    तम कभी जीता नहीं,
    उजाले से ।


    साहस मोहताज नहीं,
    किसी चाबी का,
    आत्म मंथन से,
    पहचान ख़ुद को,
    नहीं मरीचिका को देख,
    लक्ष्य भेद,
    यही कर्म है ,
    सार जीवन का ।


    फूल भी मिल जायेंगे,
    पर काँटों को पहचान,
    आस्था रख ख़ुद पर,
    लक्ष्य को पहचान,
    वार कर अचूक,
    पायेगा सब कुछ,
    अगर विश्वास है स्वयं पर ।
    http://pkvermaspoems.blogspot.in/2009/01/blog-post.html#!/2009/01/blog-post.html

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  13. बहुत अच्छी कवितायेँ ........ नए तेवर की .......लेकिन सिर्फ नए तेवर की ही नहीं बल्कि बहुत कुछ नया लिए हुए |

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