ज्ञानेंद्रपति ::

















चेतना पारीक कैसी हो ?


चेतना पारीक कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
कुछ-कुछ खुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो ?
अब भी कविता लिखती हो ?


तुम्हे मेरी याद न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी कद-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है


चेतना पारीक, कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग ?
नाटक में अब भी लेती हो भाग ?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर ?
मुझ-से घुमंतू कवि से होती है टक्कर ?
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र ?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र ?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो ?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो ?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो ?
उतनी ही हरी हो ?


उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है


इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह खाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कंठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है


फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ
आदमियों को किताबों को निरखता लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है


चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो ?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो ?


वे दो दाँत-तनिक बड़े


वे दो दाँत-तनिक बड़े
जुड़वाँ सहोदरों-से
अन्दर-नहीं, सुन्दर
पूर्णचन्द्र-से सम्पूर्ण
होंठों के बादली कपाट
जिन्हें हमेशा मूँदना चाहते
और कभी पूरा नहीं मूँद पाते
हास्य को देते उज्ज्वल आभा
मुस्कान को देते गुलाबी लज्जा
लज्जा को देते अभिनव सौन्दर्य
वह कालिदास की शिखरिदशना श्यामा नहीं-
अलकापुरीवासिनी
लेकिन हाँ, साँवली गाढ़ी
गली पिपलानी कटरा की मंजू श्रीवास्तव
हेड क्लर्क वाई. एन. श्रीवास्तव की मँझली कन्या
जिसकी एक मात्र पहचान-नहीं, मैट्रिकुलेशन का प्रमाणपत्र-नहीं
न होमसाइंस का डिप्लोमा
न सीना-पिरोना, न काढ़ना-उकेरना
न तो जिसका गाना ग़ज़लें, पढ़ना उपन्यास-
वह सब कुछ नहीं
बस, वे दो दाँत-तनिक बड़े
सदैव दुनिया को निहारते एक उजली उत्सुकता से
दृष्टि-वृष्टियों से धुँधले ससंकोच
दृष्टियाँ जो हों दुष्ट तो भी पास पहुँचकर
कौतुल में निर्मल हो आती हैं


वे दो दाँत-तनिक बड़े
डेंटिस्ट की नहीं, एक चिन्ता की रेतियों से रेते जाते हैं
एकान्त में खुद को आईने में निरखते हैं चोर नज़रों से
विचारते हैं कि वे एक साँवले चेहरे पर जड़े हैं
कि छुटकी बहन के ब्याह के रास्ते में खड़े हैं
वे काँटे हैं गोखुरू हैं, कीलें हैं
वे चाहते हैं दूध बनकर बह जायें
शिशुओं की कण्ठनलिकाओं में
वे चाहते हैं पिघल जायें,
रात छत पर सोये, तारों के चुम्बनों में


रात के डुबाँव जल में डूबे हुए
वे दो दाँत-तनिक बड़े-दो बाँहों की तरह बढ़े हुए
धरती की तरह प्रेम से और पीड़ा से
फटती छातीवाले-
जिस दृढ़-दन्त वराहावतार की प्रतीक्षा में हैं
वह कब आयेगा उबारनहार
गली पिपलानी कटरा के मकान नम्बर इकहत्तर में
शहर के बोर्डों-होर्डिंगों पोस्टरों-विज्ञापनों से पटे
भूलभुलैया पथों
और व्यस्त चौराहों और सौन्दर्य के चालू मानदण्डों को
लाँघता
आयेगा न ?
कभी तो !

2 टिप्‍पणियां:

  1. इन रचनाओं की सराहना में शब्द फीके पड़ जाते हैं. बहुत दिनों बाद इतनी सुन्दर कवितायेँ पढने को मिलीं. ऐसे विषयों पर भी इतनी सुन्दर कविता लिखी जा सकती है, यही सबसे प्रशंसनीय हैl

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  2. चेतना पारीक, तुम सच मुच कमाल की रही होगीं.....

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