अशोक कुमार पाण्डेय ::
















मै चाहता हूं

मै चाहता हूं
एक दिन आओ तुम
इस तरह
कि जैसे यूं ही आ जाती है ओस की बूंद
किसी उदास पीले पत्ते पर
और थिरकती रहती है देर तक

मै चाहता हूं
एक दिन आओ तुम
जैसे यूं ही
किसी सुबह की पहली अंगड़ाई के साथ
होठों पर आ जाता है
वर्षों पहले सुना कोई सादा सा गीत
और पहले चुम्बन के स्वाद सा
चिपका रहता है देर तक

मै चाहता हूं
एक दिन यूं ही
पुकारो तुम मेरा नाम
जैसे शब्दों से खेलते- खेलते
कोई बच्चा रच देता है पहली कविता
और फिर
गुनगुनाता रहता है बेख्याली में

मै चाहता हूं
यूं ही किसी दिन
ढूंढ़ते  हुए कुछ और
तुम ढूंढ़ लो मेरा कोई पुराना -सा ख़त
और उदास हो जाने के पहले
मुसकराती रहो देर तक

मै चाहता हूं
यूं ही कभी आ बैठो तुम
उस पुराने रेस्तरां की कोने वाली सीट पर
और सिर्फ़ एक कॉफ़ी  मंगाकर
दोनो हाथों से पियो बारी बारी

मै चाहता हूं
इस तेज़ी से भागती समय की गाड़ी के लिये
कुछ मासूम से कस्बाई स्टेशन  !


तुम्हे प्रेम करते हुए अहर्निश

तुम्हे प्रेम करते हुए अहर्निश
गुज़र जाना चाहता हूं
सारे देश  देशान्तरों से
पार कर लेना चाहता हूं
नदियां, पहाड़ और महासागर सभी
जान लेना चाहता हूं
शब्दों के सारे आयाम
ध्वनियों की सारी आवृतियां
दृश्य के सारे चमत्कार
अदृश्य  के सारे रहस्य.

तुम्हे प्रेम करते हुए अहर्निश
इस तरह चाहता हूं तुम्हारा साथ
जैसे वीणा के साथ उंगलियां प्रवीण
जैसे शब्द के साथ संदर्भ
जैसे गीत के साथ स्वर
जैसे रूदन के साथ अश्रु
जैसे गहन अंधकार के साथ उम्मीद
और जैसे हर हार के साथ मज़बूत होती ज़िद

बस महसूसते हुए तुम्हारा साथ
साझा करता तुम्हारी आंखों से स्वप्न
पैरो से मिलाता पदचाप
और साथ साथ गाता हुआ मुक्तिगान
तोड़ देना चाहता हूं सारे बन्ध

तुम्हे प्रेम करते हुए अहर्निश
ख़ुद से षुरू करना चाहता हूं
संघर्षों  का सिलसिला
और जीत लेना चाहता हूं
ख़ुद को तुम्हारे लिये।


मत करना विश्वास

मत करना विश्वास
अगर रात के मायावी अंधकार में
उत्तेजना से थरथराते होठों से
किसी जादूई भाषा में कहूं
सिर्फ तुम्हारा हूं मै

मत करना विश्वास
अगर सफलता के श्रेष्ठतम पुरस्कार को
फूलों की तरह सजाता हुआ तुम्हारे जूड़े में
उत्साह से लड़खड़ाती भाषा में कहूं
सब तुम्हारा ही तो है

मत करना विश्वास
अगर लौटकर किसी लम्बी यात्रा से
बेतहाशा चूमते हुये तुम्हें
एक परिचित सी भाषा में कहूं
सिर्फ तुम ही आती रही स्वप्न में हर रात

हालांकि सच है यह
कि विश्वास ही तो था वह तिनका
जिसके सहारे पार किये हमने
दुःख और अभावों के अनन्त महासागर
लेकिन फिर भी पूछती रहना गाहे ब गाहे
किसका फ़ोन था कि मुस्कुरा रहे थे इस क़दर?
पलटती रहना यूंही कभी कभार मेरी पासबुक
करती रहना दाल में नमक जितना अविश्वास

हंसो मत
ज़रूरी है यह
विश्वास  करो
तुम्हे खोना नहीं चाहता मैं .

16 टिप्‍पणियां:

  1. '...मै चाहता हूं
    एक दिन यूं ही
    पुकारो तुम मेरा नाम
    जैसे शब्दों से खेलते- खेलते
    कोई बच्चा रच देता है पहली कविता
    और फिर
    गुनगुनाता रहता है बेख्याली में...'

    प्रेमिल...

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  2. मै चाहता हूं
    यूं ही किसी दिन
    ढूंढ़ते हुए कुछ और
    तुम ढूंढ़ लो मेरा कोई पुराना -सा ख़त
    और उदास हो जाने के पहले
    मुसकराती रहो देर तक........

    दिल में उतर गईं ये पंक्तियाँ !

    तुम्हे प्रेम करते हुए अहर्निश
    ख़ुद से शुरू करना चाहता हूं
    संघर्षों का सिलसिला
    और जीत लेना चाहता हूं
    ख़ुद को तुम्हारे लिये।

    जीत ही लेंगे बाज़ी हम-तुम
    खेल अधूरा छूटे ना........


    हंसो मत
    ज़रूरी है यह
    विश्वास करो
    तुम्हे खोना नहीं चाहता !

    "थोडा सा अविश्वास रखो -
    कि मैं यह जानता रहूँ ,
    कि तुम मुझे प्यार करती हो,
    और खोना नहीं चाहतीं !'

    उफ़ !! कितना तेज़ नशा है इस शराब का ,
    जो इन बोतलों में भरा है .............
    मुझे चढ़ गयी !

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  3. मै चाहता हूं
    एक दिन यूं ही
    पुकारो तुम मेरा नाम
    जैसे शब्दों से खेलते- खेलते
    कोई बच्चा रच देता है पहली कविता
    और फिर
    गुनगुनाता रहता है बेख्याली में

    मै चाहता हूं
    यूं ही किसी दिन
    ढूंढ़ते हुए कुछ और
    तुम ढूंढ़ लो मेरा कोई पुराना -सा ख़त
    और उदास हो जाने के पहले
    मुसकराती रहो देर तक

    बहुत ही खूबसूरत अनुभूति है अशोक भाई.

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  4. आपका साथ, साथ फूलों का ...
    फिर भी ऐसा क्यों हैं.......

    यूं ही किसी दिन
    ढूंढ़ते हुए कुछ और
    तुम ढूंढ़ लो मेरा कोई पुराना -सा ख़त
    और उदास हो जाने के पहले
    मुसकराती रहो देर तक.....

    कुछ ख़ास सी

    तुम्हे प्रेम करते हुए अहर्निश
    ख़ुद से षुरू करना चाहता हूं
    संघर्षों का सिलसिला
    और जीत लेना चाहता हूं
    ख़ुद को तुम्हारे लिये।

    सच ही कहा हैं किसी ने कैसा नशा हैं इस शराब
    का चढ़ गया मेरे दिमाग पर
    एक खुशबु बस गयी हैं...

    आज थोड़ी से हुई हैं दिन की शुरुआत पर बेहद खुबसूरत रही......
    बहुत बहुत धन्यवाद अपर्णा दी

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  5. अंतर को स्पर्श करती बेहद ही कोमल भावों से युक्त कब्यांजलि ..कितना प्रेम करते हैं हम अपने उन वापस न आ सकने वाले पलों से कितनी विवसता है ...
    तुम्हे प्रेम करते हुए अहर्निश
    इस तरह चाहता हूं तुम्हारा साथ
    जैसे वीणा के साथ उंगलियां प्रवीण
    जैसे शब्द के साथ संदर्भ
    जैसे गीत के साथ स्वर
    जैसे रूदन के साथ अश्रु
    जैसे गहन अंधकार के साथ उम्मीद
    और जैसे हर हार के साथ मज़बूत होती ज़िद

    जवाब देंहटाएं
  6. मैं चाहता हूं और तुम्हे प्रेम करते हुए अहर्निश... दोनों संवेदना के स्तर पर बेहद खूबसूरत कविताए... इन दोनों कविताओं को पढ़कर शाम थोड़ी उदास हो गई है... लेकिन ये उदासी भी बुरी नहीं लग रही... ठीक आपकी इन पंक्तियों की तरह-
    मै चाहता हूं
    यूं ही किसी दिन
    ढूंढ़ते हुए कुछ और
    तुम ढूंढ़ लो मेरा कोई पुराना -सा ख़त
    और उदास हो जाने के पहले
    मुसकराती रहो देर तक

    जवाब देंहटाएं
  7. समय की गाड़ी के लिये
    कुछ मासूम से कस्बाई स्टेशन...

    सुन्दर कवितायें .. कई बार किताबों की जिल्द से बाहर आकर कवितायें अपना वांछित प्रसार पा लेती हैं.. शुक्रिया इन्हें इस तरह से अलग कर के प्रस्तुत करने का .

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  8. अशोक जी, आज कल आप चैतरफ अपनी ही उपलब्ध्यिों से घिरे हैं। बधाइयों का तांता लगा है। मेरी भी बधाई स्वीकार करें। कविता पर आयोजन के लिए भी, ओैर अपनी नई कविता-पुस्तक के लिए भी।
    फेसबुक पर रोज ही आप की कोई न कोई ‘भनिति’ देखने को मिल ही जाती है। आज आप की कविताएं देखने को मिलीं। इन कविताओं पर इतनी सारी प्रसंशाओं को पढ़ लेने के बाद शायद ही कोई अहमक कोई ऐसी वैसी टिप्पणी करने का साहस करेगा।आखिर प्रशंसाओं का भी अपना एक मनोविज्ञान होता है! इन्हें प्रकाशित किया ही इसलिए जाता है कि ये पाठकों को ‘वैसी ही’ प्रशंसाएं करने के लिए वातावरण बनाती हैं। खैर!
    मैं दूसरी बात कहना चाहता हूं। प्रायः एक जैसी शिल्प संरचना में लिखी गई इन कविताओं को पढ़ते हुए हमे अकस्मात ही ‘‘ कविता के नए प्रतिमान’’ का वह अध्याय ध्यान में आ गया जिसमें नामवर जी नें कविता के मूल्यांकन में संरचना के महत्व पर निराला के लेख, ‘मेरे गीत और कला’ के हवाले से प्रगीतात्मक कविता में निराला की तोड़ती पत्थर और पंत की ‘रूपतारा’ की संरचना का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए,और आधुनिक कवियों मे, शमशेर और अज्ञेय आदि की कविताओं के उदाहरण से, बताया है कि‘ किस प्रकार प्रगीतात्मक कविता की संरचना अखण्ड रूप से विन्यस्त , स्फटिक की तरह ठोस और अविभाज्य बिम्ब के रूप में निर्मित होती है।
    नामवर जी के उक्त लेख में ये सब बातें विस्तार से हैं। मगर मैं यहां आप का ध्यान उनके द्वारा बताए गये उस खूबसूरत खतरे की तरफ दिलाना चाहता हूं जिसके आकर्षण मे फंस कर कवि अपनी एक अच्छी भली कविता का प्रभाव गवां बैठता है। नामवर जी का वाक्य है,‘‘ जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति-सी छाई,वह एक आंसू बन कर आए तो ठीक है, किन्तु जब वह बरसात की झड़ी सी बरसने लगती है तब वह शायद वही पीड़ा नहीं रहती, और घनीभूत तो भला कैसे रह सकती है।’’ नामवर सिंह के शब्दों में ही कहूं तो आप की ये कविताएं थोड़ी दूर तक प्रभाव की सृष्टि करके ‘पैराफ्रेज’बनाने में मशगूल हो जाती हैं। हर बंद पहले का किंचित उबाऊ विस्तार लगने लगता है। इस पत्र के माध्यम से मैने सिर्फ आप का ध्यान उस लेख की तरफ आकृष्ट किया है। इसमें मेरा अपना विचार सिर्फ इतना है यह विचार मेरे मार्फत आप को सम्प्रेषित हो रहा है।एक दम मित्र भाव से। कपिलदेव

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  9. आपका स्वागत है कपिलदेव जी…आपकी टिप्पणियां हमेशा ही राह दिखाने वाली होती हैं। आपकी शुभकामनाओं का आभार।

    सादर

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  10. वैसे कपिलदेव जी…हमारी कार्यवाहियों को 'भनिती' की श्रेणी में रखकर आपने मित्रता का पर्याप्त परिचय दे दिया है…फिर भी आप अग्रज़ हैं हमारे…हम तल्ख़ नहीं होंगे…बस आपको ढेर सारी शुभकामनायें…आपका आलोचक चेतस रहे…उर्जावान रहे…निष्कलंक तथा अकुंठ रहे!

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  11. मनीषा कुलश्रेष्ठ : Ashok saree kavitayen bahut hi achchhi lageen magar mera man jo chhoo gai vah thi मत करना विश्वास - किसका फोन था ! यह मेरा पैट डायलॉग है, इसलिए हँसी भी बहुत आई.

    हालांकि सच है यह
    कि विश्वास ही तो था वह तिनका
    जिसके सहारे पार किये हमने
    दुःख और अभावों के अनन्त महासागर
    लेकिन फिर भी पूछती रहना गाहे ब गाहे
    किसका फ़ोन था कि मुस्कुरा रहे थे इस क़दर?
    पलटती रहना यूंही कभी कभार मेरी पासबुक
    करती रहना दाल में नमक जितना अविश्वास

    हंसो मत
    ज़रूरी है यह
    विश्वास करो
    तुम्हे खोना नहीं चाहता मैं .

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  12. Shukriya Manisha ji...aap jinke FAN hain unse prashansha pana sach me achcha lagta hi hai.

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  13. Dil ko chhoo kar guzarti si panktiyaan,,,
    Kavi ka mera namaskaar pahunche...
    :)

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  14. Ashok ji,
    Behatreen kavitahye..saari kavitaye achi hai per "Mat karna vishwaas" man ke ankahe taho ke beetar sama gayi.. Appne yeh jo kaha is kavita ke madhyam se wo aaj tak ankaha raha hai .. pyar ka ye pratirup itna saada na tha aaj tak .. per aapne bana diya.
    bahut bahut dhanywad is kavita ko share kerne ke liye :)

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