प्रशांत ::


























अब तुम्हारे साथ...

मन हल्का
हल्का इतना
जैसे तैरता मेरा अक़्स
साबुन के
पारदर्शी, चमकीले
हवा से भी हल्के
अनगिनत बुलबुलों में
उड़ा रहा था
जिसे
पार्क के बाहर
एक छोटा बच्चा.

मन हल्का
हल्का इतना
जैसे सेमल के
अभी-अभी दरके फल से
फूट कर निकले
महीन रोओं-से
रूई के गोले
लिपटे मुझसे
अपना बीज बनाये
दूर-दूर तक
तैरते, तिरते
हर दिशा....

मन मौन
मौन पर भावविह्वल
कि जैसे बीत न रहे हों
मोजार्ट की
खत्म हुई सिंफ़नी
और
तालीयों की गड़गड़ाहट
के बीच के क्षण
शांत..
स्तब्ध..
अवाक..

मन मौन
मौन पर हर्षित
कि जैसे
बिलखता नवजात शिशु
चिपट कर
जननी के वक्ष से
पा दूध की धार
और
सुन माँ का
हृदय संगीत
पुलकित..
चुप..
तुष्ट..

मन रोमांचित
कि जैसे
किसी पहाड़ी पर
चटकती
एक नहीं - गुच्छों में
कलियां
जंगली गुलाब की
जो खिल उठी हों
फैलाते अपनी
मुड़ी-तुड़ी पंखुड़ियां
अनायास
देख लिया...

मन रोमांचित
कि जैसे
सागर के सबसे गहरे तल में
ढंका, छुपा
एक बक्से में बंद
बिन तराशा
नायाब
एक हीरा
अचानक
बिल्कुल अचानक
हाथ आया...

उफ़ान
ऐसा एकाध बार तो जरूर हुआ होगा आपके साथ भी
कि आप सामनें खड़े हों
और आग पर चढ़ी एक छोटी पतीली में
अचानक दूध उफनने लगा हो.
क्या प्रतिक्रिया होती है तब?
कभी-कभी प्रेम का इज़हार भी
दखलंदाजी लगता है.
घुसपैठ लगता है.
मन 'उसे' देखता है, महसूस करता है
और मनाता है खुद को - थोड़ा रुक के.
समझाता है खुद को - क्यों छेड़ते हो ?
मन बेताब होता है
कुछ कहने को - कुछ सुनने को.
बार-बार कोशिश करता है धीरज रखने की,
कहता है - अभी नहीं, सब्र करो.
पर,
थोड़ी सी असावधानी
और वो
पतीले से बाहर निकल आता है
उफ़न कर.
आप बेतरह फूंकते रह जाते हैं,
और वो
शब्द बन बह पड़ता है.


तुम.......मैं 

इसके पहले कि पढ़ लूं
अभिव्यक्ति की बस अंतिम ही पंक्ति
और लगे कि कह दिया गया है
सब कुछ
छोड़ता हूं
किताब

अभी
अभी ही तो लिखना शुरु किया है
"तुम...."

इसके पहले कि कोई शख्स
मश्कों में पानी लाये
और उगा जाये रेत की वादी में फूल
या एक आखरी अजूबा रचा देखूं
बंद करता हूं
आँखें

कुछ
कुछ तो सुंदर-असुंदर रच ही लूं
मैं.


धुआं 

भटकती रही चेतना
जाने कहाँ-कहाँ....

लपकती-झपकती दिये की टिमटिमाहट से
अँधेरे से उस कमरे की याद
जिसे इस तरह बुहारा गया था
कि  तिनका भर  भी धूप नहीं था
बस तैरता होता हमारा प्रेम
गजलों कि तान पकड़.

दूब का एक गुच्छा और आम के कुछ पत्ते
बुला ले गये
उन पहाड़ियों पर
जिनकी ढलानों से
पैदल उतरना ही भाता हमें
छतरी पकडे, गलबहियां डाले

छोटी-छोटी मूर्तियाँ
आवाज देने लगीं
बड़े-बड़े चबूतरों वाले
विशाल मंदिरों के भीतर से
किसी एक में जहाँ
नहा कर निकली एक सुंदरी
खुद को निहारती है आईने में
और उसे निहारते हम आत्मविभोर हैं.....

और अचानक
जैसे किसी के छटपटाने कि आवाज़
लकड़ियां चरमरायीं
जोर से - "स्वाहा"
तंद्रा भंग,
आग का एक गोला उठ आया
क्षण भर को सब कुछ जगमग
जल गए हाँथ के कुछ रोंये
फिर फ़ौरन ही शांत
बस रह गया गाढ़ा काला धुआं
और छटपटाने की दबी आवाजें.

(मैं मुस्कुराता हूँ)
इतनी जल्दी राख नहीं होंगी
मेरी वेदी कि लकड़ियां
गीली हैं अभी.


अतिरेक
टीन की लहरदार छत पर जैसे
बारिश की छोटी बूंदें
बज उठती हैं जोर से
बजरी पर चलते
सुनाई देती हैं कदमों की आहट जैसे
साफ़-साफ़
और रात के दूसरे पहर
जैसे सुनाई देने लगते हैं
दूर दूसरे मुहल्ले में चलते
जागरण के गीत
साफ़ स्पष्ट
सुनता हू मैं
तुम्हारे शब्द बारीक फ़ुसफ़ुसाहटों में भी
और गुनगुनाने लगता हूं देर तक
प्रेम के भूले-बिसरे गीत
कहता हूं 'प्यार' धीमे से ही
तो गूंजती है मेरी हर ध्वनी
देर तक चमत्कृत करती
खण्डहर में ताली की आवाज-सी
रात जंगल में सुनाई देती
झिंगुरों की आवाज-सा
एक मिला-जुला संगीत
नहीं होने देता मुझे वीरान कभी.

शायद
चेतना से नाता तोड़ चुका हूं
और मुग्ध हूं
अपने अंदर की आवाजों में.......
तुम्हारे प्रेम को
क्या सचमुच मैं
जी रहा हूं
अतिरेक में ???????

तुम्हारी स्मृति 
तुम्हारी स्मृति..
अंकित गहरी
कि
उभरती है
घने धुंध में भी
क्षितिज पर
साफ....
साफ ऐसी कि जैसे
टपकती बूंद
किसी पिघलते ग्लेशियर की........

10 टिप्‍पणियां:

  1. आप बेतरह फूंकते रह जाते हैं,
    और वो
    शब्द बन बह पड़ता है.

    तुम्हारी स्मृति..
    साफ ऐसी कि जैसे
    टपकती बूंद
    किसी पिघलते ग्लेशियर की........

    सुन्दर बिम्ब, सुन्दर कविताएँ...

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  2. बहुत सुन्दर रचनाये सुन्दर बिम्ब प्रयोग्।

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  3. aap ki kvitaye sach me dil ko gahrai tak chhu jati hai
    ati sundar rachana............

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  4. प्रशान्‍त की इन प्रेम कविताओं में उनकी रागात्‍मकता अपनी गहराई और व्‍यापकता के साथ व्‍यक्‍त हुई है - वे एक नितान्‍त हल्‍के मन के साथ उस सागर-तल की गहराई में उतरते हैं और अपने साथ ऐसी नायाब कविताओं के नगीने बटोर लाने में कामयाब रहते हैं - तुम्हारी स्मृति..
    साफ ऐसी कि जैसे
    टपकती बूंद
    किसी पिघलते ग्लेशियर की........
    इन कविताओं में वे जिस तरह के बिम्‍बों और लोक-संवेद्य काव्‍य-भाषा के साथ जिस सहजता से अपने मन के भावों को बयान करते हैं, उससे कविताएं अनायास ही स्‍मृति में अंकित हो जाती हैं। बेहद खूबसूरत कविताएं हैं ये। बधाई।

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  5. मन मौन
    मौन पर भावविह्वल
    कि जैसे बीत न रहे हों
    मोजार्ट की
    खत्म हुई सिंफ़नी
    और
    तालीयों की गड़गड़ाहट
    के बीच के क्षण
    शांत..
    स्तब्ध..
    अवाक..
    !!!!!!!!!!

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  6. !!!..............पतीले से बाहर निकल आता है
    उफ़न कर.
    आप बेतरह फूंकते रह जाते हैं,
    और वो
    शब्द बन बह पड़ता है..........अरे वाह ......मैं रोमांचित हुआ कविताओं को पढ़ कर ....और और ....र र र ...तुरंत वो कही उफन ही आया खुद की स्म्रतियों में कभी सहेज कर रखा था मेनें भी ...जबरदस्त ख्यालों में झुलाती हुई आपकी पक्तियां प्रशांत जी ....और बहुत शुक्रिया आप सब का इसको हम तक लाने का ...वाह बहुत सुन्दर ..पुन शुभकामनाये प्रशांत जी ....और धन्यवाद ...नन्द सर जी ,अपर्णा दी ...अर्पिता जी !!!!!ओर आप का साथ फूलों ....!! को भी Nirmal Paneri

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  7. बधाई प्रशांत....अब किसी पत्रिका में भेजिए...

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  8. बजरी पर चलते
    सुनाई देती हैं कदमों की आहट जैसे
    साफ़-साफ़..

    बहुत अच्छी कवितायें..सचमुच..
    yah saaf sunaai de rahaa hai..dikhaai bhi..

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  9. बेहद खूबसूरत रचनाये मन के भावो का सुंदर प्रस्तुतिकरण ..बधाई प्रशांत जी

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