उदय प्रकाश::

 

















एक शहर को छोड़ते हुए आठ कविताएँ::
:: 

 
हम अगर यहाँ न होते आज तो
कहाँ होते ताप्ती ?
होते कहीं किसी नदी पार के गाँव के
किसी पुराने कुएँमें
डूबे होते किसी बहुत पुराने पीतल के
लोटे की तरह
जिस पर कभी -कभी धूप भी आती
और हमारे ऊपर किसी का भी नाम लिखा होता .

या फिर होते हम कहीं भी
किसी भी तरह से साथ-साथ रह लेते
दो ढेलों की तरह हर बारिश में घुलते
हर दोपहर गरमाते.

हम रात में भी होते
तो हमारी साँसें फिर भी चलतीं,  ताप्ती,
और अँधेरे में
हम उनका चलना देखते , ताज्ज़ुब से

क्या हम कभी-कभी
किसी और तरह से होने के लिए रोते , ताप्ती ?

::::

ताप्ती , एक बात है कि
एक बार मैं जहाज़ में बैठकर
अटलांटिक तक जाना चाहता था .

इस तरह कि हवा उलटी हो
बिलकुल खिलाफ
हवा भी नहीं बल्कि तूफ़ान या अंधड़
जिसमें शहतीरें टूट जाती हैं ,
किवाड़ डैनों की तरह फड़फड़ाने लगते हैं ,
दीवारें ढह जाती हैं और जंगल मैदान हो जाते हैं .

मैं जाना चाहता था दरअसल
अटलांटिक के भी पार , उत्तरी ध्रुव तक,
जहाँ सफ़ेद भालू होते हैं
और रात सिक्कों जैसी चमकती हैं .

और वहाँ किसी ऊंचे आइसबर्ग पर खड़ा होकर
मैं चिल्लाना चाहता था
कि आ ही गया हूँ आख़िरकार, मैं ताप्ती
उस सबके पार , जो मगरमच्छों की शातिर , मक्कार
और भयानक दुनिया है और मेरे दिल में
भरा हुआ है बच्चों का-सा प्यार
तुम्हारे वास्ते .

लेकिन इसका क्या किया जाए
कि मौसम ठीक नहीं था
और जहाज़ भी नहीं था
और सच बात तो ये है , ताप्ती
कि मैंने अभी तक समुद्र ही नहीं देखा !

और ताप्ती ...?
यह सिर्फ उस नदी का नाम है
जिसे स्कूल में मैंने बचपन की किताबों में पढ़ा था .

:: :: ::

एक दिन हम
नर्मदा में नहायेंगे
दोनों जन साथ-साथ .

नर्मदा अमरकंटक से निकलती है ,
हम सोचेंगे और
न भी निकलती तो भी
साथ-साथ नहाते हम , तो अच्छा लगता .

फिर हम एक सूखे पत्थर पर
खड़े हो जायेंगे ... धूप तापेंगे .

फिर खूब अच्छे कपड़ेपहनेंगे
ख़ूब अच्छा खाना खाएँगे
ख़ूब अच्छी -अच्छी बातें करेंगे
एक ख़ूब अच्छे घर में बस जाएँगे.
हमें ख़ूब अच्छी नींद आया करेगी
रातों में और
हमारा ख़ूब -ख़ूब अच्छा- सा जीवन होगा .

ताप्ती, देखना
क्या मुझे बहुत विकट हंसी आ रही है ?

:: :: :: ::

हम एक
टूटे जहाज़ के डेक की तरह हैं
और हमें अपने ऊपर
खेलते बच्चों की ख़ातिर
नहीं डूबना है
हमें लड़ना है समुद्र से और
हवा से और संभावना से .

जो तमाशे की तरह देख रहे हैं हमारा
जीवन -मरण का खेल
जिनके लिए हम अपने विनाश में भी
नट हैं दो महज़ .

कठपुतलियाँ हैं हम
हमारी संवेदनाएं काठ की हैं
प्यार हमारा शीशम का मरा हुआ पेड़ है
जिनके लिए
उन सबकी भविष्यवाणियों के ख़िलाफ़
हमें रहना है ..
रहना है, ताप्ती .

हम उनके बीजगणित के हर हल को
ग़लत करेंगे सिद्ध और
हर बार हम
उगेंगे सतह पर .

और हमारी छाती पर सबसे सुन्दर और
सबसे आज़ाद बच्चे खेलेंगे .

डूबेंगे नहीं हम
कभी भी, ताप्ती ,
डेक है टूटे जहाज़ का
तो क्या हुआ ?

:: :: :: :: ::

अच्छा हो अगर
हम इस शहर की सबसे ऊंची और खुली छत पर
खड़े होकर पतंग उड़ायें .

और हम जोर-जोर से हंसें
कि देख लो हम अभी भी हंस सकते हैं इस तरह
और गाएँ अपने पूरे गले से
कि जान लो हम गा भी रहे हैं
और नाचें पूरी ताक़त-भर
कि लो देखो
और पराजित हो जाओ

हम इस शहर की
सबसे ऊंची और
सबसे खुली छत पर दोनों जन
और वहाँ से चीख़ें, एक दूसरेके पीछे दौड़ें
किलकारी मारें , कूदें और ढेर सारी रंगीन पन्नियाँ
हवा में उड़ा दें

इतना कपास बिखेर दें
शहर के ऊपर
कि फुहियाँ ही फुहियाँ दिखें सब तरफ़

फिर हम उतरें
और रानी कमला पार्क के बूढ़े पीपल को
जोर से पकड़कर हिला दें ,फिर पैडल वाली
नाव लेकर तालाब के पानी को मथ डालें
इतना हिलोड़ दें
कि वह फुहार बन जाए
और हमारे गुस्से की तरह
सारे शहर पर बरस जाए

ताप्ती , चलो
फिर दूरबीन से देखें
कि शहर के सारे संपन्न और संभ्रांत लोग
कितने राख हो चुके हैं
और उनकी भौंहों में कितना
कोयला जमा हो चुका है .

:: :: :: :: :: ::

एक दिन हम अपना सारा सामान बांधेंगे
और रेलगाड़ी में बैठकर चल पड़ेंगे , ताप्ती !

एक नज़र तक हम नहीं डालेंगे
ऐसी जगह , जहाँ
इतने दिनों रहते हुए भी हम रह नहीं पाए

जहाँ दिन-रात हम हड्डियाँ गलाते रहे अपनी और
लोगों के पीछे किसी द्रव की खोज में
हँसते रहे

हम चाहेंगे ताप्ती कि
इस जगह को भूलते हुए हमें खूब हंसी आये
और अपनी बातचीत में
हँसते हुए हम इस जगह का अपमान करें
सोचें कि एक दिन ऐसा हो
कि सारी दुनिया में ऐसी जगहें कहीं न हों

फिर ताप्ती, खिड़की होगी
और पेड़ दौड़ेंगे चक्कर में
और कोई बछड़ा मटर के खेतों के पार उतरेगा

एक के बाद एक गाँव और शहर
पार करते चले जायेंगे हम अपने सफ़र में
रेलगाड़ी की खिड़की के बाहर
दुनिया घूमती ही रहेगी
मिटटी के कत्थई घरों से भरी
हरी दुनिया .

फिर मैं कहूँगा
हमने अच्छा किया , बहुत अच्छा किया
कि हमने उन्हें छोड़ा
जो छोड़े ही हुए थे हमें और हमारे जैसे बेइंतहा लोगों को
शुरू से ही अपनी संकरी दुनिया के लिए .

हम ऐसे चंद चालू संबंधों की
परछाईं तक को कर देंगे नष्ट
अपनी स्मृति से

और चल पड़ेंगे अपना सारा सामान समेटकर
एक के बाद एक गाँव और शहर
और जीवन और अनुभव पार करेंगे

लेकिन हम आखिर में ठहरेंगे
कहाँ, ताप्ती ?

:: :: :: :: :: :: ::

सामने की
ऊंची ढीह पर, बबूल के नीचे
एक घर , आधा बनाकर छोड़ दिया गया जो
वर्षों पहले
उस घर की ईंटें
पत्तियों और काँटों के साथ
मिट्टी हो रही हैं

उन ईंटों को
कभी न छू पायीं जीवित ऐन्द्रिक साँसें

मिट्टी होती , रेत होती ,
हवा होती
पुरानी पत्तियों में से उठता है तुम्हारा शरीर
ताप्ती,
अधूरा ही छोड़ दिए गए किसी मकान जैसा ,
बिना हाथों का
एक धड़,
अधूरा

ताप्ती, कहाँ हैं तुम्हारी खिड़कियाँ
जिनसे रोशनी आती है ?
कहाँ है वह दहलीज़ जिसे मैं पार करूँ
तुम्हारी आतुरता में भरा हुआ ?

ताप्ती , तुम्हारी ईंटें
बबूल और काँटों के साथ
रेत हो रही हैं
प्रतिक्षण नष्ट होती जा रही हो तुम
हवा और समय के साथ

ताप्ती , एक अधूरी काया,
ताप्ती , एक अधूरी आत्मा ,
ताप्ती , एक नदी का नाम नहीं है सिर्फ़
गलती, नष्ट होती पत्तियों में से
उठता है तुम्हारा अधूरा शरीर , बिना हाथों का
अपमान , दरिद्रता और काँटों में बिंधा .

और फिर भी
एक ताज़ा-ताज़ा फूल लिए
तुम मेरी तरफ़ बढ़ना चाहती हो .

:: :: :: :: :: :: :: ::

यह ठीक है
कि बहुत मामूली बहुत
साधारण-सी है यह हमारी लड़ाई
जिसमें जूझ रहे हैं हम
प्राणपन के साथ

और गहरे घावों से भर उठा है हमारा शरीर
हमारी आत्मा

इस विकट लड़ाई को
कोई क्या देखेगा हमारी अपनी आँखों से ?

निकालेंगे एक दिन लेकिन
हम साबुत इस्पात की तरह पानीदार
तपकर इस कठिन आग में से
अगले किसी महासमर के लिए .

 

22 टिप्‍पणियां:

  1. रविवार की सुबह खूबसूरत बनाने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया अपर्णा

    जवाब देंहटाएं
  2. मैं चिल्लाना चाहता था
    कि आ ही गया हूँ आख़िरकार, मैं ताप्ती
    उस सबके पार , जो मगरमच्छों की शातिर , मक्कार
    और भयानक दुनिया है और मेरे दिल में
    भरा हुआ है बच्चों का-सा प्यार
    तुम्हारे वास्ते .
    *****
    कठपुतलियाँ हैं हम
    हमारी संवेदनाएं काठ की हैं
    प्यार हमारा शीशम का मरा हुआ पेड़ है
    जिनके लिए
    उन सबकी भविष्यवाणियों के ख़िलाफ़
    हमें रहना है ..
    रहना है, ताप्ती .
    *****
    हमने अच्छा किया , बहुत अच्छा किया
    कि हमने उन्हें छोड़ा
    जो छोड़े ही हुए थे हमें और हमारे जैसे बेइंतहा लोगों को
    शुरू से ही अपनी संकरी दुनिया के लिए .

    हम ऐसे चंद चालू संबंधों की
    परछाईं तक को कर देंगे नष्ट
    अपनी स्मृति से
    *****
    बहुत ही अद्भुत अनुभूतियां है.उदय जी को पढना हमेशा ही एक अनुभव से होकर गुजरना रहा है चाहे कविता हो कि कहानी.. साझा करने के लिए आभार अपर्णा जी!

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  3. इतवार की सुबह सुखद हुआ, कुछ और मानवीय भी ... उदय को पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है. भाषा की ताकत और अनुभति की ताज़गी का अनुमप मेल.. प्रेम और विचार भी.

    बधाई.

    जवाब देंहटाएं
  4. इस विकट लड़ाई को
    कोई क्या देखेगा हमारी अपनी आँखों से

    रविवार का दिन और
    मन-भावन रचनाएं...आनंदम ..

    जवाब देंहटाएं
  5. और गहरे घावों से भर उठा है हमारा शरीर
    हमारी आत्मा

    इस विकट लड़ाई को
    कोई क्या देखेगा हमारी अपनी आँखों से ?

    निकालेंगे एक दिन लेकिन
    हम साबुत इस्पात की तरह पानीदार
    तपकर इस कठिन आग में से
    अगले किसी महासमर के लिए .
    .......जीवन-संघर्ष,जिजीविषा और विस्थापन के क्रम में पीड़ा और उपेक्षित मानवीय मूल्यों का अद्भुत सम्मिश्रण...कविता की संवेदना और ओज को सलाम!...अपर्णा जी,लीना जी आप सभी को सादर धन्यवाद.....

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  6. सुन्दरता को आँख से, जिसने देखा मित्र |
    समझ न वह सकता कभी,कैसे बनता इत्र?

    जवाब देंहटाएं
  7. कठपुतलियाँ हैं हम
    हमारी संवेदनाएं काठ की हैं
    प्यार हमारा शीशम का मरा हुआ पेड़ है
    जिनके लिए
    उन सबकी भविष्यवाणियों के ख़िलाफ़
    ... हमें रहना है ..
    रहना है, ताप्ती .hum jahaj ke tute dek pr hai ...udayprakash ki ye kavita vrtman samay ka geet hai hum sab arth vyavstha v globonisation ke esyug mein ek vichitra jeevanki raah mein chale gaye hai.adhikansh perivaar to saath nahi reh paate saath agar hai to dincharya aisi hoti hai ki hum ek duje se mil nahi paate es prem vihin karm kshtera mein lagatar karm kerne ko prerit kerti ..hamnari sachai ko bayan kerti jijivisha se bheri es adhbhut shakti sancharak kavita bhitr pathak ke /shrote ke ek taral padarth bahane mein samarth hai jis taralata ko jeevan mein agar angikaar ker liya jaaye tio jeevan kaisa bhi ho waha vitrashna ..viokrti v chhal kapat ko sthan nahi ho sakta vaha ghor vikat peristhiutiyon mein bhi kavi dwara prathapit prem hi usko taaqat deta hai jeevan ko saras banata hai ...chahe hum kathputli ho chahe hum nat ki tarah dekhe jaye chahe hum tutte jahaj ke dek pr aashankao bheri jindagi jeene ko majbopor ho magar hum usi taaqat se saman kerte hai hamare jeevan kaa vehi samvedanshilte wahi taaqt deti ye kavita adhbhut anbhav hmamme chhod jaati hai ...es pr bhi agar aap kehe ki aisa kuch nahi hota to dekhiyega aapki garahn shakti mein kaha virus aaya hai

    जवाब देंहटाएं
  8. taptio us nadi ka naam hai jo bachpan mein school mein padha tha ...bahut hi bhole pan se kahi gayi ye baat uday prakash ki kavita ko bahut gehra rang deti hai ....ve atlantik paar kerna chahte hai utri dhruv pe jana chahte hai dekhan chahte hai safed bhaluon ko raat ko jo chamkti hai safed sikko ki tarah ...aur unhone kabhi samunder deha nahi ..aur utri dhruv pahuchne ke baad bhi wo tapti ko yaad kerta hai aur bacho ko aane wale samay ko yaad kerte hai ..aur kehte hai ki mein aana chaht6a hun es paar kyuki ve chutkaara chahte hai magarmacho se bheri es shatirduniya se ....bahut abodh masum kavita ..tapti ko prem ko punarjivit kr aise samaj ko banane ki lalak rukhti hai jaha se hum apne prem ke karan ek ucha aadarsh samaj v chamakta hua bhavishya apne bacho ko de sake bina kisi nare ke sukti ke vishay ke ve duniya ke bare mein etni baate keh jaate hai jo bahut der taq aapme jhanjhanati hai ...adhbhut

    जवाब देंहटाएं
  9. समन्दर ही समंदर हो चारो तरफ
    जब अकेला होना
    एक जहाज होता हो
    पानी में
    रोना उफनता तो हो
    पर
    समा जाता हो पानी में
    लहरो के साथ !!!.......क्रंदन को नमन आपको नमन सर !!

    जवाब देंहटाएं
  10. एक बीतते उदास दिन में इन कविताओं ने खूब रंग भरे. बेहद सुन्दर कवितायेँ हैं.. जीवन के प्रति जिजीवषा का मजबूत स्वर-

    अच्छा हो अगर
    हम इस शहर की सबसे ऊंची और खुली छत पर
    खड़े होकर पतंग उड़ायें .

    और हम जोर-जोर से हंसें
    कि देख लो हम अभी भी हंस सकते हैं इस तरह
    और गाएँ अपने पूरे गले से
    कि जान लो हम गा भी रहे हैं
    और नाचें पूरी ताक़त-भर
    कि लो देखो
    और पराजित हो जाओ

    जवाब देंहटाएं
  11. अपर्णा जी !! इन कविताओं को न जाने कितनी बार पढ़ा है ...पर फिर फिर पढ़ रही हूँ ...पढ़ती ही जा रही हूँ ...कभी आँख नम होती है तो कभी मुस्कान आ जाती है ...जितनी बार पढ़ती हूँ कुछ नया ही मिलता है । ...कभी सामने समंदर होता है, तो कभी नदी हो जाती हूँ यकबयक !!! आभार आपका इन्हे इतने सुंदर जगह लाने और पुनः पढ़वाने का ।

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  12. जो तमाशे की तरह देख रहे हैं हमारा
    जीवन -मरण का खेल
    जिनके लिए हम अपने विनाश में भी
    नट हैं दो महज़ .

    ek se badhkar ek ...

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  13. सकारात्मक कवितायें....अच्छा लगा पढ़ना.

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  14. उदय जी की कविताएं जब भी पढो ताज़गी आ जाती है........ ये कविताएं पहले पढ चुका हूं पर लगता है कभी पढा ही नही ...... उदय जी आप के हाथों मे जादू है ......

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  15. ''हम उनके बीजगणित के हर हल को
    ग़लत करेंगे सिद्ध और
    हर बार हम
    उगेंगे सतह पर ''.....!!!

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  16. निकालेंगे एक दिन लेकिन
    हम साबुत इस्पात की तरह पानीदार
    तपकर इस कठिन आग में से
    अगले किसी महासमर के लिए .
    shukriya itni acchi kavitawo ke liye.

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  17. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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