हर बार::
मैं
फिर फिर लौटता हूँ तुम में
आदि से कालान्तर तक
(द्वापर, त्रेता, सतयुग, कलयुग)
होकर
बदलता हूँ हर बार मैं ही
तुम्हें वहीं ,
वैसी ही पाता हूँ
मानवी. मसीह कन्या::
ओ! मसीह कन्या
अपने भीतर समोए-
(सृष्टि का नाद, महासागर, ब्रह्माण्ड का ब्रह्म -वाद्य)
मैं
विसर्जित करने को तुम्हें
कतई राजी नहीं
हाँ!
इतना ही करो
महाप्रलय का शोकगीत गा दो.
आ सकती हो::
मेरी
सारी- 'शक्ति-पूजा'
तुम तक नहीं पहुँचती
(धरती, आकाश, वायु, प्रकाश)
व्याधि हैं
किन्तु! तुम
आ सकती हो
समूचा अस्तित्व धारण किए
प्रकृति में विचरण किए
जहाँ
शिलाखण्डों में बैठी
घास को सहला सको
साहचर्य और प्यार किए
हम
कोख में बो सकें
क्रान्ति के आसार-बीज. प्रेम और क्रांति::
तुम्हारी देह और भाषा के बीच
एक बुनियादी फ़र्क है-
तुम हर क्षण बदलती हो अपना भेष
और भाषा तुम्हारी उतरन पहने
टँगी रहती है इस दीवार की खूँटी पर
न वो व्याकरण बदलती है
न सूत्र, न विन्यास
और तुम्हारी नयी उतरन नये लिबास
दीवार पर टँगी भाषा से करती है संवाद आरोप गढ़े
"तुमारी कथनी करनी में कितना फ़र्क़ है"
जबकि हमारी भाषा अलग नहीं
न व्याकरण, न सूत्र
महज़ लहज़ा हमेशा - हमेशा
प्यार और द्वन्द्व में बदलता है 'रूप'
तुम्हारी उतरन में मेरे लिए चंद अल्फ़ाज़ हैं
"तुम अच्छा लिखते हो"
मेरी जबाँ और शब्द-कोश में तुम्हारे लिए-
"समूचे अस्तित्व के साथ तुम मुझे स्वीकार हो
संवेगों की तलहट से विचारों के शीर्ष तक तुम मुझमें जीती हो"
देह में तुम्हारी
अब भी अवशेष बची हैं अतीत की प्रेम कोशिकाएँ
तुम फ़र्क़ करने में असहज हुई कहती हो-
"मुझे अब कुछ भी नया नहीं लगता"
दोनों एक दरिया के सहचर हैं
यहाँ - प्रेम की नयी कोपलें उन्मादित फ़ूटी हैं.
वहाँ- मुरझाई लता फ़िर से बसंत में फूल आई है.
दोनों के बीच एक ठूँठ गड़ा है
जो लकड़हारा उसकी छाल उतार जा चुका
पूरा का पूरा जिस्म अब तक विषपायी कोशिकाओं में जीवित है.
तुम्हारे और मेरे बीच प्रेम की भाषा में
एक बुनियादी फ़र्क़ है-
तुम्हारा प्रेम 'जनवादी' है
और मेरा 'लोकतांत्रिक'
तुम्हारी आस्था का केन्द्र 'जनमानष' है
मेरी नास्तिक ज़बान में 'प्रतिक्रिया' है
तुम्हारी चेतना में सांस्कृतिक 'पूंजी' है
मेरी शिराओं में 'नकार' भरा है
तुम्हारी देह की भाषा में 'लिंगीय चेतना' हावी है
मेरे जिस्म की बुनियाद 'समता' का आंवा है
तुम्हारी द्ण्ड संहिता में स्त्री के विरुद्ध जाना 'अनैतिक' है
मेरे कर्म योग में 'मुक्ति' का स्वर गुंजित है.
तुम्हारी बहस -मुबाहिसे में है तर्कशील 'इतिहास-बोध'
मेरी भाषा की जड़ों में हुक़ूमता परस्ती के विरुद्ध 'बयान'
मेरी भाषा गढ़ने वाला कुम्हार तुम्हारी भाषा में
तलाशता है 'सम्यक-बोध'
और तुम्हारा अस्तित्व होता है मेरी भाषा के 'खिलाफ़'
तुम्हारे और मेरे बीच प्रेम की भाषा में
एक बुनियादी फ़र्क़ है-
तुम्हारी भाषा को गढ़ने का औजार 'संगठन' है
मेरी एकांतप्रियता के घुप्प अंधेरे में 'भाषा' पैदा होती है
हां! तुम्हारे और मेरे बीच
जहाँ फ़र्क़ मिट जाता है-
भाषा और अस्तित्व के बीच
है वहाँ
'प्रेम' और 'क्रान्ति' .
नियति और दायित्व::
आग की भट्ठी में तपता लोहा
निश्चित तापमान तक आते आते
पिघलता है,
मुड़ता है,
ढलता है हथौड़े की की चोट पर
ये नियति है.
किन्तु लकड़ी
सुलगती है,
जलती है,
और अपने समूचे अस्तित्व में
समझौता नहीं करती
इसे क्या समझूँ?
दायित्व है.
pada aur aacha laga....
जवाब देंहटाएंpada aur aacha laga .......
जवाब देंहटाएंjyotirmoy
अंतरात्मा का सच्चा विवेचन .............
जवाब देंहटाएंप्रेम और दायित्व के बीच अपने अस्तित्व के अर्थ को तलाशती हैं ये कवितायेँ ! बहुत सुन्दर प्रस्तुति !बधाई कवि को और आभार अपर्णा जी को !
जवाब देंहटाएंhi very good
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर.....बेहतरीन .प्रेम और क्रांति ...में जिस तरह बिलकुल नए बिम्बों का प्रयोग किया गया है...अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंजब पुष्कर मेरे साथ पढता था तो गद्य में कविताएँ लिखता था और मेरे साथ किसी को भी समझ में नहीं आता था कि वह क्या कहना चाहता है. अब जब उसने पद्य में कविताएँ लिखी हैं तो कुछ समझ में आ रही हैं.
जवाब देंहटाएंपुष्कर की कविताएँ पढ़ कर ऐसा लगता है कि वह एक ऐसा कवि है जिसका कोई कभी नहीं हुआ और जो कभी किसी का न हुआ. मुझे उसकी "प्रेम और क्रांति" कविता बहुत पसंद आई. उसकी कविताएँ उसके चित्रों की तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उद्दघोष करती प्रतीत होती हैं.
नए विषय पर नई सी कविता... मन के भीतर से उपजी
जवाब देंहटाएंama pushkar..antim 2 kavitayein to behad sundar ban padi hain. khastaur se niyati aur dayitwa ka to koi jawab hi nahi.
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