मुक्ति::
जाओ.......
मैं सौंपती हूँ तुम्हे
उन बंजारन हवाओं को
जो छूती हैं मेरी दहलीज
और चल देती हैं तुम्हारे शहर की ओर
बनने संगिनी एक रफ़्तार के सौदागर
मैं सौंपती हूँ तुम्हे
उस छत को जिसकी मुंडेर भीगी है
तुम्हारे आंसुओं से, जो कभी तुमने
मेरी याद में बहाए थे,
तुम्हारे आँगन में उग रहे हैं
मोगरे के फूल और हंस दोगे यदि देखोगे
मेरे आंगन के फूल सजे हैं
देवता की थाली में,
मैं सौंपती हूँ तुम्हे
तुम्हारी उन कविताओं को
जो आइना हैं शहर भर का
जो सजी हैं सपनीले इन्द्रधनुष से
पर जिनमें रंग नहीं है मेरे पैरहन का,
तुम्हारा घर ढँक चुका है
किस्म किस्म के बादलों से
और बारिश की बूँदें बदल रही हैं
प्रेम पत्रों में,
जिनके ढेर में खो चुकी है
मेरी पहली चिट्ठी,
मैं सौंपती हूँ तुम्हे उन रास्तों को
जो गुम हो जाते हैं कुछ दूर जाकर,
शायद ढून्ढ रहे हैं उस बस को
जो तुम्हे मुझ तक लाया करती थी,
और लौटते समय जिसकी आखिरी खिड़की
अलविदा कहती थी मेरे घर की खिड़की को,
को
की,
जिस पर आज भी पर्दा नहीं है,
उन रास्तों पर उग रही हैं
रोज़ नयी चट्टानें जिनकी तलहटी पर
सिसक रहे हैं भावनाओं के कैक्टस,
मैं सौंपती हूँ तुम्हे
रोशनियों के उस शहर को
जिसके लिए उजाले चुराए हैं तुमने
मेरी आँखों से,
मेरे शहर में अब अँधेरा है और
सारे जुगनू चमक रहे हैं मेरी
पलकों के कोरों पर,
मैं सौंपती हूँ तुम्हे उस अहसास को
जो देता है रोज़ तुम्हे एक नयी मुस्कराहट
और जीने की एक नयी वजह,
और मेरा एक और दिन कट जाता है
साल के कैलेंडर से,
जाओ और पा लो खुदको,
कर लो
वरण
और मैं अर्जुन के सहस्त्र बाणों से बिंधी
प्रतीक्षा करूंगी अपनी मुक्ति की.......
अपनी मुक्ति का,
दुष्यंत की अंगूठी::
प्रिय,
हर संबोधन जाने क्यूँ
बासी सा लगता है मुझे,
सदा मौन से ही
संबोधित किया है तुम्हे,
किन्तु मेरे मौन और
तुम्हारी प्रतिक्रिया के बीच
ये जो व्यस्तता के पर्वत है
बढती जाती है रोज़
इनकी ऊंचाई,
जिन्हें मैं रोज़ पोंछती हूँ
इस उम्मीद के साथ कि किसी रोज़
इनके किसी अरण्य में शकुंतला मिलेगी दुष्यंत से ,
क्यों नहीं सुन पाते हो तुम अब
नैनों की भाषा
जिनमे पढ़ लेते थे
मेरा
अघोषित आमंत्रण,
मेरी बाँहों से अधिक घेरते हैं तुम्हे
दुनिया भर के सरोकार,
और प्रेम के बोल ढल गए हैं
इन वाक्यों में
'शाम को क्या बना रही हो तुम"
तुम्हारे प्रेम पत्र
रखा है मैंने,
क्यों पीले पड़ते जा रहे हैं दिनोदिन,
और लम्बी होती जा रही है
राशन की वो लिस्ट,
ऑफिस जाते समय भूल जाते हो कुछ
और मैं बच्चों के टिफिन की
भूलभुलैया में उलझी बस मुस्कुरा
देती हूँ,
फिर किसी दिन फ़ोन पर
इतराकर पूछते हो,
"याद आ रही है मेरी"
और मैं अचकचा कर फ़ोन को
देखती हूँ ये तुम्ही हो
जो कल दुर्वासा बने लौटे थे,
और शकुन्तला झुकी थी श्राप की
प्रतीक्षा में,
फिर खो जाती हूँ मैं
रात के खाने और सुबह की
तैयारियों के घने जंगल में
सोते हुए एक छोटे बालक
से लगते हो तुम,
और तुम्हारी लटों को संवारते हुए
तुम्हे चादर ओढ़ते हुए,
अचानक पा लेती हूँ मैं
दुष्यंत की अंगूठी......
जिन्हें सहेजकर
चांदनी::
ये शाम ये तन्हाई,
हो रही है गगन में
दिवस की विदाई,
जैसे ही शाम आई,
मुझे याद आ गए तुम
हवा में तैरती
खुशबू अनजानी सी,
कभी लगती पहचानी सी,
कभी कहती एक कहानी सी,
मैं सुनने का प्रयत्न करती हूँ
और मुझे याद आ गए तुम...
उतर आया है चाँद गगन में,
मानो ढूँढ रहा है किसी को चाँद गगन में,
मैं
भी सोचती हूँ,
पूछूं चाँद से किसी के बारे में,
याद करने का प्रयत्न करती हूँ,
और मुझे याद आ गए तुम....
महकती फिजा में
बहकती सी मैं,
धीरे से पुकारता है कोई
कहके मुझे 'चांदनी',
छिटकती चांदनी में जैसे
बन गयी हैं सीढ़िया,
मैं चढ़ने का प्रयत्न करती हूँ
और मुझे याद आ गए सिर्फ तुम....
तुम हो ना::
यादों के झरोखे से
सिमट आया है चाँद मेरे आँचल में,
दुलराता सहेजता अपनी चांदनी को,
एक श्वेत कण बिखेरता
अनगिनित रश्मियाँ
दूधिया उजाला दूर कर रहा है
हृदय के समस्त कोनो का अँधेरा,
देख पा रही हूँ मैं खुदको,
एक नयी रौशनी से नहाई
मेरी आत्मा सिंगर रही है,
महकती बयार में,
बंद आँखों से गिन रही हूँ तारे,
एक एक कर एकाकार हो रहे हैं मुझमें
लम्हे जो संग बांटे थे तुम्हारे,
सूनी सड़क पे,
टहलते कदम,
रुक गए, ठहरे, फिर चले,
चल पड़े मंजिल की और,
और पा लिया मैंने तुम्हे,
सदा के लिए,
महसूस कर रही हूँ मैं,
तुम्हारी दृष्टि की तपिश,
और हिम सी पिघलती मेरी देह,
जो अब नहीं है,
कहीं नहीं है,
समा गयी है नदी
अपने सागर के आगोश में,
क्योंकि मेरा अस्तित्व भी तुम हो,
पहचान भी तुम हो,
मैं जानती हूँ तुम
कहीं नहीं हो,
जाने क्यों हमेशा लगता है
तुम यहीं हो, यहीं कहीं हो, हो ना
''
जवाब देंहटाएंमहसूस कर रही हूँ मैं,
तुम्हारी दृष्टि की तपिश,
और हिम सी पिघलती मेरी देह,
जो अब नहीं है,
कहीं नहीं है ''
!!!!!!!!!!!!!!
मैं सौंपती हूँ तुम्हे
जवाब देंहटाएंरोशनियों के उस शहर को
जिसके लिए उजाले चुराए हैं तुमने
मेरी आँखों से,
मेरे शहर में अब अँधेरा है और
सारे जुगनू चमक रहे हैं मेरी
पलकों के कोरों पर,
pahle bhi pdhi hai ye kavita.. vidai ke mukhrit swar
हर संबोधन जाने क्यूँ
जवाब देंहटाएंबासी सा लगता है मुझे,
सदा मौन से ही
संबोधित किया है तुम्हे,
सभी कविताये बहुत ही सुंदर ,अनुराग से भरी हुई है, सुंदर बिम्ब से सजी हुई रचनाओ के लिए बधाई
सभी रचनाएँ लाज़वाब...बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंDhanyawad Aap sabhi ka, kavitaon ko pasand karne ke liye......Saabhar
जवाब देंहटाएंतीनो ही रचनाये अप्रतिम्।
जवाब देंहटाएंतीनो ही रचनाये सुन्दर....
जवाब देंहटाएंvery nice post
जवाब देंहटाएंधन्यवाद् वंदनाजी, राजीवजी, सुषमाजी.......शास्त्रीजी मैं आभारी हूँ आपने मेरी रचनाओं को चर्चा के लिए चुना........धन्यवाद
जवाब देंहटाएंजाओ.......
जवाब देंहटाएंमैं सौंपती हूँ तुम्हे
उन बंजारन हवाओं को
जो छूती हैं मेरी दहलीज
और चल देती हैं तुम्हारे शहर की ओर
बनने संगिनी एक रफ़्तार के सौदागर
मैं सौंपती हूँ तुम्हे
उस छत को जिसकी मुंडेर भीगी है
तुम्हारे आंसुओं से, जो कभी तुमने
मेरी याद में बहाए थे,
अंजू जी कमाल का लिख रही हैं आप यह फर्जी तारीफ नहीं है बल्कि अंतर्मन से कर रहा हूँ बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें
सदा मौन से ही संबोधित किया है तुम्हे,
जवाब देंहटाएंकिन्तु मेरे मौन और तुम्हारी प्रतिक्रिया के बीच
ये जो व्यस्तता के पर्वत है बढती जाती है रोज़....
teeno kavitaen bahut sunder hai...BDHAI sweekar karen...!
SHUBHKAMNAYEIN MERI AAPKO..
जवाब देंहटाएंSOCH KO SYAAH MEIN ISI BHAANTI UTAARTE RAHEIN!!