एक रंग सिंदूरी::
सुबह
रंग फीके धूमिल, आज
ऊसर धूसर बरसाती
एक कौव्वा खिड़की के बाहर
झाँकता अंदर
आँखे गहरी स्याह, इतनी
कि चमकतीं
भूरे सलेटी आसमान में
उड़ता एक पतंग
तीखा सिंदूरी लाल
गौरैया भरती उड़ान
उतरती एक झपाटे से
जीवन के नशे में चूर
कोई गुज़र गया
कोई ज़िंदा बहुत
मैं कुतरती सेब पढ़ती अखबार
हर दिन सुबह की खुराक
फिर देखती बाहर
और सोचती
क्या तर्क है
इन चीज़ों का
क्यों हैं बातें ऐसी
जैसी हैं
किस चाह के पँख
खुलते हैं जैसे आसमान
कौन पशु निकालता है
अपने बघनख पैने पँजे ?
किस ईश्वर का अनावरण
होना तय है ,
ये तय करेगा कौन
कि ईश्वर है अगर
तो करेगा तय वही न
हम सब बैठे हैं
बोलते बड़ी बातें
मुड़कर निकालते
अपनी खामिय़ाँ
कहते सब सही ही किया था
तब जो किया था
आगे भी करेंगे
एक स्त्री इन सब से परे
बैठी है , चुकुमुकु
हथेली फैलाये
दूसरी लगाती है उनपर
एक रंग सिंदूरी
(2)
लालटेन और मकड़े के बीच::
लालटेन और मकड़े के बीच
एक वृत है रौशनी
हल्दी
और लाल
ज़रा सा जामुनी ?
शायद?
एक ज़र्रा ज़्यादा
एक सूत कम
कूची की
एक फिराई और
एक रेशा कल्पना
ज़रा सा सटीक
गणित का सूत्र
एक बिन्दु
खिलता पल्लवित होता
प्रकाशवान , फूटता मसें भीगतीं
अंग प्रत्यंग
एक खुली खिड़की
एक रंग सलेटी
बिन आँखों के
कही जाती कथा सांगीतिक गाथा पुरानी
नदी का रंग बदलता
लाल नीला संगीतमय
हँसी की छौंक में होते बुद्ध
देखते अस्तित्ववादी स्वप्न
पुरातन काल से
रहते जीवित अमर पावन सफेद
बावज़ूद लगातार बहती नदी के
उसकी आकृति के
बावज़ूद कि कूची
कई बार बनाती प्रश्न
खुशख़ती सुघड़ साफ स्पष्ट
पर लालटेन और मकड़े
के बीच
हमेशा रहती रौशनी
एक वृत उजाला
एक के भीतर एक
एक के बाहर सब
(10.06.11)
(हुसैन की पेंटिंग बिटविन द स्पाईडर ऐंड द लैम्प पर )रात भर बूँद भर शहद::
मैं कूटती हूँ ,काली मिर्च , एक मुट्ठी जड़ी , एक पत्ता तुलसी , एक बूँद शहद , एक फाँक अदरक , कूटती हूँ एक साथ .. तुम मेरे पीठ पीछे, देखते , उठाते हो एक लट , चूमते हो गर्दन , एक नस , शँख कान , सब्ज़ बाग , जीभ से खींचते हो रेखा , और हम साथ साथ पकाते हैं , रात का भोजन , थोड़ी सी मदिरा , इतना सा धूँआ , मीठी सी डली , हल्की एक चिड़िया , बौड़म सी हँसी , नशे में प्रमत्त , भारी से पोपटे , भारी भारी तन हल्का सा सेमल मन , छुपती छुपाती अँधेरे में कौंध , अंतरंग गीत , एक बार फिर से , फिर से , एक बार
पर क्यों तुम हो मुझसे हज़ारों मील दूर ? काली मिर्च और तुलसी ? और एक बार फिर तुम भूल गये , फिर से ? एक बूँद शहद !
जीवन का रसायन::
चुप रात के अँधेरे कोई गीत नहीं बहता , झीसी गिरती है मन पर देखती है कोई भूली हँसी , रात के अँधेरे कोई आँख के चमकते कोये की कौंध में चमकता है सपना , मछलियाँ तैरती नहीं अब पानी में , कंघी के कोर से सिंदूर लगाती माँग भरती कोई स्त्री नहीं दिखती , कोई बच्ची के खिलौने का बक्सा , कोई छिपाई भूली मोतियों की माला , कोई कोयले वाली रेल का उड़ता धूँआ , कोई सफर जाने कहाँ को , जाने किधर को , हुम हुम करती छाती से फड़फड़ाता एक साँस पहुँचता नहीं क्यों अब तुम तक ,पसरे खेत में , हिलते धान के बीच हौले से एक पल तिरता है , तैरता है
ओह समय का कैसा भोलापन , बोलो तो कहाँ निकल जायें , उँगली के कोर पर अटका स्पर्श कैसे तुम तक पहुँचा दें , इस बेचैन तार का तरंग , कितनी ताकत है मुझ में और कितनी तुम तक , बेबस हताश जीवन के भरे पन को , बोलो न कैसे अर्थ दे दें , इस भूरे धूसर दिन में कैसे रंग भर दें , बोलो न कैसे
बियाबान उजाड़ का कैसी मार्मिक संगीत है , मुड़ कर देखते खुद को , और इन सब को देखते तुम , भरे दिन में भरे दिल से रूँधता गीत , बारिश गिरती है रात , बारिश गिरता है दिन , मैं पढ़ती हूँ कीर्केगाद , मछलियाँ पढ़ती हैं पानी और तुम पढ़ते हो अकेलापन
काया घुलती है शाम में जैसे घुलता है स्वाद , धूँआ भरा । हमारी बात चुप बैठती है ,समेटती अपनी बदन ,ज़रा शर्म के लज़्ज़त से भरी , कितनी बार यही होता है , ऐसे ढीठपने का खेल , तुम्हारे शरीर का वृक्ष भरता है मेरे आँगन में अपने शाख , शाख पर पंछी , पंछी की चहचहाट , उगते दिन का सूरज , एक दिन और , काश कि तुम समझते , काश कि तुम्हें समझा पाती , इस जीवन का रसायन शास्त्र , इस सफर की ज़रूरतें , काश !
सिर्फ इतना , बहुत::
सोचती हूँ बार बार हमारी तलाश
संसार की , नदी नाले पहाड़ की
उदात्त स्नेह और तरल इंसानियत की
तीक्ष्ण घृणा की और बहुत सारी लाचारी की
अपने होने की दुश्वारियों की
सुख के मीठे तालाब की
एक दूसरे तक आकर क्यों खत्म हो जाती है ?
मैं सुनाती हूँ तुम्हें पचास झमेलों की कहानियाँ
तुम , अपनी सुबह शाम और रात के राग
और तमाम दुनियावी बातों के बीच
अचानक
परदा गिरता है
परदा उठता है
एक फूल खिलता है
नदी में चाँदी मछलियाँ तैरती हैं
तुम्हारी आवाज़ अपने रंग बदलती
तितली बन जाती है दुलार में
कभी जँगलों में विचरते हाथी और नदी का कछुआ
सर्द रात में चमकते जुगनू
समंदर की लहर का हाहाकार
जली मिट्टी के काले झाँये सोंधे बर्तन
कभी चट पहाड़ी बंजर में उगा नन्हा कोई हरा पेड़
हमारे आसपास दीवार दुनिया विलुप्त हो जाती है
खींच ले जाते हो मुझे तुम उस लोक में जहाँ
किसी कारवाँ के पीछे नीले रेत की नदी गुबार उड़ाती है
चेहरे को नकाब में छुपाये हम देखते हैं
एक दूसरे को
चोरी से भाग गये किशोरों की चमक आँखों में
जो गुपचुप हँसते जानते हैं
रात का रहस्य
दिलरुबा की धुन
चेहरे पर हवा की तेज़ी
बदन का लचीला नृत्य
पूरी धरती
समूचा आसमान
यही है कुछ जहाँ हम खोजते खोजते
पा जाते हैं , एक साथ
इसी रोज़ की दुनिया में हर बार
तलाशने और पा जाने का
एक मीठा सुरबहार
अच्छी कविताऍं हैं। बधाई। तमाम कूड़ा लिख रहे कवियों के मध्य इनका काव्य सुगठित है।
जवाब देंहटाएं"एक फूल खिलता है
जवाब देंहटाएंनदी में चाँदी मछलियाँ तैरती हैं
तुम्हारी आवाज़ अपने रंग बदलती
तितली बन जाती है दुलार में "
भूरे सलेटी आसमान में
जवाब देंहटाएंउड़ता एक पतंग
तीखा सिंदूरी लाल
गौरैया भरती उड़ान
सब कवितायेँ एक से बढ़कर एक हैं, प्रत्यक्षा जी को बहुत बधाई.......
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर भी की गई है!
जवाब देंहटाएंअधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।
behtreen prstuti...
जवाब देंहटाएंएकदम ताज़ा मौलिक सोच की कविताएँ हैं, जीवंत मुहावरों से युक्त भाषा और शैली कविताओं की सम्प्रेषणीयता में चार चाँद लगा रही है, वधाई प्रत्यक्षा जी।
जवाब देंहटाएंकल 05/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
एक समय में विविध विषयों पर आधारित रचनाएँ पढना बहुत अच्छा लगा..
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना प्रस्तुति हेतु आभार!
सार्थक प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें .
जवाब देंहटाएंकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें.