राजीव कुमार ::

 




















अलग कहाँ थे हम::




प्रार्थनाओं और समिधा के बीच


पूजा पालने लगी थी हमें


नैवेद्य में प्रायः


हम प्रयासों में रहे


कि अपनों तक हम पहुँचें


सबसे सुन्दर भोज्य रूप में


सुगन्धित सुमन का वेश रहे हमारा


अपनी कमियों के साथ भी हम ग्राह्य हों |




उत्सव आसन्नप्रसवा का रहा


या गन्धर्वों को हवि दी हो हमने


टोलियाँ मृदंग्वादकों, मजीरों और ढोल थापकों की रही हो


या संस्कार गायन की पड़ोसिनों और सवासिनों की


अनवरत प्रार्थना, मौन और परिणय से अभिभूत रहे हम |




प्रणय, प्राणिक वंदन, प्रिय संभाषण और प्रबोधन


मेरी पूजा, परिणय और जीवन-मांगल्य के पर्याय रहे


विहँसते हुए जब तुम्हें छोड़ता कार्यालय के द्वार


एकटक देखता बेटी का स्कूल के दरवाज़े से बाहर आना


माँ को शल्य-कक्ष से बाहर निकालने की आतुर वेदना


बहन को विदा करती नम आँखें और बोझिल पाँव


अंतिम झलक उनका देखना जिनके लिए......


मेरी जुबाँ अशक्त रही हमारे रिश्ते को पारिभाषित करने में


मेरा वजूद ही जिनके जीवन में उलझन रहा


और जिन्हें मैं कभी कह नहीं पाया


अगर ज़माना इतनी साफगोई बर्दाश्त कर लेता तो मैं कह पाता


कि सुखद रहा है तुम्हारे साथ कुछ पल के लिए भी होना |




स्त्री के सारे रूप तुम्हारी छवि लिए हुए


वासना असम्पृक्त देव आकृतियाँ विराजतीं


तुमने ही विधना के साथ किये कुछ योजन


हर जगह हर शै में तेरा रूप


मैं तुम्हारे हर रूप को मुग्ध देखते हुए प्रयाण करूँगा


मेरी प्रार्थना फलित होगी सुखद आकाशवृष्टियों के साथ |




परन्तु मैं समझता रहा


तुम सिर्फ यज्ञवेदी रहीं


हवन-कुण्ड में भस्माभूत होने


के चरित्र में मैं था


महज़ धरा रह जाना तय किया तुमने


गगन होने का वांशिक प्रच्छालन मुझे करना था


सारे किस्से और सरोकार, सारे अक्स सिर्फ और सिर्फ मेरे


तुम कोई और छवि सिरज ही नहीं पायी;


जबकि अनेकों रूप में तुम्हें पाना और


एक से ही जीवन का सारा व्यापार-प्रचालन


एक ही प्रणय के हिस्से


एक ही प्रार्थना के मंत्र


अलग कहाँ थे हम ....!



गुंजन, गान, संवेदना और सिसकियाँ::





कलियों की असंख्य बौराई हुई फौज

चटखकर रंग और रोशनी को चिढाना

मदमस्त भौरों का प्रेम में आहत

कोई छंदमुक्त गान

जिसे आखरी बार भी उसके द्वारा

स्वर दिए जाने पर

लयबद्ध नहीं किया जा सका

आड़े आ गयी उसकी परुषता

उसका विद्रूप आकार |

जब जंगल समेट लेंगे

अपना घर

सूख जायेंगी असंख्य अमरबेलें

लगी हुई टहनियों पर ही,

सिसकियों या

सदियों के सिमटती तृषा के

शोक-गान के मध्य ;

हमारी नागरीय सभ्यता के अवसान-काल में भी

ध्वन्यात्मकता अस्तित्व की इसी तरह बदल रही होगी काया,

हमारे अजायबघर कैसे बचा पायेंगे

वे गुंजन, गान, संवेदना और सिसकियाँ

और टूटना गगनचुंबी गर्वोक्तियाँ और मायाजाल .....?


कुछ शब्द ..कुछ पंक्तियाँ ::


कुछ शब्द, कुछ पंक्तियाँ
मिल लेते थे हम उनकी ढलानों पर
दरख़्त नाराज़ होने लगा था हमारी लगावट पर
फूल हँस देते हमारी अठखेलियों की बाल सुलभता समझ;
हमारी परवान चढ़ती ज़िन्दगी
... ढूँढने लगी थी एक खाली जगह; जहाँ हों
अनगिनत उलझे हुए रास्ते
हरफ़ों में बयाँ तिलिस्मी शब्द-गुफाएँ
बेतरतीब खाली जगह हाशिए सी
कुछ पुराने दर्द संकेतों में अधलिखे |

फिर मिल गयी
एक जगह,
एक आकाश,
एक अंतरिक्ष,
हम छुपने लगे दराजों में,
अलमारियों की तामीर पड़ जाती कम
पुरानी किताबें दरकने लगतीं हमारे युगल भार से
ताज़ा किताबों में हमने छुपा लिया अपने को
याद है - तुमने कहा था ये क्लासिक्स नहीं
काल निर्पेक्ष मूल्य नहीं होंगे शायद इनमें;
परन्तु उनकी बुनावट में युग-भार और युग-वैषम्य था
वो किताबें कोई न कोई ले जाता सुखनवर,
हम छुपते रहे हैं उन पन्नों में
जो शायद उनके काम के ना थे
जब तक वे रख दी जायं शेल्फ पर छुपाकर
किसी दूसरे के हाथों में जाने तक
आओ पुनरावलोकन करें अपने सफ़र का, उल्फत का, रहस्यों का
कैसे हम ने कई युग जिए किताबों में, ख्वाब सजाते ...!


अदालत ::


मक़तल से कठघड़े  में खड़ा
पस्त हो गया मौला
मंशूर सी सिमटती कितनी और बची ज़िन्दगी
ज़िगर में हाल कहाँ कि लहू रोऊँ  
जिरह  क्या .....बे-आबरू ही होगी बची खुची सख्सियत    
कैसा इंसाफ़ 
मुंसिफ़, गवाहों  के चेहरे दज्जाल से  
किसी  दमसाज़  का हाथ नहीं कन्धों पर मेरे
(हाथ खींच लिए थे उन्होंने मुझे डूबता देखकर)
मुहर्रिर ने झूठों का पुलिंदा सजा कर रखा है 
इलज़ाम अदालत का वक़्त जाया करने का भी
तौहीने अदालत का ज़बरनामा तैयार
फ़रेब की नयी इबारत
कुछ टोटके, कुछ मन्त्र पढेंगे वक़ील
खुसर-पुसर दरयाफ़्त के मज़मून पर
दरोग़हल्फ़ी  हर कदम पर      
संतरी भी मोर्चे पर खड़ा खिलाफ़, गला खखारता  
ज़ब्ती का फ़रमान कहीं  पहले ही नहीं सुना देगा 
कुर्की को धड़ाम से गिरेंगे वर्दी वाले  मेरे घर भारी बूटों में
(मिलेगा क्या, मिलेगा क्या ....पर छोटी बच्ची घर पर)
खौफ़ में क़ायनात  तयशुदा हालातों से अब  
कुछ ज़ज्बात, कुछ ही वफ़ाएं बचीं ज़िन्दगी भर की कमाई में   
(और सच के  कुंद असलहे)
अपने  ही क़त्ल  का चश्मदीद  अकेला  मैं  क़ातिल के सिवा  ....! 


मक़तल-------वध-गृह, कसाईखाना
मंशूर------तितर-बितर
दज्जाल ------बहुत बड़ा छली, मायावी  
मुहर्रिर-------लिपिक
दमसाज़------दोस्त
दरोग़हल्फ़ी------झूठी कसम खाना

5 टिप्‍पणियां:

  1. राजीव के पास बहुत समृद्ध शब्द सम्पदा और नितांत मौलिक अभिव्यक्ति है. भाव तो हैं ही मगर उन्हें अभिव्यक्त करने के लिए बहुस्तरीयता ...सघन परतें हैं. ब्रिलिएंट !!!

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  2. राजीव जी को पढ़ना हमेशा सुखद अनुभूति देता है ..
    अपने ही क़त्ल का चश्मदीद अकेला मैं क़ातिल के सिवा ....!

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  3. बधाई राजीव जी!
    आपका उत्कृष्ट लेखन निर्बाध चलता रहे!
    शुभकामनाएं!

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