अरुण देव का पहला कविता संग्रह 'क्या तो समय' २००४ में भारतीय ज्ञानपीठ से आया था. लम्बे इंतज़ार के बाद इस वर्ष उनका दूसरा कविता संग्रह 'कोई तो जगह हो' राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. फूलो की ओर से उन्हें बधाई और आज उनका जन्म दिन भी है... शुभकामनाएँ ...
अरुण देव की दो नई कविताएँ. पहली कविता 'तुम्हारा वक्त' और दूसरी कविता 'घर' .
____________________________________________________
तुम्हारा वक्त
कुछ चीजें अभी भी रह गई हैं
मटमैली नदी की धार के पत्तों पर रखा
दीप, जलता बुझता फिर भी जलता हुआ
रह गईं हैं छत पर ओंस की बूंदे
बूंदों में चमकता जल
जल से बह निकला सूरज का सुनहलापन
पलकें भारी हैं तुम्हारी उनपर आशंकाओं
के मेघ हैं
तुम्हारी देह का पानी चढ रहा है मेरे
ऊपर
पंखे से जलने की गंध आ रही है
वोल्टेज ज्यादा होने से शायद फुंक गया
है तार
मेरे अंदर कुछ गिरने की आवाज़ शायद तुम
तक आई हो
कामना, प्रेम, वासना क्या नाम दूँ
उमस और गंध से भर गया है कमरा
खिड़की खोलता हूँ, खिड़की के उस पार बादल
का एक टुकड़ा
है
बची रह गई है अब भी उसमे रुई
तनी हुई रस्सी पर पहिये के सहारे दौड़ने
का यह वक्त है
यह वक्त नही गुलाब का यह वक्त है मशरूम
का
कि उसे निगल जाओ
यह फूलों के अपनी डालियों पर खिलने का
वक्त नहीं
यह चूजों के स्वाभाविक मृत्यु का वक्त
नहीं
यह किसी स्त्री - पुरुष के अकुंठ प्रेम
का वक्त नहीं
यह गान का वक्त नहीं
यह शाम के धुंधलके और सुबह के कुहरे का
वक्त है
यह वक्त कौंधते दृश्यों का है यह वक्त
चमकती रातो का
यह शोर, शहर और शरीर का शातिराना वक्त है
ठेले पर एक कुम्हलाया हुआ लड़का बेच रहा
है कुछ ताज़ी सब्जियां
गोभी, मटर, लौकी, करैला
बची रह गई हैं सब्जियां उनका हरा रंग, उनका कसैलापन, उनकी नमी
मैं अगर गिर जाऊं प्रेम में कि घिर
जाऊं वासना में
कि यह तुम्हारे उठने का वक्त है.
घर
१.
सबसे पहले फावड़ा आया एक झुके हुए मजदूर
के कंधे पर
फावड़े ने झुक कर कहा धरती से
मिट्टी चाहिए
मजदूर के नाखूनों से मिट्टी का पुराना
परिचय ठहरा
उसे पता था कहाँ से लेनी है मिट्टी, कहाँ की लेनी है मिट्टी, कितनी लेनी है मिट्टी
मिट्टी भुरभुराइ और उसके अंगोछे में आ
बैठी
सिर पर प्रतिमा की तरह ले जाते उस
भगीरथ को ज़रा देखो
सारी इमारते उसी की लायी हुई हैं.
२.
मिट्टी ने कहा जल से थोडी देर के लिए
बस जाओ मेरी देह में
फिर दोनों निर्वस्त्र खड़े हो गए सूरज
के सामने
कि पता ही नहीं चलता था कि पानी ने
कहाँ-कहाँ गढ़ा है उसे
कि पानी के आकार में खुद वह ढल गया है
कि
पानी ने उसके अंदर तान लिया है अपना
होना
कि तयशुदा आकार में दोनों कैसे एक साथ
ढल गए होंगे
सूरज तपता रहा उनके बीच
पकती रही ईंट
३.
बुग्गी पर सवार अल सुबह नदी किनारे
घुटने तक झुके
ईंटो ने कहा रेत से कि आओ चलो हमारे
साथ
हमारे बीच रहना
न रिसना, न भुरभुराना, बस जकड लेना
जकड़े रहना
रेत पानी से बाहर आई ..
रेत के पीछे-पीछे दूर तक टपकता रहा
पानी
पानी देर तक बुलाता रहा …
४.
पत्थरों के पास घर के आदिम अनुभव हैं
अपनी दीवारों पर सजा ली है उसने
मनुष्यों की यह सभ्यता
अब भी वह हर एक घर में है
हर घर एक गुफा है
पत्थरों की मुलायम और नर्म छांह में
खिले हैं संततियों के फूलों जैसे होंठ
पत्थरों के पास आरक्त तलवो की
स्मृतियाँ हैं
पत्थरों ने अपनी गोद में बिठाया है बाल
संवारती सुंदरियों को
पत्थर की शैया पर पूर्वजों की भर आँख
रातें हैं
पत्थर सीमेंट के निराकार में सामने था
कोई इस तरह भी अपने को मिटा सकता है
कि उसका होना भी अंगुलिओं से सरक जाए.
५.
दीवारे जब उठी तो सब आए .. मेघ, कभी घने कभी भरे
सूरज इस तरह तपा कि बस
हवा कुछ पत्ते उड़ा लाई घर में
ईंट, बालू, रेत सब सोच में पड़ गए
राज मिस्त्री अपने घने मूंछों में
मुस्काया उसे पता था लोहे का
लोहा धौंकनी से अभी-अभी बाहर निकला था
उसके चेहेरे पर आब
शरीर पर रुआब
उसके सांवले जिस्म पर धारियां थीं
लोहार के चोटों की
लोहार ने उसे तने रहना जतन से सिखाया
था
सबसे पहले ईंट गया उसके पास और उसने
अपने पुराने सम्बन्धों का वास्ता दिया
जब दोनों साथ रहते थे
पर ईंट भी अब कितना बदल गया था
रेत रोड़ी और सीमेंट के बीच अपने को गुम
करने का आमंत्रण लिए उसका पुराना मित्र खड़ा था
दीवारों पर छत
छत में सचेत लोहे को इस तरह मिला आजीवन
निर्वासन
६.
कठ फोड़वा ले आई काठ
खट- खट- खट की आवाज़ से भर उठा वह अधबना
घर
बनाया उसने चौखट
खिड़कियाँ, दरवाजे, रौशनदान कि सुबह-सुबह आए सूरज
कि आए हवाएं
कि दिन और रात..आएं
७.
इन्द्र्धनुष से एक एक कर उतर आए सातों
रंग
जब बन गया घर
मजदूरों ने कहा चलते हैं अपने घर कि घर
कभी हमारा नहीं रहता
राज मिस्त्री की हाथ की लकीरों में बस जाता है पुराना घर
जब वह फिर शुरू करता है कोई नया घर.
_______________
'पत्थरों के पास घर के आदिम अनुभव हैं
जवाब देंहटाएंअपनी दीवारों पर सजा ली है उसने मनुष्यों की यह सभ्यता
अब भी वह हर एक घर में है
हर घर एक गुफा है
पत्थरों की मुलायम और नर्म छांह में
खिले हैं संततियों के फूल जैसे होंठ
पत्थरों के पास आरक्त तलवो की स्मृतियाँ हैं
पत्थरों ने अपनी गोद में बिठाया है बाल संवारती सुंदरियों को
पत्थर की शैया पर पूर्वजों की भर आँख रातें हैं'.......!!!
बहुत बहुत बधाई अरुण जी ! अपर्णा आभार तुम्हे भी...
सुन्दर कविताएं, सभी एक-दूसरे बेहतर...
जवाब देंहटाएंकिसी ने कहा कि अरुण की कविताएँ धूप- चाँदनी सी....
किसी ने कहा अरुण की कविताएँ हवा, मिट्टी, आग और पानी की...
अब मैं क्या कहूँ..... सोच रही हूँ .
अरुण देव जी को जन्मदिवस की मंगल कामनाएँ, बेहतरीन कविताओं के लिए बधाई...अपर्णा दी इतनी कविताएँ पढवाने के लिए धन्यवाद!!
अरुण जी को पढ़ना और सुनना दोनों एक अलग तरह के ही अनुभव से दोचार होना होता है ....श्रेष्ठ कवि की श्रेष्टतम कवितायें ! श्री देव जी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ !
जवाब देंहटाएंदोनों कवितायें बेहतरीन …………बहुत बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंaanand aaya padh kar. janmdin par badhai ke sath
जवाब देंहटाएंदोनों कविताएं बेहतरीन हैं... लेकिन 'घर' में जो सघनता है वो कमाल की है... इसे पढ़ते हुए मुझे जीवन की कई घटनाएं याद आ गईं... अरुण की कविताओं में इधर जो सांद्रता और सघनता आई है वह निश्चय ही प्रशंसा के काबिल है... शुभकामनाएं और बधाई।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचनाएँ !
जवाब देंहटाएंदोनों कवितायेँ खूबसूरत .....बात करती हुईं . अच्छा लगा पढना .
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचनाएं ... रेत के पीछे-पीछे दूर तक टपकता रहा पानी
जवाब देंहटाएंपानी देर तक बुलाता रहा …...इसमें कितनी तड़प छुपी है, अद्भुत ... और आखिरी वाली कविता पर तो यह कहूँगी कि जब बन गया घर
मजदूरों ने कहा चलते हैं अपने घर कि घर कभी हमारा नहीं रहता
कितना सही... जब हमारा घर बना तो हमने मकान में शिफ्ट किया .. फाइनल छूटे काम को देखने के लिए घर के बाहरी कौने के कमरे में दो मजदूर लड़के थे, वहीँ कपड़ो के नीचे दबाया टीवी वो रात को देखते थे ... आखिर में काम निबटा और उन्हें घर छोडना पड़ा ... कितना बुरा भी लगता है... पर यही नियम है... और यही सत्य इस कविता ने उजागर किया ...
bahut achha laga padhkar.. arunji ki kavitayen behad pasand hain mujhe..
जवाब देंहटाएं‘फूलो के जन्मदिन पर’ गुफा-घरों में आदिम अनुभवों और मानव सभ्यता के भित्ति चित्र देख। संततियों के फूल जैसे होंठों पर तिरती मासूम मुस्कान और पत्थरों की गोद में बैठी बाल संवारती सुंदरियों और पाथर-शैया पर सोए पूर्वजों की एकटक ताकती आंखों की रातों में जगमगाते तारों से भावी संसार के स्वप्न देखे...कहां हूं मैं? फूलों के जन्मदिन पर अनुभवों की तिलियों का पीछा करते-करते कहां जा रहा हूं इस आदिम खोह में, दिक्-काल से परे शायद गहन अंधेरे में ‘ तुम्हारा वक्त’ और ‘घर’ की उजली कविताओं की ओर...
जवाब देंहटाएंBahut Badhai Arun ji!
जवाब देंहटाएंअरुण जी की कविताये बहुत गहरे भाव लिए होती है ..अच्छा लगता है उन्हें पढना ....शुभकामनाये
जवाब देंहटाएं