डॉ .प्रभा मुजुमदार ::


प्रभा मुजुमदार के पास अपनी स्त्री के साथ घर-बाहर के अनुभव हैं,स्मृतियाँ हैं.इसलिए यहाँ पहचान से लेकर विस्थापन का द्वंद्व है और शब्द औजार की तरह भीतर की टूट-फूट को दुरुस्त करने को बेचैन हैं.

 
पहचान :
                                    
  
मैं अपने वृत से निष्कासित
एक बिन्दु हूँ.
एक अलग थलग तारिका
अपनी निहारिका से दूर.
सदियों पहले
गुरुत्वाकर्षण के दबाव का
निषेध किया था मैने.
आज तक इसी अपराध की
मै कीमत चुका रही हूँ.
प्रकाश और ऊर्जा से
समय के नियत अंतराल से
जीवन और गति से
वंचित कर दी गई हूँ.
अपनी ही शर्तों पर
अपने हालात पर
छोडी हुई मै
इतने विराट अंतरिक्ष में
परिचय ढूंढ रही हूँ.

निर्वासन के बाद: 
                                      



हमारे आपसी सम्बन्धों के बीज को
मिट्टी हवा और पानी में
उपजाने की बजाय
हमने बांध कर रख दिया
चहार दीवारी के भीतर
रस्मों और विधानों का
मजबूत ताला जकड दिया.
खुली जमीन
खुले आसमान का खौफ
गिरफ्त से कुछ
छूट जाने का सन्देह
विचलित करता रहा.
एक दूसरे से अनजान
सम्वेदनहीन और असम्पृक्त
उम्र की लम्बी राह
यूँ ही चलते रहे
साथ साथ
  


परछाईं :


चूल्हे की आंच पर
तमाम उम्र
रसोई बनाती वह
अपने भीतर की आंच को
क्रमश: बुझते हुए
देखती है.
झाडते/बुहारते/घिसते/रगडते
फर्श, बर्तन और कपडे
अंतत: छिजा चुकी है
केवल हाथों को नही
समूची देह और मानस भी.
काँल बेल की हल्की सी
आवाज के साथ लपकती
थोडी भी आहट से चौकन्नी
महसूस नही करती वह         
अपने ही भीतर उठ रहा
ज्वार और भाटा.
दरवाजे पर चिपकी
दिन ब दिन
धुन्धलाती आंखे
नही पहचान पाती
अपना धुंधलाता जा रहा अक्स.
शायद पूरा वज़ूद ही
सिमट आया है
परछाई में.
यूँ ही चुकते चुकते
चुक गयी है
चुपचाप.


विस्थापित:



हर दिन सहेंगे हम

विस्थापन का दर्द

जमीन से उखड जाने का

अवसाद

इसी जानी पहचानी छत

चहार दीवारी

और अपनों के ही बीच.

हर रोज हवा

ले कर आती है

कुछ बदलाव

धूल/ धूएं/मिट्टी

और कोहरे की नई पर्त.

बदल जाते है

दीवारों/दरवाजों के साथ

अपनों के भी चेहरों के रंग

प्याज की पर्तों की तरह

उतरती है

एक एक पर्त

बदलता है

सम्बन्धों का अकंगणित

सब कुछ यही

यथावत होने के बावजूद

कुछ भी नही रह गया

पहचाना. 


अच्छे लोग:
                                       



किसी को भी
नाहक परेशान नही करते.
बहुत अच्छे होते है
अच्छे लोग.
जब तक उनसे
नहीं करते आप
अच्छे शब्दों के अलावा
किसी अच्छाई की उम्मीद
बडी स्निग्ध मुस्कान लिये रहते है. 
बडे प्यार से पूछते हैं हालचाल
यही मनाते हुए
कि कोई दुखडा ना रोना
शुरु कर दें आप.
अपने लायक कोई सेवा
कहते है
इस कदर दबी जुबान से
कि सचमुच ही
न मांग सके कोई
अपने हक का एक टुकडा.

दिलासा देते हुए
इस कदर हो जाते है दीन
विश्वास ही नही होता
उन्हीं के दुश्कर्मों को
भुगत रहे है आप.
किसी भी बहस में 
नहीं पडना चाहते
अच्छे लोग

और शिकायतों/ मांगों
विरोध और प्रतिरोध की
हल्की सी भनक लगते ही
बदल देते हैं विषय
नियमों/ कानूनों का हवाला देकर
झाड लेते हैं पल्ला
कुछ नही है मेरे हाथ
सब ऊपर से हुआ कह कर
बदल देते हैं मुद्रा
एकदम निर्विकार/
उदासीन / खिन्न
त्रस्त हो जाते हैं 
परिचय के चिन्ह
अपनत्व की आश्वस्ति
मिट जाते हुए.
बहुत जल्दी टूट भी जाते है वे.
थोडी सी शक्ति
दादागिरि/ धमकी का प्रभाव
किसी ऊपर वाले की
छत्रछाया का आभास
पलभर में 
भीगी बिल्ली बन
कर देते हैं
आत्मसमर्पण .

बुरे लोगों से
दूर ही रहना चाहते हैं
अच्छे लोग.
कभी नहीं लेते
कोई स्टैंड
प्रतिबद्धता को
बाजार भाव से आंक कर
बदल देते हैं .
सबके साथ हर दम      
अच्छे बने रहना
जानते हैं .
अकसर
बिना रीढ की हड्डी के
होते हैं अच्छे लोग.


शब्द :


मेरे लिये
शब्द एक औजार है
भीतर की टूट फूट/ उधेडबुन
अव्यवस्था और अस्वस्थता की
शल्यक्रिया के लिये.
शब्द एक आईना
यदा कदा अपने स्वत्व से
साक्षात्कार के लिये.
मेरे लिये
शब्द संगीत है
जिन्दगी के सारे राग
और सुरों को समेटे हुए.
दोपहर की धूप  मे
भोर की चहचहाट है
रात की कालिख मे
नक्षत्रों की टिमटिमाहट.
मेरे लिये शब्द एक ढाल है
चाही-अनचाही लडाईयों मे
अपनी सुरक्षा के लिये.
मेरे लिये शब्द
आँसू है
यंत्रणा और विषाद की
अभिव्यक्ति के लिये.
हताशा की भंवरों से
लडने का सम्बल है.
मेरे लिये
शब्द एक रस्सी की तरह
मन के अन्धे गहरे कुएं मे
दफन पडी यादों को
खंगालने के लिये.
शब्द एक प्रतिध्वनि है
वीरान/ अकेली/ निर्वासित नगरी मे
हमसफर की तरह
साथ चलने के लिये





शब्द:

शब्द अब
शब्दकोशों से बाहर निकल कर
तलाशने लगे है
अपने अर्थ और सन्दर्भ
उपयोगिता/ विस्तार
और व्याकरण के नियम.
वे रोकना चाहते है
किसी भूलावे और छलावे की तहत
अपने गलत प्रयोग
अर्थ/ मीमांसा और विवेचनाएं.
संकीर्ण स्वार्थों के लिये
अपनी तोड-मरोड.
वे नही चाहते अब
किसी कु-पात्र के कानों का संगीत
कठपुतली की तरह नाचना
किसी कुशल मदारी के हाथो मे
बन्धी डोर से.
ड्राइंग रुम मे
मढ कर रखे गये
प्रशस्ति पत्रों से बाहर
निकलना चाहते है.
उन्हें नही करना है
किसी के चरणों मे
फूल बन कर समर्पण
शब्द चाहते है शक्ति
दर्पण बन कर
समय और समाज का प्रतिबिम्ब
सुबह की किरण
अन्धेरे, धुन्ध और दुविधा को
मिटा देने के लिये.        





डॉ . प्रभा .मुजुमदार   मुजुमदार  
सम्प्रति :तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग में कार्यरत 
काव्य संग्रह: अपने-अपने आकाश, ज़मीन तलाशते हुए
विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित 
mujumdarprabha@rediffmail.com



 
       

 

5 टिप्‍पणियां:

  1. प्रभा जी,यथार्थ के धरातल पर गहरे तक गड़ी आपकी रचनाएँ अपने मौलिक प्रतिमानों से जड़ी हुई, नारी के मनोभावों का आईना बन गई हैं. विस्थापित रचना दिल कू छू जाने वाली है..बहुत बहुत साधुवाद.
    मंजु महिमा

    जवाब देंहटाएं
  2. सहज-सरल भाषा में जीवन के विविध पक्षों से ऊर्जा और संवेदना ग्रहण करती कविताएं हैं प्रभा जी की। कोई काव्‍य कौशल नहीं, कोई नकली बुनावट नहीं, सब कुछ जैसे कविमन से झर रहा हो... बधाई और शुभकामनाएं प्रभा जी के लिए...

    जवाब देंहटाएं
  3. शब्द अब
    शब्दकोशों से बाहर निकल कर
    तलाशने लगे है
    अपने अर्थ और सन्दर्भ
    उपयोगिता/ विस्तार
    और व्याकरण के नियम
    गहन वैचारिक अनुभूति की कवितायेँ ,
    इस दौर में संवेदनशीलता का यही रूप आवश्यक है
    प्रभा जी को बहुत बहुत धन्यवाद्

    जवाब देंहटाएं
  4. प्रभाजी, एकदम यथार्थ को सरल और सटीक शब्दोँ मेँ व्यक्त किया है आपने । बधाई । सस्नेह

    जवाब देंहटाएं
  5. सभी कविताओं में कोई नाटकीयता नहीं। सहज, सरल शब्द सीधे ह्रदय में उतर गए. प्रभाजी को हार्दिक बधाई।

    जवाब देंहटाएं