मनोज छाबड़ा ::

















१.
तुमसे पहली बार मिला था मैं जब

तुमसे पहली बार मिला था मैं जब
यों लगा
मैं पहचान रहा हूँ स्वयं को
तुमसे की गयी बातें
जैसे स्वयं से की थीं
जितने प्रश्न किये थे तुमसे
मैंने ही ढूंढें थे सब उत्तर

तुम्हें छूकर
मैंने अपनी रूह को छुआ
तुम्हें चूमा जब जब
अपने अंतर को थिरकाया
तुम्हारी पारदर्शी आँखों से
झरते रहते हैं वे सारे मौसम
जिनमे मेरे व्यक्तित्त्व की
सभी खरोंचें छिप जाती हैं

तुम्हारी शाम
मेरे लिए
सूर्योदय की पहली किरण है...


२.
शाम 

शाम
जब तकिये के नीचे
अन्धकार ढूँढने में व्यस्त थी
तुमने
मेरी देह पर
सुलगते हुए हस्ताक्षर किये थे

तुम्हारी पलकों पर
जब सुबह ने दस्तक दी -
रात फिर से
तकिये के नीचे जा छिपी थी
मेरी देह
अब भी बड़े कैनवस-सी अटी पड़ी थी
जहाँ तुम्हारे अगणित हस्ताक्षरों की जुगत जग सकती थी

रात की सियाही
सिरहाने के भीतर
अब भी छिपी बैठी थी


३.
यदि प्रेम एक पेड़ होता

यदि प्रेम एक पेड़ होता
मैं एक पत्ता होता
तो निश्चित है -
तुम हवा होतीं

तब
सभी पहाड़ पिघलकर
झील हो जाते
जिसके किनारे
खूबसूरत पेड़ उगते -
जहाँ से झरते ढेरों पत्ते
झूम जाती हवा
फिर लरज उठते पत्ते
और
महक उठते पेड़


४.
तुमसे बात करने के लिए

तुमसे बात करने के लिए
मुझे चुप्पी का एक शहर चाहिए

चाहिए
बुझे हुए लैम्प-पोस्ट की छांह
और चाहिए मुझे कोसों लम्बा अन्धकार
तथा
उदास चिड़ियों की अतृप्त आवाज़ें

बरसात में
इस प्यासे जंगल के
किसी अनजान पेड़ की सूखी टहनी पर
चुपचाप रख आया हूँ
पिछली सारी चुप्पियाँ
और
खामोशी की दीवारों से
निकाल रहा हूँ
बरसों पुरानी
प्रेम की भीगी फाइलें....

19 टिप्‍पणियां:

  1. dhanyawad, bahut hi achchi aur premmayi kavita....tan man ko bhigo dene wali....

    kuch kuch...mere priya kavi "shamsher" ki yaad dilate hue...

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  2. इस प्यासे जंगल के
    किसी अनजान पेड़ की सूखी टहनी पर
    चुपचाप रख आया हूँ
    पिछली सारी चुप्पियाँ
    और
    खामोशी की दीवारों से
    निकाल रहा हूँ
    बरसों पुरानी
    प्रेम की भीगी फाइलें...

    बहुत ही प्यारी और न्यारी अनुभूति है मनोज भाई!

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  3. वैसे तो कोई आलोचक यहां आकर किसी बासी किताब से सिद्धांतों के चाबुक चला सकता है लेकिन वह कभी नहीं जान सकेगा कि प्रेम करता हुआ मनुष्य अपने सिद्धांत ख़ुद गढ़ता है। उसके अपने बिंब होते हैं अपने प्रतिमान…वह कविता लिखते हुए अपने सीने में झांक रहा होता है…किसी आलोचक के चरणों में नहीं। बधाई मनोज भाई।

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  4. सभी कविताएँ बहुत खूबसूरत...अपने अनूठे अर्थों में प्रेम स्पंदित हो रहा है...

    मनोज जी! बहुत बहुत बधाई, व शुभकामनाएँ....

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  5. सुन्दर अभिव्यक्ति ...मनोज जी की प्रेम से भरी ये कविताएँ अच्छी लगीं .. अपर्णा जी धन्यवाद ..इस ब्लॉग के माध्यम से इन सुन्दर रचनाओ को हम तक पहुचाया ..

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  6. सुन्दर प्रेममयी अभिव्यक्तियाँ !
    "तुमसे बात करने के लिए "
    मुझे अधिक आत्मीय लगी !
    बधाई मनोज जी !

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  7. तुमसे पहली बार मिला जब और शाम ..गज़ब मनोज जी ..आपकी इस प्रतिभा से मुलाकात पहले न हो सकी ..अहसास की.. आपकी ...अपनी ही दुनिया ..

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  8. घनानंद ...ने तो कहा ही है...अति-सूधो सनेह को मारग है.... मनोज जी की कविताएं.....उसी प्रेम का अहसास करवाती हैं...अध्भुत....

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  9. मनोज जी बेहद सुन्दर रचनाये हैं…………प्रेम को समर्पित हर कविता अपना आईना खुद है।

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  10. बहुत सुंदर रचनाएँ पढने को मिलीं

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  11. बेहद प्रभावी, शानदार लेखनी.
    रचना की एक एक लाइन दिल को chhootii गई!
    --
    कभी तो तू इस ज़हान को भूल जाया कर

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  12. मनभावन और हृदयस्पर्शी.. सालों से पढ़ रहा हूं मनोज को, लेकिन लगता है कि उनकी कलम में स्याही की जगह ओस की बूंदे इस्तेमाल होती हैं.. ताज़ी-स्फूर्त-युवा.. जो हर बार आपको शून्य में डूबा छोड़कर भाग जाती है.. फिर, नई जवानी के साथ लौटने के लिए...।।

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  13. प्रेम का अद्भुद स्पंदन .....बहुत अच्छा लगा पढ़ कर ,बधाई स्वीकारे

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  14. मनोज जी, अभी सिर्फ एकबारगी कवितायेँ देख पाया हूँ, बधाई! अच्छी कवितायेँ हैं... अभी आज ही महीनों बाद इस वेब दुनिया में वापसी हुई है, पढता हूँ तो इत्मीनान से बात करता हूँ... अपर्णा जी को भी बधाई!

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  15. प्रिय मनोज / ये प्रेम कविताएँ सुखद हैं - तुम्हारी नई कहन का एक और नमूना | मेरा हार्दिक आशीर्वाद स्वीकारो | कल के पुरस्कार के लिए भी मेरा अभिनन्दन ! परिवार में सभी को यथायोग्य स्नेह-नमन !
    कुमार रवीन्द्र

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