वीणा सिंह ::



















अदन के बाग़ से


अदन के बाग़ से जब भी गिरी है ये हव्वा
फलक की डोर उसकी उँगलियों से लिपटी है
पलक की कोर में चुभती है एक नमी बन के
वो कायनात निगाहों में कहीँ सिमटी है.

वो पुरसुकून चमन एहसास के हसीं लमहे

लमहा-लमहा पकड़ने की पूरी फुरसत थी
था एहसास अपनी आती-जाती साँसों का
वो आब्शार जिसमें चांदनी की राहत थी.

लेकिन अब भी कहीँ ख्वाब कसमसाते हैं
कि पन्नों में दरख़्त बूटे बनके ढलते हैं
अदन के कतरे सीने में अब भी बाक़ी हैं
उदास हर्फ अर्श की लौ बनके जलते हैं.



किंगफिशर 
   
मैं ने अपनी उधार की जिंदगी
मुट्ठी में भींच ली है
और
खुले आकाश के नीचे
उसे कैनवास की तरह फैला दिया है.


मेरी आँखें जूम लेंस की तरह
स्कैन करती हैं
पेड़ों- पत्तों-शाखों को
कुलेलों को हलचल को .


किसी गुप्त कोने में
छुप कर मैं हथेली खोलती हूँ -
वहां बंधी है शगुन के रंगों वाली पोटली .


मैं ढूँढती हूँ उनमें तीन रंग
- नीला , कत्थई और सफ़ेद .


मेरी आंखों में
फिरोजे का रंग उतर आता है
जो आकाश और समंदर को तलाशता है .


आज वायु नम है
अस्वाभाविक है यह
पर सूर्य की रोशनी का पता नहीं .


मुझे प्रतीक्षा है
उसी रोशनी की .


उसके उगने पर पूरी कायनात बदल जाती है -


बगुलों के सफ़ेद रंग पर
सुनहली पन्नियों का रंग चढ़ जाता है ,


धूप में उड़ती उनकी जमात
ऐसे झिलमिलाती है
जैसे खिड़की खोल कर
किसी बच्चे ने फेंक  दी हो
सुनहले कागज की पन्नी
कैंची से काट कर


कबूतरों की गर्दन इन्द्रधनुषी बन जाती है
और पीपल के झूमते पत्ते बन जाते हैं
मानिक के झुमके .


तुम भी तो शायद प्रतीक्षा में हो उसी धूप की ?
तभी रोशनी के बढ़ने तक
छिपे रहते हो किसी पर्ण गह्वर में .


रोशनी के साथ ही
तुम खुल जाते हो
रंगों की पोटली की तरह .


अनेक हलचलों के बीच भी
हम दोनों एकस्थ हैं -
समंदर की बिछी काई की ओर देखते


थोडी ही देर में
साफ़ पानी छा जाएगा
धीरे-धीरे उसकी सतह पर


तब
तुम तोलने लगोगे अपने पर .


और तब मैं
किसी मचान पर बैठे
शिकारी की तरह
भूल जाऊँगी सारे अनावश्यक दस्तक


तमाम वणिक वृत्तियों को
पुराने लिबास की तरह उतार फेकूंगी


तेज़ कर लूंगी
अपनी आत्मा के औसान ,


धूप में झिलमिलाती
उस नीली उड़ान को
शगुन की तरह
कैद कर लूंगी अपने अन्दर .

सद्य:प्रसवा


सद्य:प्रसवा स्त्री
पार्श्व में लिए बैठी है
अपने शिशु को
निढाल,  पर आश्वस्त
हाथ फिराती है
टटोलती है
अपने ही रक्त और मज्जा से उत्पन्न
नवजात को निहारती है
विचारों और भावनाओं की
केलि से प्रसूत
कृशकाय शरीर को समेटती है
अच्छा लगता है
महीनों तक
गर्भिणी नदी के पाटों
और
भरे हुए बादलों में होनेवाले
प्रकम्पन के भय से
बंध्या की कुंठा से
दोषमुक्त हो
दीवार के उस पार की हलचल पर
ध्यान नहीं देती
मुंह फेर कर
आराम से सो जाती है.


कश्मीर 


मेरी हिमाकत मेरे गुरूर को मुआफ कर
गर ऊंची शाख पर गुमसुम से उस परिंदे को
उसकी तन्हाई के आलम से जगाया मैंने--
गुनगुनाये , मेरे हुक्म की तामील करे !
सर्द मौसम में बरबादियों के किस्से को
लरजते होंठों से नगमों में पिघल जाने दे .
जैसे ख़्वाबों में कोई लरजिश हो
या हकीक़त में कोई साज़िश हो
अपने होंठों पर शिकायत लाके
उसके नगमे नाकाम कहते हैं ---
जैसे चौराहे पर नुमाइश हो
तमाशबीन आके निकल जाते हैं
हवस का मारा कोई बेजुबान किस्सा हो
तलाश ख्वाब की , हकीक़त की नहीं
आते हैं रंगो-बू तलाश करने को
शिरकत में किसी मय्यत की नहीं.


और किस्से थे पहले बयाँ इस जन्नत में 
अब दोजख की हवा छू के निकल जाती है 
कुछ और भी रंग होते थे इस वादी में 
अब हर साँस पर लहू का रंग तारी है.


अब सर्द रातों में मेरा नगमा 
एक साए सा फिरा करता है 
सीने पर दर्द का असबाब लिए 
कश्मीर शिकारे में रोज फिरता है.


धूप यहाँ की , वहाँ की

यहाँ धूप आभिजात्य है
ड्राइंग रूम के सोफे पर
संभली सी बैठी है
अपरिचित , अर्धस्मित !
खुलते- खुलते ही खुलेगी ,
अभी शायद देर लगेगी .
छोटे बड़े विस्तारों पर
उचाट सी दृष्टि है
नपे तुले क्षण हैं
जाने की जल्दी है
क्षणिक मुलाकातों की
पूरी फेहरिस्त अभी बाकी है
ऐसे ही आते -जाते
मुलाकात कर लेगी
रस्म निभा जायेगी -
चलते - चलते कह जाती है .

वहाँ धूप देहातन है
सुबह सबेरे किरणों की
जहाँ-तहाँ  अल्पना सजा
खाट पर पसरी प्रतीक्षा में है -
कोई आए , बतियाए .
फिर वह उठेगी , मेंहदी के पत्तों में
सुर्ख रंग भरेगी ,
मिट्टी को और सोंधी करेगी ,
गुलाब को और कोमल .

फिर डाँव- डाँव घूमकर
दोपहर को चबूतरे पर पसर जायेगी .

और अभी शाम बाकी है .
जा बैठेगी छत की चटाई पर
अंधेरे - उजाले की चौखट पर ठिठकी
थरथराती हवा को महसूसती
कुछ व्यग्र - चिंताग्रस्त !

पर मैं आश्वस्त हूँ -
जाने के पहले वह
पूरी सुरक्षा कर जाएगी ,

दरवाजे पर चाँदनी को
पहरे पर बिठा जाएगी .


महानगर की सुबह 

महानगर की सुबह बौराती है
घड़ी के काँटों पर टंगी बासी कमीज़ सी
आँखें चुराती है
फैला है दिन सामने
खाली मैदान सा
बूढे बुजुर्ग सा दिलासा दे जाता है
मन को सहलाता है
शाम को सिकुड़ जाता है
किसी फ्लैट के दालान सा
गठिया की मारी
रात दुखियारी
झरती बूँदें ओढ़े
दुखते घुटने मोड़े
कल की सुबह
जूठे बर्तन सी मुंह बिराती है .


अयोध्या


अभी इबादत में देरी है
बड़ी मसरूफियत है
हर सिरा उलझा हुआ है
यही बस कैफियत है


जमीं मयस्सर हुई है
तन्हाई अभी बाकी है
चाँद निकला है मगर
जुन्हाई आनी  बाकी है


चराग रोशन तो हुए
रुसवाइयों का साया है
दरो दीवार पे जैसे
जिन का पाँव आया है


अल्फाज होंठो पर गुमसुम
मुस्कुराना बाकी है
साज़ की तैयारियां हैं
नगमे सुनाना बाकी है


बुत तराश डाले हैं
जान आनी बाकी है
अजान हो भला कैसे 
फरमान आना बाकी है 


सबब सवाब के किस्से 
सजाये बैठे हैं 
अपने खुदा को कब से 
बुत बनाए बैठे हैं 


दहलीज मुक़द्दस तो हुई 
इंसान आने बाकी हैं 
शेख-बरहमन सब हैं 
मुसलमान आने बाकी हैं.

9 टिप्‍पणियां:

  1. वीणा जी का स्वागत किया जाना चाहिए .. उनकी कविताएँ बहुरंगी हैं...

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  2. वीणा जी का स्वागत है। अरुण मितभाषी हैं। यदि वे स्वागत कर रहे हैं तो तय है कि इन कविताओं में संभावना के स्वर छिपे हैं।"किंगफिशर" मुझे सबसे सधी हुयी कविता लगी। कवियित्री की सामर्थ्य इस एक ही कविता से प्रमाणित हो जाती है। लगता है कि वे एक अरसे से कविता लिख रही हैं। उनका बिंब-विधान और पर्यवेक्षी दृष्टि मूल्यवान सृजन की ओर संकेत करते हैं।
    "कबूतरों की गर्दन इन्द्रधनुषी बन जाती है
    और पीपल के झूमते पत्ते बन जाते हैं
    मानिक के झुमके"

    "अयोध्या" और "कश्मीर" जैसी कविताएं गंभीर सरोकारों को भी बड़ी संजीदगी के साथ व्यक्त करने में सफल रही हैं। ये कविताएँ उम्मीदों का एक आसमान बनाती हैं जिसका रंग कवियित्री की पसंद का रंग फिरोजी है। उम्दा...
    "सर्द मौसम में बरबादियों के किस्से को
    लरजते होंठों से नगमों में पिघल जाने दे"

    बधाई वीणा जी। अपर्णा जी के प्रयासों का अभिनंदन। कविता की पूरी कायनात सिरजती जा रही हैं। काश!आपका साथ,साथ फूलों का के लायक मैं भी कोई कविता लिख पाता.......

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  3. कविताएं बहुत अच्छी और बहुस्तरीय हैं ,बधाई

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  4. अलग रंग है वीणा जी का... बधाई स्वीकारें...

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  5. "कबूतरों की गर्दन इन्द्रधनुषी बन जाती है
    और पीपल के झूमते पत्ते बन जाते हैं
    मानिक के झुमके"
    सुंदर बिंब है , अच्छा लगा पढ़ कर ,वीणा जी को बहुत बहुत शुभकामनाये

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  6. महादेव टोप्पो29 दिसंबर 2011 को 10:28 am बजे

    कॉलेज के जमाने से आपकी कविताओं का फैन रहा हूं. वर्षों बाद फिर आपकी कविताएं पढ़कर बहुत बहुत बहुत अच्छा लगा. बधाई . अब लिखती रहें - निरंतर ----.
    शुभकामनाएं
    महादेव टोप्पो
    गुवाहाटी

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