नियति::
मैंने तुम्हें चाहा
तुम धरती हो गईं
तुमने मुझे चाहा
मैं आकाश हो गया
और फिर
हम कभी नहीं मिले,
वसुंधरा!
समुद्र::
समुद्र अजनबी नहीं है
किसी भी भूमिपुत्र के लिए
जब भी हिलोर उठती है हृदय में
उमड़ता है हमारी शिराओं में
अगाध समुद्र.
काशी में प्रेम::
काशी में सब कुछ है
बस, काशी में प्रेम नहीं है
काशी में लोग प्रेम नहीं करते
काशी में नदी है,
काशी में घाट हैं,
काशी में मंदिर हैं,
काशी में मसान हैं
काशी में जटाजूट हैं, घंटे-घड़ियाल हैं
त्रिपुंड है, तिलक है, भस्म है
स्नान नहीं, स्नान की रस्म है
काशी में पोथियाँ पढ़ते हैं पंडित
काशी में कोई ढाई अक्षर नहीं पढ़ता
न जाने कब से बौराई हुई है काशी
साधो!
बताना तो सही
काशी से कितनी दूर है मगहर
काशी से मगहर को जाता है कौन सा मार्ग?
आँखें::
कितना दिलचस्प समीकरण
कि बोलती हैं आँखें
और आखें ही सुनती हैं
यह किसी और लोक की नहीं;
इसी लोक की बात है प्यारे
आप सचमुच बदनसीब हैं
कि आपकी आँखें कभी लड़ी नहीं आखों से
मगर मैं, खुशनसीब हूँ बेहद
ख़ुशनसीब हूँ बेतरह
कि मेरी आँखों ने बोलते देखा है
आँखों को फिर-फिर
और मेरी आँखों ने सुने हैं
आँखों के बोल
बार-बार
अनगिन बार.
हाशिये में प्रेम::
१
कविता में वह हाशिये में था
उसकी ओर थी आलोचकों की पीठ
कि उसकी नापजोख मुमकिन नहीं थी
किसी भी पैमाने के इस्तेमाल के बावज़ूद,
कविता में तलवार भाँज रहे लोगों के लिए
वह मखौल का सबब था.
हद दर्जे की बूर्ज्वा चीज़
शोधार्थियों के लिए वह भेद भरा था
कि किसी भी किताब में नहीं लिखा था
उसके रसायन का फॉर्मूला
एक जोड़ आँखों के लिए कठिन था उसे देखना
कि उसके लिए लाजिमी थी अलग ही तरह की बीनाई
उसे चुटकी में पकड़ना भी असंभव था
कि उसकी प्रकृति पारे-सी थी,
उसका होना भृकुटि में बल था
तमाम खापों के लिए वह वर्जित था
द्विजों के लिए अस्पृश्य
मज़हबियों के लिए कुफ़्र
ओर बुत परस्तों के लिए मानो ध्वंस
दिशाओं में सरहदें थीं उसे रोकने के वास्ते
कोई भी दिशा नहीं थी अवरोधों से न्यून,
दिलो दिमाग में उगी थी कांटेदार बाड़,
पोथियाँ उसके विरुद्ध थीं
और ज़माने के पाठ उसके खिलाफ़
२.
चिट्ठी रक्षकों को मनाही थी
कि न ले जाएँ बामे यार तक पैगाम
और सदियों से ज़ारी था पर कतरने का बेरहम खेल
मगर वो, जीवित रहा
हाशिये में कैद
उसके होने से होता रहा बधिकों का तिरस्कार
जल्लादों के बदन पर रेंगती रही चींटियाँ
वह उगता रहा सब्ज़े की तरह
कहीं कवक, तो कहीं शैवाल की तरह
वह होठों पर आया कभी सबद, तो कभी ऋचा की तरह
वह कभी समुद्र तो कभी पहाड़ की पीठ के रास्ते आया
वह कभी किसी रेवड़ में चला आया
चुपके से मेमने की तरह
वह चाक़ू और कुल्हाड़ी की फल पर चमका
धूप की तरह
वह धड़कते सीनों में प्रविष्ट हुआ
अजीब सी चिलकन की तरह
वह हाशिये में रहा
और उसने कभी उफ़ भी नहीं की
और उसके ओंठों से ओझल नहीं हुई मुस्कान
कभी मद्धिम नहीं पड़ी उसकी नीली आँखों की चमक
ग्रीष्म में वो रहा शीतल और शीत ऊष्म में
उसने तोहमतों की आग झेली
कानों ने सहे पिघले शीशों से अपशब्द
झेली पत्थरों की बौछार
मगर, वह जीवित रहा दीवारों में चिने जाने के बाद भी
३
और, जब भी आया,
आया वह जांबाज़ खिलाड़ी की भाँति
वह वहाँ भी पाया गया
जहाँ पहुँचने के सारे रास्ते ढँक रखे थे ज़माने ने
वह दबे पाँव चलने का इस तरह अभ्यस्त
कि कोई भी दरोगा सुन नहीं सका
उसके नर्तक क़दमों की आवाज़
इतना फितरती, इतना जांबाज़
इतना ढीठ, इतना मलंग
इतना मासूम, इतना दबंग
होकर भी रहा वह हाशिये में
सदी-दर-सदी,
सहस्राब्दी-दर -सहस्राब्दी
बावजूद उसके कि उसकी गर्माहट से पिघले हिमनद
और आंधियां उठी रेत के बियाबान में
मैं केंद्र से विमुख एक अदना कवि
कवियों की नज़रों में मुख्य धारा से कोसों दूर
बा-अदब गया हाशिये में
पाया मैंने कि हाशिये के सामने
धूल भी नहीं है हाशिये के बाहर का लोक
और उसी हाशिये की बदौलत
बची हुई है अब तलक
यह नाशुकर दुनिया.
painting by Pablo Picaso
"आँखें::
जवाब देंहटाएंकितना दिलचस्प समीकरण
कि बोलती हैं आँखें
और आखें ही सुनती हैं
यह किसी और लोक की नहीं;
इसी लोक की बात है प्यारे
आप सचमुच बदनसीब हैं
कि आपकी आँखें कभी लड़ी नहीं आखों से
मगर मैं, खुशनसीब हूँ बेहद
ख़ुशनसीब हूँ बेतरह
कि मेरी आँखों ने बोलते देखा है
आँखों को फिर-फिर
और मेरी आँखों ने सुने हैं
आँखों के बोल
बार-बार
अनगिन बार."....!!!
सुधीर सक्सेना की कविताएँ जीवन के प्रति उनकी विराट दृष्टि, जीवन के प्रति उनके उत्कट आवेग के प्रस्थान बिंदु से चलकर आज के इस अँधेरे समय में रोशनी बांटती हैं..!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भाव लिए हुए अलग तरह की प्रेम कविताएँ ..' काशी में प्रेम ' कविता गहन अर्थ लिए हुए ..
जवाब देंहटाएंसब....एक से बढ़कर एक
जवाब देंहटाएंपृथ्वी ओर आकाश को लेकर यह सनातन विभ्रम अनादिकाल से चला आ रहा है कि वे कभी नहीं मिलते, जबकि नेसर्गिक सत्य यही है कि वे अविछिन्न हैं - एक दूसरे के अस्तित्व को परस्पर अनिवार्य बनाते हुए, ये रूपक मानवीय रिश्तों को गहरे अर्थ देता है। सुधीर सक्सेना अपनी इन कविताओं में प्रेम की अदम्य शक्ति और उसकी सर्वव्यापकता का अनूठा प्रभाव रचते हैं, प्रेम ही वह सच्चा मानवीय भाव है, जिसके सामने सारे भावों-अनुभावों की सामर्थ्य क्षीण नजर आती है, लेकिन सारे सामाजिक नियम उसी के विरुद्ध। सुधीर की कविताएं अपनी अन्विति में वाकई गहरा असर छोड़ जाती हैं। बधाई और शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर लगाई गई है!
सुधीर सक्सेना कबीर बन व्यंग्य करते हैं ,भाग जातें हैं काशी से मरने से पहले ,कोई ये न कह दे कबीर पौँगा पंडित था .ब्लॉग जगत के कबीर सुधीर सक्सेना प्रेम शाश्वत प्रेम की बात करतें हैं पता नहीं किस सिरफिरे ने लिखा -न जुबां को दिखाई देता है ,न निगाहों से बात होती है ,और आखिर में हाशिये पे पड़े रह जाने की पीड़ा ,सारा मंच हथिया ले गए हिंदी के नामवर बने कई सिंह ,रास्ते की धूल बन्चाम्कते रहे वो हाशिये पर ,पगडंडियों पर ,मजारों पर ,काबा काशी पर ......
जवाब देंहटाएंकृपया यहाँ भी पधारें -http://veerubhai1947.blogspot.com/
सादा भोजन ऊंचा लक्ष्य
स्टोक एक्सचेंज का सट्टा भूल ,ग्लाईकेमिक इंडेक्स की सुध ले ,सेहत सुधार .
वाह !
जवाब देंहटाएंआँख का आँख से लड़ना
समझना और भिड़ना
यहाँ गजब हो जा रहा है
आँख युद्ध कोई देखिये
कैसे कैसे करा रहा है !
पहलीबार पढ़ रही हूँ सुधीर सक्सेना जी की कवितायें --दिल पर छाप छोड़ गई पढ़ते पढ़ते ...सभी रचनाएं एक से बढकर एक लगी बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंअद्भुत!!
जवाब देंहटाएंकवितायें जैसे नम मिटटी से बनी हैं.. धीरे धीरे अपना आकार ग्रहण करती हैं.. उसी हाशिए की खातिर बची हुई है ये नाशुक्र दुनिया.. वाह
जवाब देंहटाएंवाह....
जवाब देंहटाएंअद्भुत रचनाएँ...
नमन..
अनु
काशी से मगहर को जाता है कौन सा मार्ग?
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