उजास::
एक जंगल था जडी
बूटियों और
वन्य पशुओं से भरा
उसमे थीं कुछ
झोंपड़ियाँ फूस की
जिसकी छत से बिच्छू
,कनखजूरा ,चींटों जैसे
कीड़े मकोड़ों के साथ २
अंधेरों व् मौसमों
की आवाजाही के लिए भी
कोई रोक टोक नहीं थी
बारिश झरके बरसती झोंपड़ी
में
तूफानी हवाएं धूल के
बादल रचती
सर्दी के भाले
गरीबी के नाज़ुक बदन
पर चुभते
वो माँआंसुओं की ऊन
और
मन की सिलाइयों से रोज़
एक
चादर बुनती आशा की
और बेटियों के
कुनमुनाते बदन पर उढ़ा देती
बच्चियां बड़ी हो रही
थीं
चादर छोटी हो रही थी
एक दिन
एक नर्म धूप का
टुकडा भूला भटका
फूस की छत से अचानक
गिरने लगा झोंपड़ी के
कच्चे फर्श पर
लडकियां उससे खेलने
लगीं
कभी एक एक करके उस
धूप के गोले में बैठ
अपना जाड़ा सुखातीं
कभी द्वार बंद कर
देतीं कि ये खिलौना
कोई चुरा न ले जाए
वो अपनी नन्ही २
हथेली से धूप के
उस टुकड़े को पकडती
वो हँसकर दूर छिटक
जाता
बच्चियां रोज़ सूरज
आने का इंतज़ार करतीं
सूरज रोज रात जाने
की राह तकता
लड़कियां रोज़ रात
को
छिपा लेतीं उस धूप
के टुकड़े को
अपने सपनों के
भीतर
पर मुहं अँधेरे
धूप का गोला फुदक कर
आ जाता सपनों को फलांग
उम्मीदों की चादर के
बाहर...
बच्चियां हो जातीं
कभी उदास
देखती रहतीं अपनी
थकान को
अपने सीने से चपेटे
चुपचाप
और कभी खिलखिलाने
लगीं
अब धूप का टुकडा
बढ़ने लगा
फ़ैल गया पूरी झोंपड़ी
में
इतना कि चादर छोटी
पड़ने लगी उन सबकी
और एक दिन रोशनी के
उस नर्म टुकड़े ने
ढँक लिया पूरी धरती
को
वो पूस के अमावस की
रात थी |
तमन्ना::
एक कहानी लिखना
चाहती हूँ
एक औरत की
जो जाति और वर्ग
विहीन हो
परम्पराओं व्
धारणाओं की चक्की में पीसी न गई हो
जिसे किसी विमर्श ने
स्पर्श न किया हो
जो स्वयं को हवा या
बारिश कह देने पर
चौंक न जाती हो
जो परछाँई दिखने पर
भी सिहर न जाती हो
जो आभूषणों व् दंभ
के बोझ से झुकी न हो
जो रूप की बलि वेदी
पर चढ़ाई न गई हो
जो खाई और शिखर का
अर्थ बखूबी समझती हो
लिंग भेद का मतलब
जानने की ज़रुरत उसे
ताउम्र न पड़े
दरअसल
मैं स्त्री को
स्त्री की जगह ‘इंसान’ से संबोधित करना चाहती हूँ
ऐसा मैं स्वप्न या गलती
से नहीं
पूरे होशोहवास में
लिखना चाहती हूँ |
एक कहानी जो सबसे
अलग ,ज़रूरी हो
झूठी व् महज बहलाने
के लिए नहीं
आहट::
नींद में मुझे सुनाई
देती हैं कुछ ध्वनियाँ
मैं गौर से सुनती
हूँ
वो किसी के क्रोध से
पैर पटकने की आवाज़ नहीं
ये तय है और
ये भी कि वो नहीं है
किसी के चोरी छिपे
दबे पाँव चलने की
कोई भटकी चाहत
किसी हताशा की घुटी
हुई चीख भी नहीं वो
न किसी निरपराध कैदी
की
पीड़ा से कराहती
सिसकी
ऐसा भी नहीं लगता कि
वो कराहें किसी उदासीका
वैकल्पिक रुदन हों
मैं और कान लगाकर
सुनती हूँ
वो
किसी कच्ची ज़मीन पर
सधे हुए पैरों की
विशवास से भरी पदचाप
है
मुझे क़दमों की वो लय
दूर से आती हुई
जानी पहचानी सी लगती
है
जैसे किसी व्यस्त
चौराहे से राजमार्ग की और
मुड रहा हो कोई
रास्ता
मैं अपनी ही आहट से चौंक जाती हूँ
हो जग का कल्याण, पूर्ण हो जन-गण आसा |
जवाब देंहटाएंहों हर्षित तन-प्राण, वर्ष हो अच्छा-खासा ||
शुभकामनायें आदरणीया
सुंदर
जवाब देंहटाएंनव वर्ष शुभ और मंगलमय हो !
खुबसूरत अभिवयक्ति.....
जवाब देंहटाएंशब्दों और भावनाओं को लांघते अनुभूती भरे शब्द। बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंहार्दिक धन्यवाद आप सभी मित्रों का
जवाब देंहटाएंमन की गहन अनुभूतिओं को व्यक्त करती
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली रचनायें---
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाऐं
सादर
ज्योति खरे
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