रामकुमार तिवारी ::



























प्रेम


1.

आकाश उड़ रहा है


 
पहाड़ से उतरा है जल
झील में

झील में उतरी हो तुम

मत रोको घुलने दो
हर ओट को

अपनी स्मृति-सा जाग रहा है जल
तुम्हारे रंग में

देह की लहरों को
झील में उतरने दो
जाने दो तटों तक
जहाँ पक्षी बैठे हैं और
आकाश उड़ रहा है


2 .


जितना चाहता था


 
नीला स्याह हो गया आकाश
उतना
जितना चाहता था

देखते-देखते आ गया
बादल का टुकड़ा
जरा कम उजला
उतना नहीं
जितना चाहता था

फिर आ गया सूरज वहाँ
जहाँ से निखर उठा
बादल का टुकड़ा
उतना ही
जितना चाहता था

सामने टीले पर
झूमने लगे कतार में
सिरसा के चार पेड़
आधे आकाश तक
उतनी ही हरी पत्तियों वाले
जितनी चाहता था

पेड़ों पर रुक-रुक कर
उड़ते रहे बगुले
उसी लय में, जिसमें
जितनी चाहता था
चेहरे पर बार-बार आ जाए
उड़-उड़ कर लट बालों
चलने लगी हवा उतनी ही
जितनी चाहता था

भूल गया घड़ी
करता रहा प्रतीक्षा
लेकिन नहीं कर सका उतनी
जितनी चाहता था

3 .

न होने की आवाज


 
जल का अवसाद हिला
गहरे बैठा पल
ऊपर आकर दिखा

लहर-लहर चला
धूप की ओर

देखते-देखते घुला
लहर बना

दिप्-दिप् होते तल पर
प्रकट हुई आभा
मौन होकर निकटतर
होती गई दिशाएँ

ऐसा था सन्नाटा
कि रुक-रुक कर
न होने की आवाज
गहरे और गहरे से आई
 

4 .


किसी का जाना

 
किसी का आना
पास आ रहा है
झील में
टपक रहे हैं तारे
और आकाश में चमक रहे हैं

किसी का जाना
पास आ रहा है

5 .


जाग रहा है मौन


 

धुंध की ओट में
झील बदल रही है वस्त्र

पानी के
वलय वक्र धागों में गुम्फित किरणें
धीरे-धीरे उकेर रहीं हैं
पेड़ पहाड़ और नाव

फैल रही है दूरी

आगे-आगे
कौन जा रहा है

लहरों पर तैरते अंधेरे में
झिलमिलाई आभा किसकी है?

जाग रहा है मौन
उठ रहे हैं स्वर

मैं झील में
अपना अक्स छोड़
सूनी डगर में लौट रहा हूं.

6 .


देख रहा हूँ जन्म


 
पहाड़ की ढलान पर
देवदार के पेड़ों का घनेरा

बीच में टूटी समाधि
किसकी है

पेड़ों और समाधि पर जमी है
काई की परतें

सब-कुछ इतना प्राचीन कि
पत्थरों में भी प्राण होने के आस-पास का

गहरा रहा है इनके बीच कुहरा
वह अभी-अभी इन्हीं पलों का है

पल-पल गहराता
होता ठीक-ठीक भीतर की तरह

देख रहा हूँ भीतर को बाहर

देख रहा हूँ जन्म

समाधि से धक-धक की आवाज
आ रही है 

11 टिप्‍पणियां:

  1. झील आकाश जल मौन सन्नाटा और समाधि ... हाँ प्रेम ही तो है ये ....जाने कैसी आभासित हो रहा है...हाँ मौन और सब कुछ अपना सा...


    आभार अपर्णा ....
    और बधाई राजकुमार जी को..

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  2. भूल गया घड़ी
    करता रहा प्रतीक्षा
    लेकिन नहीं कर सका उतनी
    जितनी चाहता था

    ................
    ................
    समाधि से धक-धक की आवाज
    आ रही है
    ................
    धुंध की ओट में
    झील बदल रही है वस्त्र
    ..........
    किसी का जाना
    पास आ रहा है
    ...........
    भूल गया घड़ी
    करता रहा प्रतीक्षा
    लेकिन नहीं कर सका उतनी
    जितनी चाहता था
    harpreet kaur

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  3. प्रेम को लेकर अपने अन्‍त:करण में औदात्‍य का ऐसा भाव हो तो संवेदना का धरातल कितना अपरिमित हो जाता है, रामकुमार तिवारी की ये प्रेम कविताएं इसकी जीवंत मिसाल हैं। यह बात अपने आप में विस्मित करती है कि वे अपने प्रिय की छवि कभी अन्‍तरिक्ष के अनगिनत सितारों के बीच देखते हैं, कभी झील की झिलमिल लहरों में तो कभी हरे-भरे पेड़ों-पहाड़ों की निर्मल गोद में या कभी चांद-सितारों के सौंधे उजास में। ऐसी निथरी हुई संवेदना ही बेहतर कविता के लिए जमीन तैयार करती हैं। बधाई।

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  4. बहुत मृदुल कवितायेँ..तिवारी जी आपको शुभकामनायें..

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  5. अपनी स्मृति-सा जाग रहा है जल
    तुम्हारे रंग में...

    देख रहा हूँ भीतर को बाहर
    देख रहा हूँ जन्म...


    प्रकट हुई आभा
    मौन होकर निकटतर
    होती गई दिशाएँ..

    बहुत सुन्दर कवितायें ..कवि को बधाई . आपका आभार कि आप इन्हें यहाँ लेकर आईं .

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  6. गंभीरता में गहरे उतरे प्रेम की गठी हुई रचनाएँ !
    ऐसे एकांत की अनुभूतियाँ जिसमे हर पल और हर जगह
    किसी का साथ है !

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  7. किसी का जाना
    पास आ रहा है.....

    काफी कुछ ऐसे हैं जैसे की उसका करीब न होना पर फिर भी उसका होना बिलकुल वैसे ही..हमेशा जैसा

    सुन्दर पंक्तियाँ ...आभार तिवारी जी
    बहुत बहुत धन्यवाद अपर्णा दी.

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  8. कविताओ के शीर्षक प्रथम पंक्ति की जगह आ गए है. जिससे पढने की लय बाधित होती है.

    ये शीर्षक हैं - इन्हें शीर्षक की तरह ही स्पेस देकर /बोल्ड कर प्रकाशित किया जाता तो उत्तम होता.

    आकाश उड़ रहा है
    जितना चाहता था
    न होने की आवाज
    किसी का जाना
    जाग रहा है मौन
    देख रहा हूँ जन्म
    ** सुन्दर कविताओ के लिए बधाई.


    -सुनील शर्मा,

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  9. सुंदर....मन में पैठ करती कवि‍ताऍं...'न होने की आवाज' और 'जाग रहा है मौन' बहुत ही अच्‍छी लगी...

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