मनीषा कुलश्रेष्ठ ::

 
























::खुद से प्रेम - 1.

वह निहत्थी लड़ती है
देह द्वारा किए जा रहे हमलों से
वह हर माह बदलती है
जब बदलती है बेचैन हो जाती है 

क्योंकि वह नहीं होना चाहती
जो प्रकृति उसे बनाती है


अब भी
वह बिस्तर से कूद कर बाहर आती है
ताज़ादम बिल्ली की तरह
एक - एक लाँघ कर चढ़ती है सीढ़ियाँ
बचपन की तरह
आईने के आगे खड़ी होती है
किशोरी की तरह
भीतर अब भी वह लड़की है
बाहर के परिवर्तन धीमे नहीं होते फिर भी
एक नई झुर्री,
नया सफेद बाल
भंगुर होते नाखून
होंठों की कम होती आर्द्रता
उसे प्रेम करने से नहीं रोक पाते
वह मृत्यु तक दूसरों के बहाने
खुद से प्रेम करते रहना चाहती है

::खुद से प्रेम – 2

मैं अबूझ होती जा रही हूँ

खुद की रची कहानियों में

छिप कर रहती हुई

कौन जाने वे कहाँ से आती हैं ये

मेरी फंतासियों से

या अवचेतन की सीढ़ियाँ चढ़

मेरे चारों तरफ जो दूसरी मैं हूँ

सौजन्यता पूर्ण, अजनबी, आत्मविश्वासी

और जो भीतर है

दब्बू और कमतर

मगर जानी पहचानी

मैं उनकी मध्यस्थ हूँ

क्योंकि मेरा भीतर – बाहर

अकसर अलग रास्ता लेता है

जब बाहर अंधड़ चलता है

भीतर शांत होता है

भीतर कहीं कोहरा होता है

मेरी आँख देख पाती है बाहर साफ़ – साफ़

अब मैं

उन रास्तों पर

उतार दिए जाना नहीं चाहती

जिन पर मैं जाना नहीं चाहती

मैं अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ

उनकी खुशी के लिए

लिखी कहानियों में नहीं दुबकना चाहती.

अपनी देह में अपनी आज़ादी की तरह

उम्र उतार कर कहीं दूर

मैं थिरकना चाहती हूँ

अपने भीतर उगते वन – कमल की

कसैली गँध में डूब जाना चाहती हूँ

अब मैं गूँथ कर सूर्य का अग्निपुष्प

अलकों में

होना चाहती हूँ सबसे अलग

मैं प्रेम में ‘ना’ कहना सीखना चाहती हूँ

बौराता है बसंत में सारा वन

मैं जलते ग्रीष्म का केवड़ा होना चाहती हूँ

प्रेम में लिखते हैं सब प्रेम कविताएँ

मैं ‘चे गुएरा’ की ‘गुडबाय स्पीच’ पढ़ना चाहती हूँ





:: आने और लौट जाने के बीच


आने और लौट जाने में फर्क है

बसंत और पतझड़ के बीच के

मखमली अंतराल का

जब आए थे तो ...

उड़ता था यहां - वहां तितली सा

एक नाम अनचीह्ना - अनजाना

पहचान जोड़ता हुआ होंठों से

आने और लौट जाने के बीच की

इसी नर्माई में सोई थी

एक जादुई लय, आंखें मूंदे

एक पारलौकिक धुन, मुंह खोले

इन्हें जगाया था हमने

रोज़ अल्लसुबह

आने और लौट जाने के बीच

गूंज रहे हैं, नई भाषा के

कुछ नये शब्द, कुछ नये मानी

नए संबोधन

मुखर शब्दों के बीच, पर तौलता है मौन

इस पार से उस पार परवाज़ भरती हैं आंखें

आने और लौट जाने के बीच

ये स्मृतियां

ख़यालों की ऊंचाई से गिर कर

क्या ऐसे ही शोर मचाएंगी?

ऐसे ही जगाएंगी

जैसे जगाया है

इस बावरी नदी ने

रात के सन्नाटों में

आने और लौट जाने के बीच

कहीं जा गिरा एक टुकड़ा वज़ूद

अब उठता नहीं बहुत भारी है

वह एक नाम, मेरे होंठों पर

बिखरा है तितली के टूटे पंखों सा

चेहरे की पथरीली उदासी पर

आना कितना सहज होता है

जाना कितना दुश्वार

आने और लौट जाने में फर्क है

बसंत और पतझड़ के बीच के

मखमली अंतराल का












:: सुर्ख़रू – 1

अजीब मानसिकता में हूँ.

ध्वस्त हूँ एक दीवार की तरह

जैसे कि

अब जो उठूंगी, बनूंगी

वही मैं होऊँगी .

हाथ से निकल गया है मेरा मैं.

अवश, असाध्य, असहाय

विनिष्ट, विरूपा, विवश

विनिष्ट होने का भी एक सुख है,

उस सुख के अवश हूँ

एक ट्रांस में

मेरे सीने में एक नहीं हज़ार खंजर खुबे हैं

मैं मानो एक अभ्यास बोर्ड हूँ तीरंदाजी का

सामने

यह तस्वीर है, तुम नहीं हो

तुम्हारी वही छवि है

हाथ के सारे ज़रूरी काम छूट गए हैं

तुम्हारी पीठ, चौड़े कंधे

घने बाल, मुडी गर्दन, गर्दन का ख़म

कान, कान की सुर्ख लव

अजानुबाहु बाँहें,

मस्तिष्क की लय पर केन्द्रित है

तुम्हारी देह , एकाग्र और डूबी

एकाग्रता,

यही एकाग्रता आमंत्रित करती है,

यह आकर्षण नया नहीं

मगर आज मारक है

देखो, खून से सने हैं आज तुम्हारे हाथ

जो छूते आज कोई कविता

वो ज़रूर सुर्खरू होती



::सुर्ख़रू – 2

गेंदे के फूलों पर

अब भी है,

ओस

रात भर की बारिश के बाद

पेवमेंट अब भी गीला है

सुबह कोमल है

हवा में उड़ रहे हैं

सेमल के फाहे

धूप चुरा रही है आँखें

कहीं मेरी देह पर छूट गए हैं

कोई गुनगुने होंठ....

उँगलियाँ टटोलती हैं

खोजती हैं वे होंठ

मन सुर्ख़रू है

पके हुए अनार – सा

फूट कर बिखरने को आतुर

सिहरता है

बदलते मौसमों की करवटों से

इंतज़ार लटका है...

किसी अमूर्त चित्र – सा

मन के गलियारे में

स्थान और समय के अभाव में

काल और परिवेश से परे



::सुर्खरू – 3

मैंने देखा है,

किस तरह

मेरे शब्द उतर जाते हैं

तुममें

चुपचाप, गहराई तक

उन तमाम

पढ़ी , सुनी – गुनी बातों की तरह

जो रहती हैं याद तुम्हें

हर दम मुँह ज़बानी

उस पल जब कह रही होती हूँ

बार – बार कहे जाती हूँ

ऎसा समझ कर कि

तुम नहीं सुन रहे

मेरा कहा कहीं उलझ गया है

तुम्हारी अधसोई आँखों के

लाल - लाल डोरों में

तुम मेरे शब्द सहेजते हो

जैसे बच्चे सहेजते हैं

लाल वीरवधूटी अपनी डिबिया में

मैं जानना चाहती हूँ

वो तरकीब

कि कई - कई दिन बाद

उन शब्दों की स्पन्दित

सुर्ख़ वीरवधूटियों को

तुम जीवंत मेरे हाथ पर

कैसे रख देते हो?

वो भी,

एन् उन पलों में

जब दुख उधेड़ रहा होता है

मेरा सुख

तुम मेरे ही तजे हुए,

अल्पजीवी स्वप्न - सुर्ख़रू शब्द

कैसे अमर कर देते हो?





13 टिप्‍पणियां:

  1. pahali kavita itni khoobsurat hai ki agli kavitaon pr kednrit hi nahi hone de rahi hai. baawajood padh tou nhe bhi gaya par sach kahu sirf pahli ke prabhaw me unka padhna na padhna hi hua. ab baad me kabhi fir padhunga unhe. badhai rachnakar ko aur aabhar prostota ka.

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  2. वह मृत्यु तक दूसरों के बहाने

    खुद से प्रेम करते रहना चाहती है



    आने और लौट जाने के बीच

    कहीं जा गिरा एक टुकड़ा वज़ूद

    अब उठता नहीं बहुत भारी है

    तुम मेरे शब्द सहेजते हो

    जैसे बच्चे सहेजते हैं

    लाल वीरवधूटी अपनी डिबिया में

    मैं जानना चाहती हूँ

    वो तरकीब

    कि कई - कई दिन बाद

    उन शब्दों की स्पन्दित

    सुर्ख़ वीरवधूटियों को

    तुम जीवंत मेरे हाथ पर

    कैसे रख देते हो?

    निशब्द करती रचनाएँ

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  3. स्‍वयं में डूबकर अपने आत्‍म की तलाश करती हुई सघन कविताएं। वाकई अपनी अभिव्‍यक्ति को अर्जित करना होता है। अच्‍छी कविताएं। बधाई।

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  4. आने और लौट जाने में फर्क होता है- अच्छी लगी कविताएँ. बधाई मनीषा जी और अपर्णा दी आपका इनसे परिचय करवाने के लिए.

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  5. मैं इन कविताओं को पढ़कर "अजीब मानसिकता" में हूँ. "ध्वस्त हूँ" या आश्वस्त हूँ,कह नहीं सकता. कह सकता हूँ तो सिर्फ़ इतना कि मनीषा जी ने कुछ रोज़ पूर्व आज की हिंदी प्रेम कविताओं के रंग-रूप व कलेवर को लेकर एक नाराज़गी भरी शिकायत की थी. उनकी ये कवितायें, उनकी अपनी ही शिकायत को दूर करने का एक प्रयास जान पड़ती हैं. सभी कवितायें विशिष्ट हैं, परन्तु मुझे "सुर्ख-रु" सीरीज विशेष रूप से आकर्षित करती है खासतौर से नंबर १.

    बहुत सारी पंक्तियाँ याद रखने लायक हैं, यथा "वह मृत्यु तक दूसरों के बहाने खुद से प्रेम करते रहना चाहती है", "बौराता है बसंत में सारा वन/मैं जलते ग्रीष्म का केवड़ा होना चाहती हूँ/प्रेम में लिखते हैं सब प्रेम कविताएँ/मैं ‘चे गुएरा’ की ‘गुडबाय स्पीच’ पढ़ना चाहती हूँ", "अजीब मानसिकता में हूँ./ध्वस्त हूँ एक दीवार की तरह/जैसे कि/अब जो उठूंगी, बनूंगी/वही मैं होऊँगी/हाथ से निकल गया है मेरा मैं" आदि आदि.

    मनीषा जी के लेखन में उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल एक जादुई असर पैदा करता है परंतु ये भी सच है कि ये कविताएँ एक खास पाठक वर्ग की डिमांड करती हैं.

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  6. जब दुख उधेड़ रहा होता है

    मेरा सुख.........लगा ...तमाम कविताएं....जैसे....इसी के इर्द-गिर्द हों...बेहतरीन..

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  7. बहुत अच्छी प्रस्तुति है!
    रक्षाबन्धन के पावन पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ!
    स्वतन्त्रतादिवस की भी बधाई हो!

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  8. मनीषा के पास निखरी भाषा और संवेदना का ताप है..
    एक स्त्री के खुद से उलझने और इस उलझन को इश्क के माध्यम से व्यक्त करने का हुनर इन कविताओं में दिखता है..
    अब कविता संग्रह आना ही चाहिए..
    बधाई....अपर्णा को भी, कथाकार के अंदर से कवि को तलाशने के लिए

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  9. किस तरह
    मेरे शब्द उतर जाते हैं
    तुममें
    चुपचाप, गहराई तक!
    वाह !
    सच में गहराई तक उतर जाती हैं ये पंक्तियाँ.

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  10. अरुण देव, कविता संग्रह छपवाने के लिए उत्साह जगाने का शुक्रिया. यही एक चीज़ है जिससे मैं झिझकती हूँ. हर कथाकार पहले कवि होता है, फिर कथाकार होकर कविता की तरफ लौटते झिझकता है, कविता का अनुशासन भूलने लगता है या लोग टोक - टोक कर भुलवा देते हैं. वैसे इस दोहरे संधान को साधना कठिन है. बहुत कम लोग इसे सफलता पूर्वक साधते हैं. कोई एक सिरा छूट जाता है. विनोद कुमार शुक्ल जी का कवितापाठ सुनकर प्रेरणा जगी थी. देखो.. समॆटती हूँ कुछ कविताएँ फिर छपवाऊँगी.

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  11. सभी कविताएं पढ़कर अच्छा लगा !मन करता है आपकी डायरी चुरा लूँ !

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  12. सभी कविताएं विशिष्ट भावलोक लिए हैं । "अपनी देह में / अपनी आज़ादी की तरह ...अपने भीतर उगते वन-कमल की/ कसैली गंध में डूब जाना चाहती हूँ / अब मैं गूँथकर सूर्य का अग्निपुष्प/ अलकों में ...मैं प्रेम में 'ना' कहना चाहती हू..." इतनी सुन्दर पंक्तियाँ ! अद्भुत !!

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