विम्मी सदारंगानी::


























छः सिन्धी कविताएँ ::
अनुवाद : विम्मी सदारंगानी
ज़दीद सिन्धी शाइरीअ जो इंतखाब (१९५०-२०१० ) से
प्रकाशक : साहित्य अकादमी नयी दिल्ली , २०११ , संपादक : वासुदेव 'मोही'

बहन की याद :: हरीश करमचंदानी


उसके बस्ते में एक दुनिया है

किताब, नोटबुक , रबर,पेंसिल तो बस एक छोटा -सा हिस्सा है
उसके बस्ते में छिपे खज़ाने का.

उसके बस्ते में कंचे हैं, चॉक है

रंगबिरंगे पंख हैं चिड़ियों के
टॉफी की चमकीली पन्नियाँ हैं
माचिस की खाली डिबियां हैं
सिनेमाघर की फटी हुई टिकटें भी हैं
कोला,सोडा,लैमन के खाली ढक्कन  हैं

आमिरखान , ऋतिक रोशन की तस्वीरें भी हैं उसके बस्ते में 


किताब में रखी हुई विद्या है

झूलेलाल की भी एक फोटो है
शहर में बस गए एक दोस्त की चिट्ठी है
मोरपंख हैं
माँ की टूटी हुई चूड़ियों के टुकड़े भी हैं उसके बस्ते में .

पिछले साल आई एक राखी भी है उसके बस्ते में

जिसे देख उसे याद आती है अपनी बहन
जो शादी के बाद ससुराल गई
तो वहाँ से वापिस नहीं आई कभी ..

और फिर उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता

जो कुछ भी रखा है उसके बस्ते में .



ग़ज़ल :: श्रीकांत सदफ़

मैं तो बस एक फैसला हूँ
दोस्तों के ही हक़ में हुआ हूँ.

मेरे हर अंग का तकाज़ा कोई
कैदी मैं अपने जिस्म का हुआ हूँ.

दिल में जैसे कभी कोई नदी बेकाबू
बाँध की मानिंद ढह रहा हूँ .

मुझे भी कितनो ने धिक्कारा है
एक शख्स को तो मैं भाया हूँ.

शहर तुम्हारे में किसी मेले जैसा
कई सालों के बाद आया हूँ.

रात की ख़ामोशी में पूछता हूँ
मैं 'सदफ़' कौन हूँ और क्यों हूँ.



ख्वाहिश  :: रश्मि रामाणी

जीना चाहती हूँ
अपने अकेलेपन को मैं
जैसे कोई उदास पेड़
पर समूह में
किसी घने जंगल से कम नहीं

अकेले ही गत जीना पड़ा तो
बेहतर होगा सूरज की तरह जलना भी
किन्तु हम साथ ही चलें अगर
तो सितारों से बेहतर और क्या होगा?

दूर आसमान में अकेले बादल -सा
भाग्य मिला
तब भी शिकायत नहीं है

फिर भी ख्वाहिश यही है
कि हर बारिश में शामिल किया जाए मुझे भी.
उस बादल की तरह
जो देता है अपने हिस्से का पानी
धरती के किसी टुकड़े को.

 








धमाकों के बाद की सुबह :: मोहन हिमथाणी

आज फिर जिन्दगी नॉर्मल रफ़्तार
नेचर से जारी है.
हर आदमी अपने रोज़-मर्रा के कामकाज और
मंसूबों का अंजाम देने में व्यस्त है.

कोई भी शख्स
ये याद रखने को हरगिज़  तैयार नहीं
कि कल यही शहर
बम धमाकों से दहल गया था
और जिन्दगी का ऐसा हश्र देख
मौत भी रो पड़ी थी.

यह सही है.
बिलकुल सही है!
जिन्दगी इसी का नाम है.

यह हमारा शहरी कल्चर ही है
जो हम दे जायेंगे आने वाली पीढ़ी को-

एक दिल
जो दर्द महसूस नहीं करता अब.
दो आँखें
जो देखकर भी देखने को तैयार नहीं हैं.

दो हाथ
जो उठाते हैं मोबाइल और कार की चाबी
दो पैर
चल सकते हैं अंधी दौड़ में शामिल होने को

एक जुबान
अपने मतलब की बात करती है
वरना चुप रहना पसंद करती है.

एक धमाका
इस शहर की नियति बन चुका है.
और धमाके के बाद के दिन

वही नॉर्मल जिन्दगी.



लुकाछिपी :: विम्मी सदारंगानी

जब हिटलर सो रहा होगा
और गाँधी अपना चरखा चलाने में व्यस्त होगा
तब हम लुकाछिपी खेलेंगे.
 









 



















8 टिप्‍पणियां:

  1. सभी कवितायेँ मन को छूने वाली हैं जिनमें बस्ते को देखकर बिछुड़ी हुई बहन की याद,औरत की खुश रहने की ख्वाहिश,प्यार में डूबी गज़ल और आतंकवाद का सामना करते शहर का अद्भुत चित्रण किया गया है.विम्मी सिंधी और हिंदी के बीच ऐसे ही लुका छिपी करती रहो.

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  2. सिंधी कविताओं को हिंदी में देने का आपका यह प्रयास सराहनीय है. कुछ और कविताएँ होनी चाहिए थी. संभव हो तो किसी एक कवि की पांच सात कविताएँ दें जिससे कि एक मुकम्मल पहचान बने कवि की भी और सिंधी कविता की भी. अनुवाद अच्छा लगा.

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  3. शुक्रिया अपर्णा.. वाक़ई, आप सबका साथ फूलों का साथ है :) आप सबके द्वारा सिन्धी साहित्य की सुगंध भी कुछ और दूर तक फैलेगी..

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  4. बस्ते वाली कविता ने बहुत प्रभावित किया.. शेष कविताओं में भी कोई बात है.. कवयित्री को बधाई.. शुक्रिया अपर्णा..

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  5. फिर भी ख्वाहिश यही है
    कि हर बारिश में शामिल किया जाए मुझे भी.
    en sunder kavitaon se parichay karwane ke leye shukariya Aparna jee

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  6. और फिर उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता
    जो कुछ भी रखा है उसके बस्ते में .

    A powerful ending of a very sweet poem!

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