रूमानियत:: 1
मेरे
अंतरंग
यह बस मैं या कि तुम
जान सकते हो.
जो लोग खण्डहर - खण्डहर इतिहास की
छाँव पल रहे होते हैं,
अजब रुमानियत उनमें रिस आती है...
ऎसी रूमानियत/ वो धुँधलका
जिसमें ज़िन्दगी की रेत भी
यह बस मैं या कि तुम
जान सकते हो.
जो लोग खण्डहर - खण्डहर इतिहास की
छाँव पल रहे होते हैं,
अजब रुमानियत उनमें रिस आती है...
ऎसी रूमानियत/ वो धुँधलका
जिसमें ज़िन्दगी की रेत भी
पिघलते
सोने की नदी हो जाती है
उन्हें
पता तक नहीं होता...
कैसी अनंतता में
जीने का एक यकीन लिए
वो बड़े हो रहे हैं.
वो पाल रहे हैं
विषधरों से भरे आँगन में
कुछ ललमुनिया – सपन
इतिहास पलट देने का
सूर्यपुष्प को अलकपाश में
गूँथ लेने का
कैसी अनंतता में
जीने का एक यकीन लिए
वो बड़े हो रहे हैं.
वो पाल रहे हैं
विषधरों से भरे आँगन में
कुछ ललमुनिया – सपन
इतिहास पलट देने का
सूर्यपुष्प को अलकपाश में
गूँथ लेने का
रूमानियत – 2फ्रेंकफर्त संत्राले जाती मैट्रो में,
भीड़ है, एक कुत्ता है
एक बूढ़ा
है अपनी सायकिल के साथ
एक ख़ुशगवार झुण्ड है
जर्मन किशोरों का
खिलखिला रहे हैं
एक ख़ुशगवार झुण्ड है
जर्मन किशोरों का
खिलखिला रहे हैं
एक प्यारा
सा लड़का
रिझा रहा है एक साथ
रिझा रहा है एक साथ
दो
किशोरियों को
वो शोख़
होती हैं,
उससे उलझती हैं
उससे उलझती हैं
फिर लजा
जाती हैं
लड़का
दर्प से भर जाता है
बाकि
उसे हल्की जलन से देखते हैं
और विषय
बदल देते हैं
मैं
चौंकती हूँ
शब्द हैं कहाँ मगर?
शब्द हैं कहाँ मगर?
यहाँ
तो इशारे हैं
भाषा
है सांकेतिक
उँगलियों
और होंठों की जुम्बिश में
अभिव्यक्त !
अभिव्यक्त !
मेरी
बेखबर हैरानी के लिए
यह समाचार है
कि उत्साह से लबालब इन किशोरों का झुण्ड
यह समाचार है
कि उत्साह से लबालब इन किशोरों का झुण्ड
गूँगा
और बहरा है.
फिर मैंने कब सुन ली रुमानियत की भाषा?
फिर मैंने कब सुन ली रुमानियत की भाषा?
हँसी
और हल्की जलन और विषय का बदलना
रूमानियत
-3
सघन
सौजन्यता के पलों में भी
कुछ
आदिम छलांग लगाता है...
कुछ
कूकता है
पंख
फैलाकर नाचता है
या
रेंग कर उतरता है
बरगद
से
घात
लगाता है.
म्यूटेटेड
हैं मेरे जीन्स
रूमानियत
के !
रुमानियत
– 4
लो यहीं पे'
ख़त्म होता है
सफर, मेरी रूमानियत का...
एन् तुम पर...आकर
एक ऊंचे आलाप पर
जाकर टूट गयी तान - सा
लो यहीं पे'
ख़त्म होता है
सफर, मेरी रूमानियत का...
एन् तुम पर...आकर
एक ऊंचे आलाप पर
जाकर टूट गयी तान - सा
painting:Salvador Dali
बहुत कुछ ...छोड़ गई थी वो
कंघे में फँसे बाल
नीली,
उतारी हुई
टी – शर्ट को
उल्टा
ही
कुर्सी
के हत्थे में टाँग
पौधों
में पानी देकर
बिस्तर
सहेज कर
वह
ऎसे चली गई
जैसे
पड़ोस में गई हो
उसने
फ्रिज साफ किया था
हमेशा
की तरह
नल
टपकता छोड़ दिया था.
अपने
सारे आतंक,
पागलपन और शको – शुबहे छोड़ गई थी
पागलपन और शको – शुबहे छोड़ गई थी
अभिव्यक्ति
से खाली / प्रेम
के ऊबे
उदास
लम्हों को
माँज
कर चमका लेने की उम्मीद
हमेशा
के लिए ले गई वो.
बहुत
दिन से रुकी पड़ी घड़ी
अचानक
चल पड़ी थी
उसके
जाने और मेरे लौट आने के बीच
का
संक्राति
काल
जो
बन्द रह गया था
घड़ी
की सुईयों में
आज
जल्दी – जल्दी जहन
में बीत रहा था
धूप
रोज की तरह
कमरे
में आकर
बिल्ली
की तरह ऊँघ कर जा चुकी थी
आज
उसका फर किसी ने नहीं सहलाया
था
दिन
की चाय की रुँआसू प्याली में
कुछ
कतरे बचे थे
धूप
के
कोई
भी नहीं पूछ रहा था
कहाँ
गई है वो?
मुझे
ही कहाँ गुमान था कि
सच
में चली जाएगी वो!
हाँ
कोई पुर्ज़ा रखा तो था
उसके
हाथ का लिखा
वह
तो विदा का नोट नहीं था
बस
अकाऊंट नम्बर था उसका
देहभाषा
तल्खियाँ, गुर्राहटें
तल्खियाँ, गुर्राहटें
कराहें,
बहता लहू
मेरे
हिस्से में रहने दो...
मैं
गुफा में बैठा
नीरीह
मगर घायल
तेन्दुआ
हूँ,
चाटता
हुआ घाव अपने
कैसे
आने दूँ पास तुम्हें
तुम
मानव हो
मैं
जंगली जीव
मेरी
और तुम्हारी
देह
भाषा में फरक है
मैं
नहीं जानता कि
हाथ
में तुम्हारे
दुनाली
है कि दवा !
मेरी
गुर्राहटें आक्रामक नहीं
आत्मरक्षा
और दर्द से सनी हैं.
"वो धुँधलका /जिसमें ज़िन्दगी की रेत भी / पिघलते सोने की नदी हो जाती है / उन्हें पता तक नहीं होता.../ कैसी अनंतता में / जीने का एक यकीन लिए / वो बड़े हो रहे हैं." अपनी रचनाशीलता के एकान्त में डूबकर रची गई बेहतरीन अभिव्यक्ति। बधाई।
जवाब देंहटाएंbadhia
जवाब देंहटाएंwaqt lagega!
हटाएंरुमानियत के अन्तरंग सपने इतिहास पलटने के ...रुमानियत की उड़ान जींस के म्यूतेसन के साथ बखूबी जुडी ... रुमानियत की भाषा शब्दों से परे - हँसी हलकी जलन और विषय परिवर्तन ...बहुत खूब लगी.. तेंदुवे की आर्तनाद कराह को भी पकड़ लिया ... उम्दा मनीषा जी... अपर्णा दीदी धन्यवाद ..इन रचनाओं को साझा करने के लिए...आदर सहित
जवाब देंहटाएंअर्थपूर्ण कवितायेँ....दिल को छूती हुयी....भीड़ में मौजूद एकांत को परिभाषित करती ये कवितायेँ उस मुहावरे की तरह सामने आती हैं जिसमें रूमानियत के मायने वृहद् होते हैं.....मनीषा दी को और कवितायेँ लिखनी चाहिए.....बधाई......
जवाब देंहटाएं"जो लोग खण्डहर - खण्डहर इतिहास की
जवाब देंहटाएंछाँव पल रहे होते हैं,
अजब रुमानियत उनमें रिस आती है..." बहुत गहरी बात आसान शब्दों में की है.
बादल छंटने के बाद आसमान ज्यादा नीला ओर चमकीला लगता है, बादल छटने के बाद धरती वसन उतार कर अपने सुंदरतम रूप में आकाश को निहारते हुए कहती है आकाश 'तुम इतने चुप चुप क्यों रहते हो'.बादल फिर घिर आते हैं. बादलों की खिडकी से खंडित आकाश बस मुस्कुरा देता है.
कुछ ऐसी ही अजब रुमानियत होती है खंडहर के पत्थरों में जो रिस रिस कर या तो निर्झर सी बहती है या आँखों की कोरों में चमकती है. सुंदर रचना के लिए बधाइयाँ ..
एक ऊंचे आलाप पर
जवाब देंहटाएंजाकर टूट गयी तान - सा .. छप गई ये पंक्तियाँ दिलो दिमाग पर..
इस आह मेँ भी,
जवाब देंहटाएंएक राह निकलती है
जिसके मँजिल का पता
मुझे नहीँ पर,
तुम्हे है।
कितनी अनँत यात्रा है?
न कोई उद्देश्य न कोई
विधेय,
बस भटकना है
हर पल मुझे
किसी अज्ञात दिशा मेँ