रामजी तिवारी

























प्यार
(‘उसने कहा था’ के लहना सिंह के लिए)
  
सीने को चीरती हुई गोली ने
पहली बार दुनिया को बताया था
कि उस शख्स ने अपने दिल के दिये में
आत्मा के तेल से प्यार की लौ जलाई थी
जिसे समय और समाज की
कोई भी आँधी छू तक नहीं पायी
और देह छोड़ते वक्त वह
लहू के सहारे धरती के गर्भ में चली गयी
जो आज भी उसकी मजार पर टिमटिमाती है
जिसकी रोशनी में इस अँधेरे समय के लोग
प्यार की इबारत को साफ-साफ पढ़ने के लिए
आते रहते हैं.



न्याय
  
ट्रेन में बने टायलेट के दरवाजे पर
बियाबान से बीनी लकड़ियों के गट्टर को
अपने अधनंगे बदन से छिपाती हुई
झुर्रियों वाली थैली पर
दो रूपये के लिए
तुम्हारे नंगेपन का ठोकर चलता है
तो यह मत सोचो
कि मन्दिर में जाकर मेवे चढ़ाने से
हिसाब बराबर हो गया
वरन वह जो इसे देखता हुआ
सिंहासन पर चुपचाप बैठा रहा
समय की अदालत में एक दिन
तुम्हारे साथ-साथ
उसका भी न्याय अवश्य होगा.                 

               
याद हो

भूलना तो थी बीमारी
जो बन गई है महामारी.

कि देखकर इस महल को
टपकने लगी है लार
जबकि हम तो
इस पर थूकने आये थे.

कि चमकना उस हीरे का
कारूणिक दास्तान है
एक समूचे महाद्वीप की
नदियों के लाल होने का.

कि इण्डिया शाइन का दशक
प्रयोग था लाखों किसानों द्वारा
जिन्दगी को रूई की तरह
उड़ा देने का
और भूख से बिलखते लोगों द्वारा
आम की गुठलियों में
जीवन रस तलाशने का.

कि दुनिया का चमकता चैधरी
बमों का ऐसा व्यापारी है
जो उसका खरीदार नहीं
उसे अपने जीवन से प्यार नहीं.

कि बेडौल सी कूबड
ऊँट की प्यास बुझाती है
और तराशा हुआ हिरण
मरीचिका में उलझकर
दम तोड़ देता है.

कि कैसे बताऊँ
इस महामारी का उत्सव मनाते हुए
लोगों को
कि आँखों का बाहर होना
पर भीतर जुड़ना
याद हो
तो सुविधा है
और भूल गये
तो शाप.

                 
बाजार में माँ

अपनी भाषा का नन्हा सा अदना सा शब्द माँ
जीवन में उतरते ही फैल जाता है धरती सा
सिरजते सम्भालते पोसते पालते
रखता है हमारा ख्याल बिल्कुल धरती जैसा ही
जब तक हमारी जड़ें फैली होती है उसकी गहराईयों में.
  
बनना पड़ता है लायक संतान कहलाने के लिए भी
कि जिसके आँचल तले पले हैं हम
एक दिन पड़ता है थामना उसे भी अपने जीवन में
कि जिसकी छातियों पर खड़े हैं हम गर्व से मस्तक उठाये,
उसकी भी होती है जगह हमारी दुनिया में.

आह! उठती है टीस
आत्मा में धसे काँटे से बनी गोरखुल के बीचोबीच
आज जमाने की चाल देखकर
कि बेटों का माँ के लिए बुना हुआ शब्दों का जाल देखकर
तड़पती है रूह उसकी
कविताओं के पीछे , कहानियों के नीचे
चित्रों की ओट में
मूर्तियों को गढ़ती हथेलियों की चोट में
जितने अधिक बेटे उतने अधिक गोल
और उनके बीच फुटबाल बनाकर पास की जाती है माँ
इस आपाधापी के मैदान में.

चीफ की दावत का नायक
सिर धुनता है हमारी कलाबाजियाँ देखकर
यह कैसा समय है भाई ?
जब ‘चीफ क्या , दुनिया को लहालोट करने के लिए
सजा है माँ का बाजार
वो झंझट वो पचड़ा
वो कोनें में उसको छिपाने का लफड़ा
कैसे खत्म हुआ मेरे भाई ?

वह कहानी थी जिसके अन्त की समझ
बाँटी जा सकती है आज भी
यह जीवन है जिसे एक बार ही होता है लिखना समझना
कि माँ हमारे घरों में शब्द जितनी ही छेंकती है जगह
पर उतनी ही जगह देने से मिलता है
अनन्त विस्तार हमारे जीवन को
कि बना लो मेरे भाई अपने दिलों में वह कोना
जहाँ वह चुपचाप ही सही पड़ी तो रहे
कि सटा दो मेरे भाई उस पर लिखी पुस्तकों
और उसकी बनी कलाकृतियों को
कि एक कोना तो खाली हो जाए.

शब्दों से जीवन नहीं बनता
यह जीवन है जो उन्हें बनाता है
कि आसमान की ऊँचाईयाँ नापती
पतंग को थामें रहती है डोर
दुनिया की नजर से ओझल धरती की गुमनामी से
कि जीवन रहित चमड़े का ढोल बनाकर
किया तो जा सकता है शोर
लेकिन उससे जीवन राग नहीं बजाया जा सकता .

ये पुस्तकें ये कलाकृतियाँ
उनके पीछे पलती अमरता की ईच्छा
बिला जायेंगी एक दिन अन्तरिक्ष में गये शब्दों की तरह
जब तुम्हारे घरों के कोने अँतरे भी नहीं दे पायेंगे माँ का पता
उस समय के लिए ही सही
बचाकर तो रखो उसे थोड़ी देर सुस्ताने के लिए
जैसे जड़ों से उखड़कर अरराकर गिरता है पेड़
तो अन्तिम प्रयाण से पहले विश्राम कराने के लिए
आँचल पसारती है वही धरती.



अर्जी  
               
पूछते हैं टालस्टाय
एक आदमी को आखिर कितनी जमीन चाहिए?’
दिखाता है सिकन्दर अन्तिम यात्रा पर जाते समय
मछलियों की उल्टी हुयी आँखों जैसी मुट्ठियों का खालीपन,
घिसटते हैं आज चाल के नरक में   
कभी सम्पूर्ण भारत के स्वामी रहे मुगलों के वंशज,
करता है स्वेच्छा से खाईयों को पाटने का निर्णय
समकालीन दुनिया में धन के एवरेस्ट पर बैठा आदमी
अपने साथियों द्वारा दिये इन उदाहरणों पर वे
मन ही मन मुस्कुराते हुए सोचते हैं
आदमी को अटल रहना चाहिए अपने निर्णयों पर’
क्योंकि यदि भविष्य में
सब कुछ ऊपर के जा सकने वाली अर्जी मंजूर हो गयी
तब तो मैं भी इन मूर्खों जैसा
हाथ मलता रह जाऊँगा.’’ 

12 टिप्‍पणियां:

  1. सभी संवेदनशील रचनाएं। न्याय ने अंदर एक सिरहन सी जगा दी। अकसर ट्रेन में यह नजारा देखने को मिलता है।

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  2. ishwar ko bhi nyaay ka saamna karna padega.. achha laga.. behad manji hui kavitayen hai.. bahut sundar.. ramji tiwari bahut badhai.. shukriya aprna.

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  3. रामजी बेहद संवेदनशील कवि हैं। उनकी काव्‍यदृष्टि बहुत बेधक है और उनका सर्जक मन विषयों को कई कोणों से देखता है। इसीलिये ये कविताएं अलग दिखाई देती हैं। मां पर लिखी गई कविता तो बिल्‍कुल अलग से रेखांकित की जाने वाली कविता है। यह हमारे समय में मां की हालत को बयान करती बड़ी कविता है। रामजी की राजनैतिक समझ उनकी कविता को दूसरे आयाम देती है। बधाई रामजी को और आभार अपर्णा जी का इन बेहतरीन कविताओं के लिए।

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  4. Arji aur Nyay achhi kavitayen hain...badhai-----विमल चंद्र पाण्डेय

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  5. vimal ji k baton ka samrthan karata hu.man aur usane kaha tha, ek dusare sire se vishay k padtal karati hai.philhal ..badhaiyon k bahumat k sath....apka sath phulon ka sath!---अरविन्द

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  6. रामजी भाई के पास लोक के अनुभव की बहुत बड़ी पूंजी है। उनकी संवेदना में सादगी और सच्चाई है और निश्चय ही साहित्य में इन सादगी और सच्चाई की बेहद दरकार है। बहुत-बहुत बधाई.....विमलेश त्रिपाठी

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  7. आखिरी तीनों कविताएं उल्लेखनीय हैं. छाये हुए हैं रामजी, इन दिनों. कविता और गद्य दोनों सामान रूप से अच्छा लिख रहे हैं.

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  8. ramji ki kavitayen vishay ke chunaw or bhasha ke rachaw se dhyan kheenchati hain. in kavitaon main jeewan or jameen ke prati sahaj aakarshan dikhayi deta hai.

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  9. "समय की अदालत...." बहुत प्रभावशाली कविताएं हैं।
    रामजी को बधाई और अपर्णा जी का आभार।

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  10. आप सब मित्रों का आभार हौसला आफजाई के लिए ...कोशिश करूँगा कि आगे भी आपकी उम्मीदों पर खरा उतरूं...|और अंत में अपर्णा जी का बहुत शुक्रिया , जिन्होंने इस मंच पर मुझे आने का अवसर दिया ...| ..धन्यवाद ...

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