मृदुला शुक्ला


मृदुला शुक्ला  की कविताओं में स्त्री की सहज अर्थ छवियाँ हैं जो उन्हें महत्त्वपूर्ण बनाती हैं।  स्त्री स्वर के अपनापे के साथ ठोस जीवन का यथार्थ भी इनमें आ मिला है। स्थानीयता और रवायतों के बीच खुलती कविताएँ बरबस आपको बाँध लेती हैं।



1-
तुमने जाने से पहले कहा था
"यहीं ठहर कर मेरा
इंतज़ार करना "

सब कहते हैं ,जाने वाले
कब लौटते हैं भला

मुझे तो बस
तुम्हारे कहे
का यकीन है

मैंने कह दिया है
गली के सूने मोड़
पर ऊंघते पीपल से
तुम
कभी
गए ही नहीं कहीं
यहीं रहते रहे हो
मुझमे हमेशा से

मुझे भले से याद है
उसने मुस्कुरा कर घुमा ली थी गर्दन
जब तुमने
देर तक थामें रखा था
मेरा हाथ
मिलाते हुए मुझसे आखिरी बार

इन सब की तो
तब भी नहीं सुनी थी
जब तुम थे,
सबके
सामने झुठलाती रही
तुम्हारा होना

और अब देखो न
हर एक को रोक -रोक कर
जतलाती हूँ
तुम्हारा यहाँ होना

और इस तरह
झुठलाती रहती हूँ
तुम्हारा चले जाना

क्यूंकि मुझे तो बस तुम्हारे कहे का यकीन है .




2-

कामना के धागे कोरे थे
और कच्चे भी
पियरा उठे चुटकी भर हल्दी से
यूं ही नहीं लपेटे गए थे
गिन कर पूरे एक सौ आठ बार

मन्नतों की मौली
कितनी रंगो भरी थी
लटकते हुए बूढ़े बरगद की दाढ़ी में
वर्षों तक
धूप छांव जाते
उसने सौंप दिए थे मौसमों को रंग सारे

मोहल्ले के मुहाने पर वह जो बूढ़ा बरगद है न
अमावस की रात
मन्नतों का मेला लगता है वहां
मौली और कच्चे सूत को तिहरा कर
बांधी गयी गांठों से
बाहर निकल आती हैं मनौतियाँ
बंधे बंधे
दम घुटता है उनका भी

बरगद अचरज भरी आंखों से देखता है
वे एक ही चेहरे-मोहरे, रंग आकार की हैं
अब भला उसे कैसे पता चलेगा
कि कौन सी मन्नत किसकी है....

मन्नतें झांकती हुई एक दूसरे की आंखों में
करती हैं सामुहिक विलाप
अपनी खो गई पहचान के लिए

मगर स्त्रियां हैं
कि अगले वर्ष जेठ की अमावस को
फ़िर बांध आती हैं
अनगिनित अधूरी कामनाओं के धागे.




3-

शीत समेट रही है
रही है अपने ठिठुरते
बिछौने
मौका देख बसंत ने भी
खोलना शुरू कर दिया
अपना पिछले साल का
जतन से  बंधा सामान

शीत की तरह
चुल्घुसना नहीं है बसंत
उसे तो चढ़ाने की जल्दी होती है
पीली चूनर
हरियाते सरसों के माथे पर
घूम घाम कर छेड़ छाड़ करनी होती है 
बगीचों में आम् मंजरियों पर
मधुअर्क चुन रही मधुमक्खियों से

और वे झरबेरियाँ जो औघड़ों सी
खड़ी होती हैं
हरे रंग के घंटी घूघुर लटकाए
उन मोतियों में पिरोने होते हैं उसे
कुछ लाल नारंगी मोती,

वो घूम आता है एक चक्कर
भूनते होरहों की सोंधी महक के लालच में
कराहों पर खौलते गुड़
और उसके आस पास रौरियाते
बच्चों की आँखों में
सच्ची भूख ,और चमकता स्वाद देखने

महुए का भी आमन्त्रण है
कि उसके फूलो के पकते रसों में
छोड़ दे अपनी
थोड़ी मादकता
ताकि मताए से फिरे
चैत बैसाख
टप्प
टप्प
टपकते महुए के संग
बीत जाने पर फगुनहट के

इस तरह तय हुआ है
शीत और बसंत के बीच
कि शीत लुक छिप कर रहेगी
कुछ दिन गौने की दुल्हिन सी
कोठरियों में
और बसंत तो छुटा साडं सा घूमेगा
सीवानो में .........

4-

आने जाने के इस निश्चित से
क्रम में,
सुनिश्चित होता है
आज का कल हो जाना

और अब जबकि ,
बहुत करीब आ गया है
वक्त तुम्हारे जाने का
मैं सोचती हूँ समेट दूँ तुम्हारे
तमाम बिखरे असबाब

बाँध दूँ ,अलग अलग रंगों की पोटलियों में
उनमे करीने से सजा कर रख दूँ
गुज़रे हुए वक्त के दुःख
मजबूरियां ,नाकामियां

बचा कर सबकी आँखे
निकाल लूँ चुपके से
कुछ खूबसूरत लम्हे ,ऐसे
जैसे ,कबाड़ी को बेचते हुए
तमाम टूटा फूटा बीत गया वक्त
एक बच्चा चुपके से निकाल लेता है
अपना मनपसंद खिलौना
बचा कर माँ की आँख

तुम चले जाओगे ,महज पंचांग में
कलेंडर के बदलते हुए पन्नों में
शेष रह जाओगे हमारे जीवन में ,ऐसे
जैसे ,बिजली से चलती मशीन में
दबा -दबा कर ,
रस निकाल लिए गए
गन्ने की खोई में भी
बची रह जाती है मिठास ,
झोक देने पर आग में भी
वो महकती है मीठी सी

तुम जाते जाते चले जाओगे
जाकर भी छूट जाओगे ..............................

5-

काश!!
रिश्ते सिले जाते
सुई धागे से

आखिरी छोर पर
एक मज़बूत गाँठ
लगा कर

काते जाते
चरखों पर

या फिर लपेट
कर रख लिए जाते
गर्म ऊन के गोलों की तरह
फंदा दर फंदा उतरते
सलाइओं पर

या कि फिर बनते
शहर के बाहर
कताई मिलों में
जिनकी चिमनिया
दूर से
क़ुतुब मीनार में
आग लगने का
भ्रम पैदा करती हैं

जिनके पिछ्वाड़ो
पर रहते रिश्ते बुनने वाले
दिहाड़ी मजदूर
आधे नंगे

तो क्या बदल जाता?
तब भी,
ठन्डे और गर्म
होते रिश्ते
बाजारों में बिकते रिश्ते
ऊँचे दामों पर
तो कभी ठेलों पर
नीलाम होते रिश्ते
कभी सस्ते
तो कभी महंगे होते,
ऊंची दुकानों में
फीके पकवानों से सजते रिश्ते

लेकिन..............
तब भी,
तुम जीते
रेशमी, गुलाबी
धागों से बुना
महकता खूबसूरत
महीन, जहीन मेरा रिश्ता

और मै............
बेतरतीब,अधउघडा
मोटे धागों से बुना,
जिसके पैबन्दो से
भी मै ढांप न पाती,
अपनी मोहब्बत
और तुम्हारी....................



6-

शीत लहरी के इन ठिठुरते दिनों में
तुम्हरे ऊष्मित स्पर्श
की स्मृतियों को
ओढती हूँ पश्मीने सा

तुम्हारे तप्त अधरों का
वो एक छोटा सा स्पर्श
जो स्पंदित है
अब तक मेरे माथे पर

कंपकंपाती रातो में
उसे आहिस्ता से उतार कर
सुलगा लेती हूँ अपने सिरहाने

वो रात भर दहकता है अलाव सा

मैं सेंकती हूँ रगड़ कर हथेलियाँ
जगाती हूँ उँगलियों के पोरों पर
सो रहे तुम्हारे पिछले सारे
स्पर्शों को

7-

सुनो सोलह दिसम्बर
तुम हमारी आत्मा के घाव को नासूर में बदलने का दिन हो,
टीसता, फूटता, रिसता,बहता
आज इस मौसम में पहली बार इतनी धुंध थी ,
सुबह पहली बार खिड़की खोलते ही
कुहरा कानो में फुसफुसाया था
पिछले साल जलाई हुई तमाम मोमबत्तियों ने नहीं बदला ज़रा सा भी मौसम का मिजाज़
वो कुहासा वो धुंध आज भी मौजूद है पूरे हनक के साथ
"अँधेरा कायम है "

बेटी को स्कूल वैन बिठा कर लौटते हुए मेरे पैर
अब और चिंतित कदमो से बढ़ते हैं घर की ओर
शामे ज्यादा अँधेरी होती हैं बेटियों के हिस्से में
चौराहों पर जलते तमाम हेलोजेन लैंप
कतरा भर भी नहीं बढ़ा पाए हैं उनके शामो के हिस्से में रौशनी .......

सुनो सोलह दिसंबर ....
पिछले बरस ,तुमसे पहली बार नहीं मिली थी मैं
तुम तो मेरे बचपन की सुनी परीकथाओं में थे
काले मुंह वाले राक्षस बन कर ,
मिथकीय कथाओं में इतिहास में
जौहर की आग में थे
तुम साथ चलते रहे मेरे भय की परछाई सा
बस पिछले बरस उस परछाई को चेहरे में बदलते करीब से देखा था..

पिछले बरस तुम आये और इत्मीनान से पसर गए ...
और ठहरे रहे पूरे साल,
अब तुम लौट जाओ
आने पीढ़ियों की परीकथाओं को बदलने दो,
अपने पात्र
अब राजकुमारी खुद सवार हो
श्वेत अश्व पर मिलने जाए राजकुमार को .........
तुम लौट जाओ साथ ले जाओ ऊंची दीवारों वाल किला
और राजकुमारी की सोलह साला कैद भी

सदियों का सफ़र का तय करके आये हो
लौटने में भी सदियाँ तो लगेंगी ही
आगे मत बढ़ो अपने पैरों की दिशा तो बदलो .
सुनो पथिक रास्ता लंबा है
पाथेय क्या लोगे ?




8-

छाँव कहाँ होती है
अकेली खुद में कुछ
ये तो पेड़ों पर पत्तियों का
दीवारों पर छत का
वजूद भर है

पतझड़ में पेड़ों से नहीं झरती
महज पीली पत्तियां भर
कतरा कतरा करके
गिरती है पेड़ों की छाँव भी

बदलते मौसम के साथ
लौटती नहीं
केवल पत्तियां भर
लौट आते हैं परिंदों के घोसले
ठिठकते हैं
मुसाफिरों के कदम भी

ठूंठ हुए पेड़ों के नीचे से
छाँव जा दुबकती है
पेड़ों के खोखले कोटरों में
इंतज़ार करती है रुकने का
बर्फीले तूफानो के
सेती हुई साँपों के अंडे

छाँव और धूप के बीच
हमेशा तैनात होती हैं
नर्म गुलाबी कोपलें पूरी मुस्तैदी के साथ





9-
कुछ डोरियाँ हैं जो बांधे रखती है
उसके सपनो को
कुछ बारीक से रेशे
उसकी खिलखिलाहट को

बचपन बंधा रहता है नैहर से
यौवन चुनरी
आशाये मांग से
मुस्कुराहट कोख से

पंख हैं तो सही
मगर उड़ाने बाँध दी जाते है
नोच दिए जाने के भय

सुबहें गरम पराठों से
शामें तुलसी चौरों पे जलते दिए से
दुपहरी थोड़ी ढीली सी लपेटी होती
आँगन में सूखते बड़ियों से
मर्तबानो में मुस्कुराते आचारों
जाने क्या है से बांधे रखता है उसे देहरी से

इस कदर बंधी है वो
और तुम कहते हो तुम्हारी जुबान कैंची की तरह चलती है

10-



तुम्हारी चुप्पी
और अपने बातूनी पन
के बीच
मैंने बना लिया है एक रिश्ता

तुम्हारी चुप्पियों में
मैं सुनती हूँ
उत्तर
अपने हर अनकहे प्रश्न का

तुम्हारा मौन
बोलता है
मेरी आवाज सुनती रहती है
मूक होकर

अक्सर मैं
अपने इस
एकालाप में शामिल कर लेती हूँ

मुस्कुरा कर
इस छोर से उस छोर तक
जाल बुनती
मकड़ियों को
मूकदर्शक सा

हवाओं को कहती हूँ वे
पहरेदारी करें दरवाजों की
उन खिडकियों की भी
जिनके खुलने का संदेशा
अब तक उनके पास
मौसम ने नहीं भेजा

मौसम गुलाबी लिफ़ाफ़े में कुछ
ख़त सरका गया है
सालों से बंद
पिछले दरवाजों के नीचे
की दरारों से

मैंने नमी से कहा है
वो हिफाजत करेगी
उनमे लिखी इबारत की

मेरा भरोसा
सीलन पर नहीं
ख़त की पक्की
इबारत पर है.......

11-



मकड़ियां तलाश में होती है
दो दीवारों के
जिनके कन्धों पर वो रख सकें
वे अपने बुने जाल का बोझ

दीवारों पर टिकी छत
ताका करती करती टुकुर टुकुर

वैसे
बेजुबान नहीं होती है छत
और कान भी उसके होते हैं
पूरे दुरुस्त हालात में

उसने सुन रखा
कि दीवारों के भी होते है कान
वो जरुर
एक दिन सुन पाएंगी
भुनगों की मिमियाहट

और झटक कर उतार फेंकेंगी
खुद के कंधो के सहारे
पर बुने जाल
और मुखर हो
करेंगी शिकायत छत से

मगर दीवारें मानती ही
इन जालो को अपने बीच का सेतु

छत को प्रतीक्षा है दीवारों के
मुखर होने की
वो तोडना चाहती है
ये मिथक
"की दीवारों के भी कान होते हैं"
शायद
उनके मुंह होती है जुबान भी




जन्म: 11 अगस्त १९७०, प्रतापगढ़
शिक्षा:स्नातकोत्तर
सृजन: कविता संग्रह : उम्मीदों के पाँव भारी है ......प्रकाशित
सम्प्रति: शिक्षण,गाज़ियाबाद
संपर्क : : mridulashukla11@gmail.com)



       

10 टिप्‍पणियां:

  1. सच है अपर्णा। मृदुला शुक्ल की इन कविताओं में स्त्री की सहज छवियाँ हैं। स्त्री का मूल स्वभाव सभी कविताओं का मुख्य स्वर है।
    "मगर स्त्रियाँ हैं कि
    अगले वर्ष फिर बांध आती हैं"

    इसी तरह

    "इस तरह झुठलाती रहती हूँ
    तुम्हारा चले जाना"

    सचमुच बांध लेती हैं ये कविताएँ।
    इतनी सार्थक कविताओं के लिए आभार।

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  2. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सुंदर कविताऐं ।

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  3. बहुत सुन्दर और भावुक अभिव्यक्ति
    हार्दिक शुभकामनाऐं ----
    सादर --

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  4. एक मृदु-लता है मृदुला जी के पास, जो धरती और आकाश के बीच संवेदना के सूक्ष्‍मतम तंतुओं को अपने पाश में कस कर कविता-पुष्‍प रच देती है। बधाई और शुभकामनाएं कि यह मृदु-लता यूं ही पुष्पित और पल्‍लवित होती रहे।

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  5. एक पारिवारिक हिन्दू स्त्री की सहज सुन्दर कवितायेँ। मृदुला जी को बधाई।

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