शम्भु यादव




























जीवन के आइने में::



च र च रा ह ट

मुझे इतनी अच्छी लगती नहीं

जितनी अच्छी लगती है

मिठास गुड़ की

गुदगुदाहट भरे संबंध

नए प्रेमी जोड़े में छिपी-छिपी मुस्कुराहट

बच्चों की तुतलाहट थकान हरती



मुझे हमेशा बुरा लगा-

राहू-केतु का चांद काटना

दारू के नशे में लिजलिजाता युवा

देश की जनता के संघर्ष को धता दे

सांड के नथुनों सा थर्राता बैरी नेता



परवरदिगारी रहमोकरम का फूहड़ गान

विषधारी की सद्भावना

छाती में जमा खखार



और सौदागर का चेहरा 

जीवन के आइने में खलकामी विस्तार

दुनिया का चेहरा विकृत है इस रूप से



कुएं के गहन अंधेरे में डूबता-छूटता इच्छापात्र



मैं बचाकर रखना चाहता हूं बहुत सी चीजें

माँ का घास खोदने वाला खुरपा 

झाई भरी पुतलियों में सुख का बिम्ब

करुणा का संवेग संसार में



वह राग 

जिसकी चाहत में छटपटाते है बसंत के रंग भी



जीना सिर्फ गणना भर न हो

मुश्किल में न हो अच्छी धुनों की जुगलबंदी



समय नहीं इतना आसान::




चिड़ियां चुग लें दाने आसानी से
और कबूतर फिर से
शुरू कर सके अपनी गुटरगूँ
समय नहीं इतना आसान

हाथ में प्रेम के फूल
आंखों में वासना उन्माद

स्वार्थ के घोडे़
दौडते है आशनाई सड़कों पर
दलालों की कमाई का नशीली रात में उल्लास

थैलीशाहों की थैली में 
शोषण के रक्त का जमाव
देख लें साफ

समय नहीं इतना आसान



 बच्चे खेल रहे है मैदान में::


टी वी स्क्रीन से बाहर निकल
किताबों के चमगादड़ी शब्दों को दे गच्चा
बच्चे खेल रहे है मैदान में

हवा में फुदकते जोशभरे बादल
गदम-गदम फुली है पृथ्वी
अपनी छाती बांह पसारे
बच्चों की धमाचौकड़ी मे
मस्त-मग्न पेड़

जीवन का सबसे बड़ा रास 
जारी है बच्चों के खेल में

बच्चों की आंखों में मोती की आब
गालों पर आफ़ताब का ताप
कुछ बातें हैं ढ़ींग भरी
कुछ चांद से ख्वाब
मुश्किल है थका पाना बच्चों को

कहते हैं
बच्चों में ब्रहमांड की सबसे बड़ी इच्छा का वास.

बदलते मौसमों सी बदली है दुनिया अब-जब
लालसा लिप्सा की विस्तारित लपलप- 
बचे है जो भी जमीन के टुकड़े
और बच्चे खेलते है जिस मैदान में
बने-ठने कंकरीट बन जाएं
               
लेकिन मैं कह दूं अपनी भी
बच्चे खेलते है जिस मैदान में
रहे खेलने का मैदान ही
रहे खेलने का मैदान ही
नहीं तो जैसा कि बच्चों में बिराजी है सबसे बड़ी इच्छा

ललचाई लपलप पर
अपनी किल्लियां गाड़ देते हैं बच्चे।



साफगोई की आशा में::



काहे जरूरत थी इतना कुछ बताने की

काहे किए इतने प्रपंची-शोध कि

शीशे के ताबूत में बंद शरीर के

मृत हो जाने पर आत्मा निकलती है



शीशा किरक जाता है जो ताबूत का

‘आत्मा होती है’ का प्रमाण है।



कह देते बस इतना भर

जैसे धूप पार कर जाती है

साफ-स्वच्छ शीशे में से

वैसे ही आत्मा आर-पार, चमाचम



लेकिन साफ और स्वच्छ शीशा कहां है ?

यहां तो किसी पर धूल जमी है

तो किसी ने अपने पर 

मंड रखी है काली फिल्म



और किसी पर रोगन के छींटे जो लगे हैं

उसे कौन छुड़ाए!?





गृहस्थ-मैं और तुम::



यात्रा से लौट आई है घर की मालकिन

शांत पड़े घर के वोकल कोड को मुंह लग गया है



चुगलखोरी-सी हो रही है

तीन दिन में चाय का आधा डब्बा साफ़



वर्षो से संभाल के रखा गया था जिस भगौने को

मैं ही सावित हो रहा हूं उसका हत्था-तोड़



एक दिन ग़ुस्लखानें का पानी

आधे दिन बहता रहा है बगैर बात



कहीं नज़र नहीं आता

ज़रा सी भी झाडू लगाई गई हो घर में



एक पूरी ब्रेड से घर की खिड़की पर आने वाले बंदरों को जिमाया गया है



भ्रूकुटी  तन चुकी है घर की मालकिन की



वाह रे जश्न–ए-आज़ादी

तीन दिन में ही शराब की पूरी बोतल गटक ली



कोने-कोने में सूंघी जा रही है सिगरेट की गंध



अख़बार खुले पड़े हैं बेड पर ऐसे कि

पता नहीं कितनी और ख़बरें इन में से हों पढ़नी  



आपस में कानाफूसी  

हिस्ट्रीज़ कुकीज़ टेम्परेरी फाइल्स को तो उड़ा दिया है ना  



कंप्यूटर पर आ धमक पड़े हैं दोनों बच्चें  


इनसाइट’::



 सहज ही दो हाथ नफ़ासत से
गिरते आंसुओं को भर रहे अपनी अंजुरी में

जीवन का उल्लास कभी चूका नहीं है ‘निदा’
दादी माँ की काठ-संदूकची में चिकनी-हांडी
घी से लबालब अब भी

अब भी बरसता है सपना 
धरती के रंध्रों में सोंधी महक

इच्छा के आंगन में झूम पतंग की
उछलता बच्चा खुश है

एक घर की बेल दूसरे आंगन में फलती

खिल आई है धूप
हवा बेखौफ़
दिल खोल मिल रहे हैं मेरी गली के लोग

‘जगजीते’ बोलों का जादू यह
बंद मुट्ठी में भरी रेत
गुदगुदी जानी-अनजानी
झरती हल्की मानिंद
खुल रहा है रोंआं-रोंआं।

 'निदा फाज़ली लिखित गजलों का जगजीत सिंह द्वारा गाया कैसेट सुनकर’












13 टिप्‍पणियां:

  1. शंभू जी के कविता की अपनी सोंधी महक है जो अपनी तरफ हमें अनायास ही खींच लेती है. शंभू की कविताओं से मैं पहले भी दो-चार होता रहा हूँ वे उस शीशे की तरह साफ़-सफ्फाक हैं जहां सब कुछ देखा-महसूसा जा सकता है. जिन पर वह धुल-गर्द नहीं जो अपने में बहुत कुछ छिपाए हो और अबूझ हो. बधाई और शुभकामनाएं .

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  2. शम्भू भैया बेहतरीन कवि इसलिए हैं क्यों कि वे एक बेहतरीन इंसान भी हैं .....बहुत -बहुत बधाई उन्हें | प्रस्तुति के लिए आपका आभार |
    नित्यानंद गायेन
    सादर

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  3. कह देते बस इतना भर....जैसे धूप पार कर जाती है..... साफ-स्वच्छ शीशे में से..... वैसे ही आत्मा आर-पार, चमाचम.....ऐसी ही कवितायें....कहीं कोई गर्द नहीं

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  4. कविताओं का यह स्वर मन को आश्वस्त करता है की खेल के मैदान को देखती लालची दृष्टियों को बच्चों की किलकारियां बचा सकती हैं . एक घर की बेल दुसरे के आँगन में फल सकती है और चरचराहट से अधिक मीठे गुड की दरकार ही हम सबको बचाए हुए है .. शम्भु जी की कविताएँ मुझे पसंद हैं वह यथार्थ की ज़मीन से बिम्ब उठाते हैं और कविताओं में प्राण फूंकते हैं .. बधाई उन्हें

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  5. शंभु यादव जी की कविताएँ पढ़ता रहा हूँ और उनकी कविताओं में समाज व व्यक्ति के जीवन में आ रहे परिवर्तनों और उन परिवर्तनों की विडंबनाओं की अंदरूनी कथाओं की बारीक पहचान को जो स्वर मिला है, उससे प्रभावित होता रहा हूँ । भाषा में प्रायः खिन्न और नाराज तेवरों के बावजूद सामाजिक अवसाद के विभिन्न पहलुओं को कविता का विषय बना लेने की उनकी क्षमता उन्हें उल्लेखनीय बनाती है । यहाँ प्रस्तुत सरल सहज सी 'दिखने' वाली उनकी कविताओं में मैं जीवन की कविता और कविता के जीवन को धड़कता हुआ महसूस करता हूँ |

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  6. शंभु की कविताएं सच में हमारे पारंपरिक और बेहद परिचित संसार को दूसरी और तीसरी दृष्टियों से देखने के लिए विवश करती हैं, क्‍योंकि वे हमारे जाने-पहचाने संसार को एक ऐसे बेहद संवेदनशील और सजग कवि के तौर पर देखते हैं, जैसे दुनिया के प्रपंचियों और प्रहरियों पर भी पहरेदारी करने वाला कवि देखता है। इसीलिए वे खेल के मैदान में बच्‍चों के खेल के भीतर गिल्लियां गाड़ देने की धौंस भरी आहट देख सकते हैं, जो अंतत: एक बड़ी लालची दुनिया की ओर ले जाती है।

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  7. मेरे प्यारे दोस्त यादव शम्भु कविकर्म, दायित्व-निर्वाह और स्नेह के साकार रूप हैं. ज़िन्दगी के सच को एक झटके में तड़ाक से कह देने की सीधी-सच्ची, खरी-खरी, बेलाग-लपेट, दो-टूक कथन की उनकी शैली हर मासूम दिल को छूती है, हर बेचैन आत्मा को कोंचती है और हर आहत मन को थपथपाती है. उनकी धारदार लेखनी से एक और सच की यह सुन्दर स्वीकारोक्ति देखिए –

    ":: गृहस्थ - मैं और तुम ::
    यात्रा से लौट आई है घर की मालकिन
    शांत पड़े घर के वोकल कोड को मुंह लग गया है
    चुगलखोरी-सी हो रही है
    तीन दिन में चाय का आधा डब्बा साफ़

    वर्षो से संभाल के रखा गया था जिस भगौने को
    मैं ही सावित हो रहा हूं उसका हत्था-तोड़
    एक दिन ग़ुस्लखानें का पानी
    आधे दिन बहता रहा है बगैर बात

    कहीं नज़र नहीं आता
    ज़रा सी भी झाडू लगाई गई हो घर में
    एक पूरी ब्रेड से घर की खिड़की पर आने वाले बंदरों को जिमाया गया है
    भ्रूकुटी तन चुकी है घर की मालकिन की

    वाह रे जश्न–ए-आज़ादी

    तीन दिन में ही शराब की पूरी बोतल गटक ली
    कोने-कोने में सूंघी जा रही है सिगरेट की गंध
    अख़बार खुले पड़े हैं बेड पर ऐसे कि
    पता नहीं कितनी और ख़बरें इन में से हों पढ़नी

    आपस में कानाफूसी
    हिस्ट्रीज़ कुकीज़ टेम्परेरी फाइल्स को तो उड़ा दिया है ना
    कंप्यूटर पर आ धमक पड़े हैं दोनों बच्चे"

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  8. मेरा प्यारा शम्भु, अगर कविता नहीं लिखता न, तो लोग उसे रस्ते में रोक-रोक कर पढ़ते....

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  9. 'चमगादरी शब्द' 'परवरदिगारी रहमो-करम'--ऐसी अभिव्यक्तियाँ शम्भू की ख़ास पहचान हैं . आप नाम हटा भी दें तो उसकी कवितायें पहचानी जा सकती हैं . आज के समय में यह बड़ी बात है... और गृहस्थ वाली कविता तो गजब है . जियो!

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  10. अपर्णा जी का आभार
    आप सब दोस्तों का आभार
    -शम्भु यादव

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  11. बच्चे खेल रहे हैं मैदान में सबसे अच्छी लगी। भाषा की सहजता कथ्य की संप्रेषणीयता को बढ़ा दे रही है।

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