सुशीला पुरी ::














1

मोरपंखी

मक्खन की तरह
चुराते रहे
रोज़ तुम मुझे
पिघलती गई मै थोड़ा थोड़ा
और अंततः
जुड़ गई तुमसे
मोरपंखी की तरह ।




2.


गेंद


गेंद थी मैं
लेकर चली गई
यमुना की अतल गहराइयों में
और जब उबरे
लहरों पर नर्तन था
और थी बांसुरी की धुन ।


3

वह पूछता है


वह पूछता है-
'तुम इतना क्यूँ याद आती हो '
और सिवाय इसके कि
यही सवाल मैं उससे करूँ
कुछ नहीं बचता है कहने को ।






4

दुखों का गोबर्धन


मूसलाधार उदासी मे
विसंगतियों की भीड़ थी
तितर -बितर इच्छाएँ थी
तुम आए
तुमने उठा लिया
मेरे दुखों का पूरा गोबर्धन .



5.

मरुस्थली समंदर




बस माँगा है तुमसे
वह बिसरी हुई धुन
जो छिपी थी कहीं मेरे ही भीतर
थिरकना चाहती हूँमैं
पूरे आकाश को समेट कर
अपने आँचल में ,
रोप देना चाहती हूँ मैं
हवा के पैरों में
सरगम की थाप
चुप्पी के सीने पर लिखनी है मुझे
इबारत अनहद नाद की,
भिगोना है उन मिसरों को
जो भटक रहे हैं मरुस्थली समंदर में .


6.

बरसते रंगों के बीच



जब फिर मिलेंगे हम
बरसते रंगों के बीच
नहायेंगे ---------
चाँद की लम्बी यात्राओं के
मौन सहचर-
आकाश  के अनंत छोर का
इन्द्रधनुषी नीलापन ,
नहायेंगे ----------
संजीवनी से तर
बर्फ ओढ़े -
हिमालय की देह का
बेख़ौफ़ उजलापन ,
नहायेंगे -
पहली बारिश के बाद
अपने सोंधेपन में डूबी
वसुन्धरा के अधरों का
नयनसुख हरापन ,
नहायेंगे ---------
भीतर पलते पलाशों में
शब्दों से दूर -
छुवन की नदियों के
हजारों -हजार रंग ,
जब फिर मिलेंगे हम .








7.


तुम्हे बरतती हूँ



तुम्हे बरतती हूँ ऐसे ;जैसे
हवा बरतती है सुगंध को
और दूब की नोक से चलकर
पहुंचती है शिखर पर ,
तुम्हे बरतती हूँ ऐसे ;जैसे
जल बरतता है मिठास को
और घुलकर घनीभूत होकर
मिटाता है युगों की प्यास ,
तुम्हे बरतती हूँ ऐसे ;जैसे
धरती बरतती है हरी घास को
और उसकी हरीतमा में
लहालोट हो छुपा लेती है चेहरा ,
तुम्हे बरतती हूं ऐसे; जैसे
उमंगें बरतती हैं उद्दाम को
और अपनी बांहों में
भर लेना चाहती हैं समूचा आकाश .


8.


सालों साल वसंत


पहले पहल
सर्द रातों में
जब दूर- दूर तक कोई अलाव न था
किया तुमसे प्रेम ,

फिर गर्मियों के दिन
पसीने से तरबतर होकर
खोजते हुये शीतल छांव
करती रही प्रेम ,

उसके बाद बारिश
जितनी भीगती गई
पानी की परतों मे
उतना ही डूबती गई
तुम्हारे प्रेम मे ,

और अब ...
अब तो सालों -साल
रहता है वसंत
फूलों की सुगंध सा

तुम्हारे प्रेम का ... ।





9.


सुखों का ग्लेशियर



नदी की लहरों पर
खुशी की धूप उगती है
जब वह छूती है
तुम्हारी आवाज ,
उसकी उदास लहरें
पहन लेतीं हैं तुम्हारी महक
नदी नहाती है अपनी ही
भूली बिसरी चाहतें ,
भीग जाती है नदी
उस धूप की मिठास में
स्थगित धुनें सुर साध लेती हैं
और नदी उस सरगमी नमी मे
उमगकर डूब जाती है ,
बर्फीले सपनों को मिलती है
नरम धूप की अंकवार
हाँ तुम्हारे आवाज की छुवन
नदी के भीतर पिघला देती है
सुखों का पूरा ग्लेशियर ।



10

तंदुल


सुदामा के तंदुल -सी मैं
छुपती रही यहाँ -वहां
तुम मिले
तुमने छुआ
मुझे मिला
प्रेम का ऐश्वर्य।

25 टिप्‍पणियां:

  1. रोप देना चाहती हूँ मैं
    हवा के पैरों में
    सरगम की थाप...
    >>>>>>>>>>>>>>>
    नहायेंगे ---------
    भीतर पलते पलाशों में
    शब्दों से दूर -
    छुवन की नदियों के
    हजारों -हजार रंग ,
    जब फिर मिलेंगे हम.
    >>>>>>>>>>>>>>
    तुम्हे बरतती हूं ऐसे; जैसे
    उमंगें बरतती हैं उद्दाम को..
    >>>>>>>>>>>>>>>>>
    नदी की लहरों पर
    खुशी की धूप उगती है
    जब वह छूती है
    तुम्हारी आवाज.......
    >>>>>>>>>>>>>>>>>
    सुशीलाजी की कविताएं हमेशा ही ग्रीष्म की रातों में नदी को छू कर आई एक ठंडी बयार जैसी तृप्ति देती हैं. बरबस ही बहुत पहले पढ़ी मधुशाला की ये पंक्तियाँ याद आ गईं:
    जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला
    जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला
    जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है
    जितना ही जो रिसक उसे है उतनी रसमय मधुशाला
    ......>>>>>>>

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  2. वह पूछता है-
    'तुम इतना क्यूँ याद आती हो '
    और सिवाय इसके कि
    यही सवाल मैं उससे करूँ
    कुछ नहीं बचता है कहने को ।

    .....अध्भुत...सारी कविताएं....बहुत अच्छी हैं

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  3. उसके बाद बारिश
    जितनी भीगती गई
    पानी की परतों मे
    उतना ही डूबती गई
    तुम्हारे प्रेम मे

    बहुत सुंदर! लगभग सभी कविताओं में गहरी अनुभूतियां है. एक सुझाव है अपर्णा जी अगर अन्यथा न लें.. कृपया फ़ोंट साइज थोड़ा बडा कर सकें तो कर दें क्यूंकि ब्लैक बैक ग्राउंड में इतने छोटे फ़ोंट पढने में असुविधा होती है..

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  4. "तुम्हे बरतती हूँ ऐसे ;जैसे
    जल बरतता है मिठास को
    और घुलकर घनीभूत होकर
    मिटाता है युगों की प्यास ,
    तुम्हे बरतती हूँ ऐसे ;जैसे
    धरती बरतती है हरी घास को"
    कितने सघन आत्‍मीय भाव से रची गई हैं ये कविताएं, कितनी सहज और निथरे हुए जल की तरह, शान्‍त और सुगंधित हवा के झौंके की तरह ताजी और कुछ नया तलाश करती हुई सी..... बधाई सुशीलाजी।

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  5. 'मूसलाधार उदासी'
    अब तक मेरी संवेदनाओं में बरस रही है.. ऐसा सुन्दर बिम्ब .. अद्भुत

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  6. बधाई सुशीला जी, बहुत भायीं कविताएँ।

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  7. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (10-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

    नवनीत जी का कहना सही है थोडा फ़ोन्ट साइज बडा कर दीजिये।

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  8. उसके बाद बारिश
    जितनी भीगती गई
    पानी की परतों मे
    उतना ही डूबती गई
    तुम्हारे प्रेम मे ,..

    बहुत ही खूबसूरत रचनाये है ,सहज ,सरल..
    मूसलाधार उदासी'
    अब तक मेरी संवेदनाओं में बरस रही है

    सुंदर भावमयी प्रस्तुति के लिए शुभकामनाये

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  9. प्रेम में पगी मीठी मीठी कवितायें ... सुन्दर

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  10. sari ki sari rachnaayen adbhut hain.... kaheen kaheen to jo chamatkar mehsoos hua usse aage badhne ka jee hi nahi chaah raha tha...naman aapko in rachnaon ke liye

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  11. ''तुम आए
    तुमने उठा लिया
    मेरे दुखों का पूरा गोबर्धन .''

    इन कविताओं ने लेकिन 'दुखों का गोवर्धन' ही नहीं उठाया, गहरी संवेदना के अकथ रंगों की छतरी भी आकाश में फैला दी। अब बस ये कविताएं हैं....और हम हैं, इन्हें पढते हुए।
    बधाई। कुछ पहले भी पढी़ जा चुकी कविताओं को एक जगह पुन: एकत्र करने के लिए।

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  12. अनामिका की एक पंक्ति का प्रयोग करते हुए "तन्मय एकान्तों का महारास" हैं सुशीला परी यह कविताएँ..

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  13. बहुत ही अच्छी रचनाये है , काफी देर तक दिमाग पर जोर देने के बाद ही इतनी सुंदर बनी होंगी या फिर जिन्दगी में कुछ ऐसा अनुभव जिसको याद करने के बाद लिखा होगा !

    भीतर पलते पलाशों में
    शब्दों से दूर -
    छुवन की नदियों के
    हजारों -हजार रंग ,
    जब फिर मिलेंगे हम .

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  14. बहुत खूबसूरत रचनाएं। बधाई...

    योगेंद्र कृष्णा

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  15. बहुत सुन्दर कवितायें !
    किसी 'तुम' को संबोधित !
    और ये 'तुम' और कौन हो सकता है ........
    सिवाय रचनाकार के !

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  16. bahut sunder aur gahri kshanikaayen hain.
    pls. thoda fond bada ki jiye ya base colour black change kar dijiye.

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  17. Ham ne maangi Zindagi
    Ham mar gaye
    Hamne maanga doobna
    Ham tar gaye!

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  18. जीवन-रस में गहरी पगी इन कविताओं में जितनी आत्‍मीयता है वह रूमानी होते हुए भी यथार्थवादी है। पिछले कुछ बरसों में हिंदी कविता ने या कहें कि कुछ कवियों ने सहजता और आत्‍मीयता का दामन छोड़कर कविता को पाठकों से दूर ले जाने का जो जतन किया, उसका एक सार्थक प्रतिवाद है यहां। भविष्‍य की कविता ऐसे ही सहज और आत्‍मीय भावों की कविता होगी, जहां 'मूसलाधार उदासी' जैसे अनुपम बिंब मिलेंगे। बधाई।

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  19. आज इकट्ठे तुम्हारी कविताओं को देखकर मन गद गद हो गया ! बधाइयाँ !

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  20. सुशीला, आपकी कई कवि‍ताएं एक साथ पढ़ते हुए दुनि‍या बदलने लगती है। मन आर्द्र हो उठता है। ये कवि‍ताएं साथ-साथ हैं....ऊपर से सहज-सरल, पर भीतर प्रबल चुम्‍बकीय शक्‍ति‍। अनहद नाद की तरह गूंजती हुई.....।

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  21. didi apki kavitaye man ko yese choti hai jaise sardiyo me gunguni dhop aur garmi ki jhulasti lu me barf ki silliyame

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  22. प्रिय सुशीला,
    तुम्हारी सब कवितायेँ पढ़कर मौन हूँ। मन की गहराइयों में उतरने और फिर अनकहे और अछूए को शब्दित करने की सधी भाषा में 'बरतने ' का शिल्प सहज ही गढ़ लेना-- --- --
    मैं इतना अभिभूत हूँकि कुछ कहा नहीं जाता --
    बस तुम हो ,तुम्हारी कविता है --और मेरा मौन है। इतनी संवेदनशीलता आज कहाँ देखने को मिलती।
    अभिभूत हूँ।
    अग्निशेखर

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  23. सुशीला जी .कवितायेँ पढ़ती गयी और भावों की लहरों में डूबती उतराती रही .बहुत ही भावप्रवण .बधाई ,शुभकामनाएं !!

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